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Thursday, 21 November, 2024
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यूक्रेन संकट के कारण गहरा सकती है भारत-रूस के बीच की खाई

यह मानना कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के लिए रूस के साथ उच्च स्तरीय रक्षा संबंधों की आवश्यकता है, सोच के परे है. अब रूसी हथियारों पर निर्भरता कम करने का समय है.

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रूस-यूक्रेन के संकट का असर निश्चित तौर पर भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों पर पड़ने वाला है. इससे रूस और चीन के साथ एक तरफ विरोध बढ़ेगा, तो दूसरी ओर अमेरिका से भी संबंध प्रभावित होंगे. भारत के नीति निर्धारकों को तीन पक्षों पर सोचना पड़ेगा. पहला, यह मास्को और नई दिल्ली के बीच मूलभूत विभाजन है, जिसे भरने में समय लगेगा. दूसरा, यह बात भारतीय हितों के खिलाफ रहेगी कि चीन शक्तिशाली हो या अमेरिका कमजोर- यहां रूसी हितों में मूलभूत विरोध रहेगा. तीसरा, ऐसी स्थितियों में नई दिल्ली को इन सारी कमजोरियों के प्रति सजग रहना है और उन्हें कम करने का प्रयास करना है.

रूस और चीन के आपसी संबंध पिछले एक दशक में काफी प्रगाढ़ हुए हैं. इसकी झलक और प्रभाव को यूक्रेन के संकट के पहले से भी देखा जा सकता है. गहरे और मजबूत संबंधों के लिए सिर्फ सैन्य संबंध ही हों यह जरूरी नहीं है. चीन और पाकिस्तान इसके उदाहरण हैं.

हो सकता है कि हम इसका आरोप अमेरिकी नीति पर मढ़ दें, लेकिन इस तरह कि समझ न सिर्फ ग़लत होगी बल्कि अप्रासंगिक भी रहेगी. यह ग़लत इसलिए होगा, क्योंकि ऐसा लगता है कि बड़ी ताकतें आसानी से सुरक्षा मामलों में एक-दूसरे को आत्मसात कर लेती हैं. हालांकि, ऐसा देखने को कम ही मिलता है.

इसी तरह से एक मूर्खतापूर्ण धारणा है कि कि अमेरिका, रूस को पूर्वी यूरोप में अपना प्रभाव जमाने देगा. ध्यान रहे कि जो लोग रूस को इस तरह की छूट देना चाहते हैं, उन्हें लगता है कि अमेरिकी यथार्थवादी, चीन को भी इस तरह का मौका दे सकते हैं. ऐसा सोचना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि बड़ी ताकतें, दूसरी बड़ी ताकतों को जान बूझकर ऐसी छूट देने के पक्ष में नहीं होतीं.

आमतौर पर यह बात संघर्ष को रोकने से ज्यादा, प्रस्तुत सच्चाई को मान्यता देना ही है. अमेरिका का मुनरो सिद्धांत दूसरी बड़ी शक्तियों द्वारा नहीं दिया गया था, बल्कि इसलिए स्वीकार्य हुआ था क्योंकि सब उसे चुनौती नहीं दे सकते थे. ऐसा सबने लैटिन अमेरिकी देशों की गरीबी को देखते हुए और बड़ी ताकतों के हितों और वैश्विक अर्थव्यवस्था को देखते हुए किया था. यूरोप की स्थिति ऐसी नहीं है- वह अभी बहुत बड़े रूप में, सहायक आर्थिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और अमेरिका नें अपने हितों की सुरक्षा के लिए काफी लंबे अर्से से अपनी तगड़ी उपस्थिति दर्ज करा रखी है.

खस्ताहाल यूरोप और अमेरिकी दबाव

संभव है कि यह सुझाव बड़ा विवेकपूर्ण लगे कि अमेरिका अपने जिम्मेदारियों को यूरोप में कम करे, ताकि वह एशिया पर ध्यान दे सके. यूरोपीय यूनियन, रूस से दस गुना धनी है, तो वह अपनी सुरक्षा खुद ही कर सकता है. सैद्धांतिक रूप से यह सच भी है लेकिन दशकों तक यूरोप अपने को व्यवस्थित नहीं कर सका है. वर्तमान संकट की घड़ी में भी जब उनके सामने बड़े स्तर पर परंपरागत युद्ध का संकट मंडरा रहा है, तो भी उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की सहायता की राह देख रहे हैं. ऐसी हालत में इस बात कि कम ही गुंजाइश रह जाती है कि वह रूस को मजबूत करने के कदम उठाए और बेतरतीब हुए यूरोप को अपने दम पर चुनौतियों का सामना करने के लिए छोड़ दे.

रूस की असुरक्षा अमेरिका पर केंद्रित है. अमेरिका का यूरोप में नियंत्रण घटाने के बावजूद भी इसकी संभावना बहुत कम है कि मास्को अपनी शक्तियों पर अंकुश लगाना छोड़. चाहे जो हो, अमेरिका यह जुआ कभी नहीं खेलेगा. ऐसे में जब परिस्थितियां कठिन है, अगर अमेरिका असफल होता है, तो परिणाम भयानक हो जाएंगे. भारत की नीति इस बात पर आधारित होनी चाहिए कि अमेरिका क्या करने वाला है, न कि इस पर कि वे क्या करना चाहते हैं. यह मानना प्रैक्टिकल न होगा कि अमेरिका अपने पैर वापस खींच लेगा.


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बड़ी शक्तियों और आशावादी विचारों का जाल

वास्तव में जहां तक आशावादी विचार होने का सवाल है, तो यह क्यों न यह सोचा जाए कि रूस अपने पड़ोसियों के प्रति सहयोगी रूप अपनाए ताकि उन्हें अमेरिका से सुरक्षा की गुहार न लगानी पड़े. यह बात भी एक तरह से बेमानी हो जाती है क्योंकि बड़ी शक्तियां अपनी सुरक्षा को लेकर अलग ढंग से ही सोचती हैं. इस बात को लेकर एक अंतहीन बहस हो सकती है कि जिस समय शीत युद्ध समाप्त हुआ तो किस देश ने किसके साथ कैसे वादे किए थे. इससे भी लंबी बहस इस बात को लेकर हो सकती है कि प्रथम विश्व युद्ध या शीत युद्ध की शुरूआत करने की जिम्मेदारी किसकी थी.

शुरूआत होने की यह बहस भी भारतीय नीति के लिए बेमानी है. यह सिर्फ आने वाली परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि किस तरह से चीजों को देखना है. बहुत हद तक उम्मीद की जा रही है कि किसी तरह का समझौता हो जाएगा. लेकिन, ऐसा होने पर भी यह ज़रूरी नहीं है कि अमेरिका और रूस के बीच जारी संघर्ष समाप्त हो जाएगा. सच्चाई यह है कि भले ही इस संघर्ष का स्वरूप कुछ भी हो, परिणाम कुछ भी आए, लेकिन रूस एक असुरक्षित देश के रूप में ही उभरने वाला है. अगर रूस, यूक्रेन में सैन्य कार्रवाई करने में सफल रहता है, तो यह यूरोप और अमेरिका के लिए बड़ी असुरक्षा का सबब बन जाएगा. इसके परिणामस्वरूप नाटो एक मजबूत और एकजुट संगठन के रूप में उभरकर सामने आएगा.

पारंपरिक रूप से देखें तो स्वीडन और फिनलैंड न्यूट्रल रहते हैं. बदले हालाता में वे भी नाटो की सदस्यता ले सकते हैं. जिससे संगठन रूस की सीमाओं तक पहुंच जाएगा. अगर रूस की सैन्य कार्रवाई असफल होती है या उसे आंशिक सफलता ही मिल पाती है या वह कर्रवाई रोक देता है, तो पहले से संकट में घिरा रूस और ज्यादा असुरक्षित होकर उभरेगा. दूसरे शब्दों में कहें तो रूस और चीन के संबंध इतने प्रगाढ़ हो जाएंगे कि वह काफी दिनों तक अटूट बने रह सकते हैं.

भारत के लिए कौन सा विचार जरूरी

चीन और रूस के आपसी सहयोग का मूल उद्देश्य अमेरिका की शक्ति को कम करना है. हो सकता है कि रूस और चीन के लिए बहुत ही समझदारी वाली बात हो, लेकिन कमजोर अमेरिका, भारत के लिए हितकर नहीं होगा.चीन को संतुलित रखने के लिए अमेरिका का ताकतवर होना जरूरी है. इस मजबूती के बिना यह संभावना बिल्कुल ही क्षीण हो जाएगी कि चीन के एशिया में प्रभुत्व को चुनौती दी जा सके.

जो भी क्षेत्रीय शक्तियां इस खेल में मौजूद हैं उनकी तुलना चीन की ताकत और आर्थिक स्थिति से नहीं की जा सकती. चीन और अमेरिका के समीकरण भारत के लिए कोई मायने नहीं रखते. हालांकि, जो चीजें अमेरिका को कमजोर बनाती हैं चीन और दूसरे देशों को मजबूती देंगी. इसीलिए, रूस का हित सीधी तौर पर भारत के खिलाफ जाता है. रूस अमेरिका की शक्ति को कम करना चाहता है उससे चीन मजबूत होगा जो भारत के हित में नहीं है. रूस ने यह बात किसी से नहीं छिपाई है, यहां तक कि उसने चौतरफा सुरक्षा वार्ता (क्यूयूएडी) का विरोध करते हुए भारत के हितों पर सीधा प्रहार करने की कोशिश की थी. भारत और रूस के हितों के संघर्ष की अनदेखी करना समझारी वाला फैसला न होगा.

हालांकि, इस बात को तय करना थोड़ा मुश्किल है कि चीन-रूस की दोस्ती भारत के लिए किस प्रकार खतरनाक है. हालांकि, बेहतर यही होगा कि भारत परिस्थितियों को देखते हुए फैसला ले. सबसे जरूरी बात है कि भारत को रूसी हथियार पर ज्यादा निर्भरता को कम किया जाए. आंकड़े बताते हैं कि यह निर्भरता अभी भी बहुत ज्यादा है. इसे आनन-फानन में नहीं किया जा सकता, लेकिन यह गंभीर बात है. भारत ने भी रूस के हितों में विरोध को पहचान लिया है. भले ही, वह सीमित और अधकचरे ढंग से हो. जैसा कि हाल ही में भारत ने रूस के इस आलोचना को खारिज कर दिया था कि भारत चीन के खिलाफ बने मोर्चे में जा रहा है और क्वाड से धीरे-धीरे संबंध बना रहा है.


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भारत अस्थिरता रोके और बेहतर को चुने

यूक्रेन संकट को लेकर साल 2014 से भारतीय रूख में कुछ बदलाव देखने को मिले रहे हैं. कम से कम अब भारत, रूस के व्यवहार को लेकर किसी प्रकार के कोई बहाने नहीं बना रहा है, जो बात यूपीए और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के शरुआती दौर में देखने को मिली थी. दूसरी ओर, अपनी ओर से राजनयिक स्थितियों में कोई बहुत बड़े औपचारिक बदलाव देखने को नहीं मिले हैं. यहां तक कि क्वाड में भी भारत का रूख बड़ा उत्साहहीन रहा है. उसने 2020 तक गल्वान संघर्ष के हो जाने तक क्वाड का नाम तक सार्वजनिक रूप से नहीं लिया था. क्वाड बैठक के दौरान भारतीय मीडिया से बात करते हुए एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा था कि यह समूह किसी सैन्य या सुरक्षा के आयाम पर नहीं बनाया गया है, यह एक गैर-जिम्मेदाराना बयान था, क्योंकि इसके नाम में ही सुरक्षा शब्द आता है.

इस तरह की अस्थिरता एक समस्या है. यह तर्क देना कि भारत की कूटनीतिक स्वायत्ता को बरकरार रखने के लिए रूस के साथ उच्चस्तरीय राजनीतिक और सुरक्षा संबंध बनाने जरूरी हैं, कुछ बेमानी सा लगता है. रणनीतिक स्वायत्ता विदेश नीति का एक उद्देश्य है, न कि सिद्धांत. एक उद्देश्य के रूप में यह सवाल पूछा जा सकता है कि कौन-सी नीति भारतीय रणनीतिक स्वायत्ता को बढ़ाने में कारगर होगी. विषम अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में तुलनात्मक रूप से कमजोर देश के लिए कम बुरे विकल्प को चुनना कड़वा घूंट पीने जैसा है.

चीन द्वारा एशिया पर प्रभुत्व जमाने की स्थिति में मास्को अमेरिका को कमजोर समझने की कोशिश करेगा, जो किसी भी तरह भारत की रणनीतिक स्वायत्ता के लिए उपयुक्त नहीं रहने वाला है. रूस- भारत के रिश्तों में आई दरार का अनदेखी करना भी उचित बात नहीं होगी और इसके परिणाम और असहज हो सकते हैं.

(लेखक जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. वह @RRajagopalanJNU से ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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