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Tuesday, 19 November, 2024
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पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले भारतीय छात्रों के लिए केवल जगह बदलती है, मूल समस्या नहीं

इस समय जब यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्र खुद को बचाने की गुहार लगा रहे हैं, भारत में तमाम लोग इस बहस में व्यस्त हैं कि पढ़ाई के लिए विदेश जाना उनकी प्राथमिकता क्यों है. आइये जानते हैं कि उनके लिए भारत पसंदीदा ‘जगह’ क्यों नहीं है.

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यूक्रेन पर 24 फरवरी को रूसी हमला शुरू होने के बाद से ही सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो लगातार तेजी से बढ़ते जा रहे हैं जिसमें इस पूर्वी यूरोपीय देश में फंसे भारतीय छात्र नरेंद्र मोदी सरकार से उन्हें रूसी बमों और यहां-वहां दागे जा रहे रॉकेटों के हमले से बचाने की गुहार लगा रहे हैं. एक भारतीय छात्र की मौत की पुष्टि हो चुकी है और राजधानी कीव से भागने की कोशिश के दौरान कई गोलियां लगने से घायल एक दूसरे छात्र का इलाज चल रहा है. हजारों छात्र अभी भी यूक्रेन में फंसे हुए हैं, जबकि उन्हें बचाने के अभियान में शामिल मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने रोमानिया और अन्य पड़ोसी देशों में डेरा डाल रखा है.

इधर, भारत में एक बार फिर इस पर बहस तेज हो गई है कि छात्रों के सामने किस तरह की समस्याएं पेश आती है—भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर और यह भी कि छात्रों को आखिर विदेश जाने की जरूरत क्यों पड़ती है, खासकर चिकित्सा शिक्षा के लिए. बजट घोषणाओं पर एक वेबिनार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिप्पणी की थी कि कैसे ‘हमारे बच्चों को आज पढ़ने के लिए छोटे-छोटे देशों में जाना पड़ रहा है.’ साथ ही उन्होंने निजी क्षेत्र से यह आग्रह भी किया कि छात्रों का बाहर जाना रोकने के लिए वो इस क्षेत्र में आगे आए.

तो सवाल उठता है कि आखिर छात्र विदेश जाते क्यों हैं?

दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति दिनेश सिंह कहते हैं, ‘भारत में एक तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने वाली यूनिवर्सिटी की संख्या काफी कम है और जो हैं भी वहां प्रवेश मिलना काफी कठिन है.’

एक विदेशी राष्ट्र में जीवन और मौत के संकट में फंसे और घरेलू मोर्चे पर शिक्षा प्रणाली पर सवाल उठाने वाले भारतीय छात्र, जिनमें तमाम की राय है कि इसका खर्च वहन कर पाना आसान नहीं है, इस बार दिप्रिंट के न्यूजमेकर ऑफ द वीक हैं.


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छात्रों का बढ़ता आंकड़ा

कंसल्टेंसी फर्म रेडसीर ने ‘विदेशों में उच्च शिक्षा’ पर अपनी ताजा रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि 2024 तक विदेशों में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों का आंकड़ा करीब 20 लाख के पार पहुंच जाएगा. रिपोर्ट में पाया गया कि यह संख्या लगातार बढ़ रही है.

रिपोर्ट ने बताया गया है, ‘हमारे शोध से पता चलता है कि मौजूदा समय में 7,70,000 भारतीय छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं और यह संख्या 2016 में 4,40,000 की तुलना में 20 प्रतिशत बढ़ी है. दूसरी ओर, विदेशों में शिक्षा की मांग की तुलना में घरेलू स्तर पर यह वृद्धि केवल 3 प्रतिशत रही है.’

अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएसएचई) से भी यही ट्रेंड सामने आता है. 2016-17 में उच्च शिक्षा के लिए नामांकित छात्रों की संख्या 35.7 मिलियन थी, जो 2019-20 में बढ़कर केवल 38.5 मिलियन हुई.

भारतीय छात्रों का पढ़ाई के लिए विदेशों का रुख करना कोई नई बात नहीं है. कई दशकों से भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा संस्थानों के अभाव और मांग-आपूर्ति में अंतर की वजह से तमाम परिवार अपने बच्चों को विदेश भेजने के लिए बाध्य रहे हैं. हालांकि, हाल के दो घटनाक्रमों— कोविड-19 महामारी और यूक्रेन और रूस के बीच जंग— ने इससे जुड़े एक अलग ही पहलू को उजागर किया है.

दोनों घटनाक्रम के बीच जब फंसे छात्रों ने मदद के लिए गुहार लगाई (पहले चीन और अब यूक्रेन) तो पहला सवाल तो यही उठाया गया कि उन्हें उन जगहों पर जाने की जरूरत ही क्या थी. ‘वे भारत में क्यों नहीं पढ़ सकते?’


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गंतव्य स्थल बदलते रहे

1990 के दशक में, और उससे पहले भी भारत के अधिकांश छात्र अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा जैसे अंग्रेजी-भाषी देशों में जाते थे. ऑस्ट्रेलिया एक बिल्कुल नया गंतव्य स्थल है, जो पिछले 15 वर्षों में खासा लोकप्रिय हुआ है. उस समय, धनी परिवार अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेजते थे क्योंकि इसे एक स्टेटस सिंबल माना जाता था. आईवी लीग यूनिवर्सिटीज को लेकर खासा उत्साह रहता था और इन यूनिवर्सिटी से हासिल की गई डिग्री कहीं भी नौकरी मांगने जाते समय आपके सीवी को और भी ज्यादा प्रभावशाली बना देती थी. मध्यमवर्गीय परिवारों के छात्र तभी विदेश जा पाते थे जब वे स्कॉलरशिप हासिल करने में सक्षम हो पाएं.

हालांकि, अब दो कारणों से परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है— एक तो लोन आदि की सुविधाओं के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर की शिक्षा पाना ज्यादा सुलभ हो गया है, दूसरे गंतव्य स्थलों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है. यूरोप और मध्य पूर्व के तमाम गैर-अंग्रेजी भाषी देश भी संभावित छात्रों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

तो, यूक्रेन जैसा ‘छोटा देश’ क्यों चुन रहे?

एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटी के पूर्व महासचिव फुरकान कमर— जो राजस्थान यूनिवर्सिटी और हिमाचल प्रदेश की सेंट्रल यूनिवर्सिटी में कुलपति भी रह चुके हैं— कहते हैं, ‘छात्रों के रूस, यूक्रेन और चीन जाने के कारण एकदम स्पष्ट है— वे मेडिकल सीटों की मांग और आपूर्ति में अंतर के कारण वहां का रुख करते हैं. वे एक विदेशी यूनिवर्सिटी से बेहतर डिग्री प्राप्त करना चाहते हैं और फिर वहां पर कमाई करके अपनी पढ़ाई पर हुए खर्च की भरपाई भी करना चाहते हैं.’

भारत में निजी और सार्वजनिक संस्थानों में महज 80,000 के करीब मेडिकल सीटें हैं और हर साल लगभग सात लाख छात्र राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) पास करते हैं.

पढ़ाई पर होने वाला खर्च भी छात्रों के छोटे देशों की तरफ रुख करने का एक बड़ा कारण है. अमेरिका में मेडिसिन की पढ़ाई के लिए किसी छात्र को सालाना 18 लाख से 30 लाख रुपये के बीच खर्च करना पड़ता है. ब्रिटेन में, लीसेस्टर यूनिवर्सिटी जैसे एक अच्छे मेडिकल संस्थान में पढ़ाई के लिए विदेशी छात्रों को पहले दो वर्षों के लिए करीब 23,000 पाउंड (23 लाख रुपये से अधिक) का शुल्क चुकाना होता है.

दूसरी तरफ, यूक्रेन, चीन, रूस, जॉर्जिया जैसे देशों में मेडिकल डिग्री के लिए समान सुविधाओं के साथ पूरे कोर्स पर 17 लाख रुपये से 45 लाख रुपये के बीच खर्च पड़ता है, यही वजह है कि ये देश भारतीय छात्रों के लिए एक पसंदीदा जगह बने हुए हैं.


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पाठ्यक्रम एक और फैक्टर

यद्यपि, भारत में इंजीनियरिंग की शिक्षा की गुणवत्ता पिछले कुछ सालों में जबरदस्त तरीके से सुधरी है लेकिन चिकित्सा शिक्षा के मामले में स्थिति जस की तस बनी हुई है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) को छोड़कर, देश में इस समय इंजीनियरिंग कॉलेजों में 23 लाख से अधिक सीटें हैं. लेकिन मेडिकल एजुकेशन और प्रबंधन, फार्मेसी, आर्किटेक्चर जैसे अन्य विशिष्ट क्षेत्रों के मामले में स्थित ऐसी नहीं है. पिछले पांच सालों में प्रबंधन से जुड़ी सीटों की संख्या 3 से 4 लाख के बीच रही है.

दरअसल, भारत में अधिकांश यूनिवर्सिटी में बीकॉम, बीएससी और बीए जैसे सामान्य प्रोग्राम ही उपलब्ध होते हैं. एआईएसएचई के 2019-20 के आंकड़े बताते हैं, भारत में 1,043 यूनिवर्सिटी हैं. इनमें से 522 सामान्य, 177 तकनीकी, 63 कृषि और इससे संबद्ध, 66 मेडिकल, 23 विधि, 12 संस्कृत और 11 लैंग्वेज यूनिवर्सिटी हैं. अन्य 145 यूनिवर्सिटी ‘अन्य की श्रेणी’ में आती हैं जबकि शेष 24 के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.

ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी से खेल प्रबंधन में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे मानस गंगवानी बताते है, ‘मुझे हमेशा से खेल प्रबंधन में रूचि थी, लेकिन भारत में कोई भी यूनिवर्सिटी इस विषय में उपयुक्त डिग्री प्रदान नहीं करती है इसलिए मुझे विदेश में विकल्प तलाशना पड़ा.’

इसके अलावा, विदेशी यूनिवर्सिटी का पाठ्यक्रम काफी विविधता वाले होते हैं.

दिनेश सिंह ने कहा, ‘हम मैथ्स ऑनर्स और संस्कृत ऑनर्स जैसे पाठ्यक्रम चलाते हैं, जिसमें हम संबंधित विषय से जुड़ी बेसिक जानकारी ही देते हैं. इससे छात्रों की रोजगार क्षमता घट जाती है क्योंकि उनके पास कोई विशिष्ट कौशल नहीं होता है. ऐसे में जो लोग खर्च वहन कर सकते हैं, वे या तो मास्टर डिग्री के लिए आवेदन करते हैं या फिर विदेश से स्नातक की डिग्री हासिल करते हैं.’

कनाडा में एमबीए कर रहे सिद्धांत शुक्ला को भी लगता है कि किसी भारतीय यूनिवर्सिटी से उन्हें वह सब नहीं मिल सकता था जो कनाडाई यूनिवर्सिटी में मिला है. उन्होंने कहा, ‘मैं एमबीए के बाद कनाडा में बसना चाहता हूं. मैं एक बेहतर जीवन चाहता हूं और जो कड़ी मेहनत कर रहा हूं उसके बदले में बेहतर भुगतान की अपेक्षा रखता हूं. और मुझे नहीं लगता कि भारत में कभी भी ऐसा हासिल हो पाएगा.’

कोई भी भारतीय यूनिवर्सिटी में पढ़ाई का विकल्प छोड़ने वाले छात्रों और उनके माता-पिता को कोस सकता है लेकिन वास्तविकता यही है कि जब तक भारत में शिक्षा प्रणाली छात्रों की जरूरतों के अनुरूप नहीं होगी, वे विदेशों का ही रुख करते रहेंगे.

भारतीय संस्थानों के लिए जरूरी है कि वे तकनीकी, मेडिकल और अन्य व्यावसायिक कोर्सों के लिए छात्रों को अधिक विकल्प मुहैया कराएं. कौशल-आधारित शिक्षा पर जोर देने के साथ नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू करना एक नई शुरुआत तो है लेकिन अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि क्या यह भारतीय छात्रों को विदेश जाने से रोकने में सक्षम होगी.

(व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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