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Friday, 15 November, 2024
होममत-विमत'मुफ्त की रेवड़ियों' से पड़ रहे आर्थिक बोझ को आखिर कब महसूस करेगी केंद्र सरकार

‘मुफ्त की रेवड़ियों’ से पड़ रहे आर्थिक बोझ को आखिर कब महसूस करेगी केंद्र सरकार

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्तारूढ़ दलों द्वारा इस तरह के लोकलुभावन लेकिन आर्थिक रूप से अव्यावहारिक इन वादों को पूरा करने की वजह से राज्यों के विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित होते हैं.

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आर्थिक कुप्रबंधन की वजह से बर्बादी के कगार पर पहुंचे श्रीलंका की स्थिति को देखते हुए भारत के नौकरशाह अपने यहां भी कुछ राज्यों में ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की आशंकाओं के प्रति केंद्र सरकार को आगाह कर रहे हैं. नौकरशाहों को लगता है कि देश में नागरिकों को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का सिलसिला बंद होना चाहिए लेकिन वोट की राजनीति ऐसा नहीं होने दे रही है.

नौकरशाहों को तो अब यह खतरे का अहसास हो रहा है लेकिन संभवत: न्यायपालिका ने करीब नौ साल पहले ही इस खतरे को भांप लिया था और उसने मुफ्त की सुविधाएं देने के वादे करने की राजनीतिक दलों की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए उचित कानून बनाने का सुझाव दिया था लेकिन इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया क्योंकि सत्ता पर काबिज होना ही राजनीतिक दलों की प्राथमिकता है.

प्रधानमंत्री के साथ दो अप्रैल को हुई सचिवों की बैठक में यह मुद्दा भी उठा कि राज्य सरकारें कर्ज लेकर मुफ्त की योजनाएं चला रही हैं और अगर इस ओर तत्काल ध्यान नहीं दिया गया तो भारत में भी श्रीलंका जैसी स्थिति बन सकती है.

अब तो ऐसा लगता है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए राजनीतिक दलों में मुफ्त की सुविधा देने के वादे करने की होड़ लग गयी है और स्थिति यह है कि चुनाव के दौरान लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल वोट हासिल करने के लिए मुफ्त बिजली पानी, महिलाओं को बसों में मुफ्त यात्रा और हर महीने नकद राशि से लेकर ना-ना प्रकार के प्रलोभन मतदाताओं को देते हैं.

सत्ता में आने के बाद इन दलों के लिए इन वादों को पूरा करने के लिए धन की समस्या पेश आती है जैसा कि हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के बाद पंजाब में आप सरकार के सामने आ खड़ी हुई. राज्य के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने पंजाब की खराब आर्थिक स्थिति की दुहाई देते हुए प्रधानमंत्री से हर साल 50,000 करोड़ की मदद मांगी है.

पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बने अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं लेकिन 300 यूनिट मुफ्त बिजली देने के वादे पर अमल नहीं होने का मुद्दा राज्य में असंतोष का कारण बनने लगा है.


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कर्ज माफी, बिजली, पानी मुफ्त

दिल्ली में भी बिजली और पानी मुफ्त प्रदान किया जा रहा है जबकि बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा प्रदान की गयी है. मुफ्त में प्रदान की गयी इन सेवाओं की वजह से दिल्ली का राजस्व भी प्रभावित हुआ है. बताते हैं कि इस समय दिल्ली जल बोर्ड पर भी हजारों रुपए का कर्ज है.

कमोवेश, कई अन्य राज्यों में भी बेरोजगारी भत्ता, किसानों का कर्ज माफी, मुफ्त बिजली और किसानों के बकाया बिल माफ करने की मांग जोर शोर से उठती है. इस संबंध में देश के विभिन्न राज्यों में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की ओर भी सरकारों का ध्यान आकर्षित किया जाता है.

कुछ राज्यों में इन मांगों पर विचार के बाद किसानों को एक निश्चित मात्रा में मुफ्त बिजली और उनके कर्ज माफी और बिजली के बिल माफी का सिलसिला शुरू हो गया है. निश्चित ही इस तरह की रियायतों का असर राज्य के राजस्व पर पड़ता है, लेकिन ऐसे वादे करते समय राजनीतिक दल राज्य की आर्थिक स्थिति का आकलन नहीं करते हैं और बाद में पैसा नहीं होने का रोना रोते हैं.

बेहतर हो कि इस तरह की मुफ्त सुविधाओं के जाल में नागरिकों को उलझाकर राजनीतिक रोटियां सेकने की बजाए उनकी समस्याओं के निदान के लिए ठोस उपाय किये जाएं ताकि मुफ्त की सुविधा देने की वजह से राज्यों के राजस्व पर अनावश्यक बोझ नहीं पड़े और उनकी आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित नहीं हो.

समस्या यही है कि राज्य की आर्थिक स्थिति का आकलन किए बगैर ही राजनीतिक दल मुफ्त सुविधाएं देने के वादे करते हैं और सत्ता में आने पर इन वादों को पूरा करने में असफल हो जाते हैं जो आगे चलकर कई बार अशांति और तनाव के कारण बन जाते हैं.

चुनावी वादे के रूप में मुफ्त की रेवड़ियां

इस तरह की मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की प्रवृत्ति पर न्यायपालिका लंबे समय से चिंता व्यक्त कर रही है. बल्कि न्यायपालिका की ओर से ही एक बार सुझाव दिया गया था की इस तरह के अव्यावहारिक वादे करने वाला दल अगर सत्ता में आता है तो उसे इन वादों पर खर्च होने वाली राशि का एक हिस्सा स्वयं वहन करना चाहिए.


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लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्तारूढ़ दलों द्वारा इस तरह के लोकलुभावन लेकिन आर्थिक रूप से अव्यावहारिक इन वादों को पूरा करने की वजह से राज्यों के विकास कार्य बुरी तरह प्रभावित होते हैं.

नागरिकों को सत्ता में आने पर मुफ्त की रेवड़ियां देने के वादों पर अंकुश लगाने और उचित कानून बनाने पर विचार करने के लिए न्यायपालिका बार बार केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग को सुझाव भी दे रही है. लेकिन किसी के भी कान पर जूं नहीं रेंग रही है. निर्वाचन आयोग ऐसी दंतविहीन संस्था है जिसने आदर्श आचार संहिता में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के वादे पर अंकुश लगाने के बारे में कुछ प्रावधान किये लेकिन वे ज्यादा प्रभावी नहीं रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले को काफी गंभीरता से लिया और उसने 25 जनवरी, 2022 को अश्विनी कुमार उपाध्याय और यूनियन ऑफ़ इंडिया जनहित याचिका पर केंद्र और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किये थे. अपने आदेश में न्यायालय ने कहा था कि रिकार्ड में पेश की गई सामग्री के सावधानीपूर्वक अवलोकन करने के बाद केंद्र और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किया जा रहा है. लेकिन इसके बाद से यह मामला अभी तक सूचीबद्ध ही नहीं हुआ है. अब कंप्यूटर से तैयार होने वाली न्यायालय की 18 मई की कार्यसूची के लिए इसे दर्शाया गया है.

यह सही है कि चुनावी वादे के रूप में मुफ्त की रेवड़ियां देने की घोषणा जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं है लेकिन शीर्ष अदालत भी चुनावों में इस तरह से रेवड़ियां बांटने के वादे करने की प्रवृत्ति उचित नहीं समझता है.

शीर्ष अदालत ने तो इस प्रवृत्ति पर अंकुश पाने के लिए जुलाई, 2013 में एस.सुब्रमण्यम बालाजी और गवर्नमेंट ऑफ  तमिलनाड और अन्य में इस संबंध में अलग से कानून बनाने का भी सुझाव दिया था लेकिन केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों ने इस समस्या पर गंभीरता से विचार ही नहीं किया.

यही नहीं, हाल ही में न्यायपालिका ने लोकलुभावन वादों से उत्पन्न स्थिति के परिप्रेक्ष्य में टिप्पणी की थी कि राजनीतिक दलों को ऐसे वादे करते समय इनकी व्यावहारिकता और राज्य के राजस्व की स्थिति को भी ध्यान रखना चाहिए.

उम्मीद की जानी चाहिए कि श्रीलंका की गंभीर स्थिति के परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से नौकरशाहों ने कुछ राज्यों की आर्थिक स्थिति के बारे में प्रधानमंत्री को आगाह किया है, उसके मद्देनजर केंद्र सरकार अव्यावहारिक योजनाओं की घोषणाओं और मुफ्त में आर्थिक लाभ देने की लगातार बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए शीर्ष अदालत के नौ साल पुराने न्यायिक सुझाव के अनुरूप उचित कानून बनाने की दिशा में कदम उठायेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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