दुनियाभर में कोविड के ओमीक्रॉन वैरिएंट के तेजी से आते मामलों ने एक बार फिर उस खतरनाक अनुभव की यादों को ताजा कर दिया है जिसे मानव समाज झेल चुका है. भारत में भी इन दिनों ओमीक्रॉन वैरिएंट के मामलों में बेतहाशा तेजी देखने को मिल रही है. कई राज्यों में हजारों की संख्या में कोविड के मामले आ रहे हैं, जिसने कोरोना की पहली और दूसरी लहर की विभीषिका के जख्मों को हरा कर दिया है.
भारत में कोरोना की पहली लहर में देखा गया कि हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूरों को पैदल ही अपने गांव-घर जाने को मजबूर होना पड़ा. इस कारण हजारों किलोमीटर के सफर में सैकड़ों लोगों की जानें भी गईं. वहीं दूसरी लहर में ऑक्सीजन और चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था का सामना करना पड़ा. दूसरी लहर ने न केवल शहरों को बल्कि गांव तक को बुरी तरह प्रभावित किया.
कोविड काल के अनुभवों में शहरों की तकलीफ, व्यवस्थागत खामियां तो साफ तौर से उभर कर आईं लेकिन गांव और छोटे शहरों में स्थिति किस तरह की थी, ये ठीक तरह से दर्ज नहीं की गई. हालांकि कई रिपोर्टों में गांवों की स्थिति को बताया गया लेकिन वो नाकाफी थी.
कोरोना काल में गांव और छोटे शहरों में लोगों का जनजीवन किस तरह से चल रहा था, वो इस नए वायरस को लेकर कैसी प्रतिक्रिया दे रहे थे और अंधविश्वास के बुलबुले किस तरह लोगों को प्रभावित कर रहे थे, इसे अपनी हालिया किताब ‘पुद्दन कथा: कोरोनाकाल में गांव-गिरांव ‘ में लेखक देवेश ने बताने का प्रयास किया है.
किताब की प्रस्तावना में लेखक ने कहा है, ‘कोविड महामारी के दौरान हमारे आसपास फैली विसंगतियों के बीच इस कहानी को सिरा मिला. कहानी बुनने की प्रक्रिया के साथ-साथ कोरोना के दुष्प्रभावों को देखने-सुनने का अवसर न चाहते हुए भी मिलता रहा. यह कहानी उन्हीं अनुभवों को शब्द देने का प्रयास है.’
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‘हम खुदै न मानत रहली कि करोना कुछ होला’
भारत में 2020 में जब कोरोना के मामले आने शुरू हुए थे तो उसी के साथ कई तरह के देसी नुस्खे, घरेलू उपाय और बीमारी को जादू-टोना, झाड़-फूंक से ठीक करने की बेतुकी बातें भी तेजी से फैलने लगी थी. ये न केवल गांव और छोटे शहरों में हुई बल्कि शहरों तक में यह स्थिति देखने को मिली. यहां तक कि सरकार भी ताली-थाली पीटने को लेकर प्रोत्साहन देती दिखी.
लेकिन अंधविश्वास का सबसे ज्यादा असर छोटे शहरों और ग्रामीण भारत पर दिखा, जहां लोगों ने ये तक स्वीकारना नहीं चाहा कि कोरोनावायरस कोई बीमारी भी है, जो जानलेवा है और काफी तेजी से फैल रहा है. बल्कि लोगों ने भारी भीड़ जमाकर कोरोना माई की पूजा कर अपने गांवों को इसके प्रभाव से बचाने की अवैज्ञानिक कोशिशें भी की.
लेखक देवेश ने अपनी किताब पुद्दन कथा में ग्रामीण अंचल में कोरोना को लेकर लोगों की प्रतिक्रियाओं को व्यंगात्मक और दिलचस्प तरीके से व्यक्त किया है.
किताब में लेखक एक पात्र के द्वारा ग्रामीण अंचल की सच्चाई को इस तरह बताते हैं, ‘हम खुदै न मानत रहली कि करोना कुछ होला. हमके लगल सरदी-जोखाम बा, लेकिन अब समझ में आवत बा कि केतनी बुरी बेमारी बा.’
लेखक ने सीमित पात्रों के जरिए ग्रामीण भारत में कोरोनाकाल की जो तस्वीर खींची है, वो कई मायनों में उस भारत की भी असलियत बयान करती है जो एक तरफ विज्ञान को बढ़ावा देता दिखता है वहीं दूसरी तरफ दशकों पहले की रूढ़िवादी चीज़ों का बोझ उठाए हुए भी दिखता है. लेकिन सांकेतिक और कई जगह लेखन की स्पष्टता, अंधविश्वास और गलत सूचनाओं के आधार पर बनी राय को चुनौती भी देती दिखती है.
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‘खाली पेट, खाली जेब लिए जा रहे हैं….’
पत्रकार-लेखक विनोद कापड़ी ने कोरोना की पहली लहर के बाद एक किताब लिखी- 1232 किमी – जिसमें उन्होंने गाजियाबाद से लेकर बिहार के सहरसा तक पैदल अपने घर जाने को मजबूर प्रवासी मजदूरों का दर्द बयां किया, जिन्हें सरकारी व्यवस्था की खामियों के कारण मुश्किल भरे दिन देखने पड़े. उन दिनों कई मजदूर ट्रेन की चपेट में आकर मर गए तो कईयों को खाने-पीने तक के लिए जूझना पड़ा. लेखक-कवि गुलजार ने तो कविता के जरिए प्रवासी मजदूरों के दर्द को बयां भी किया था.
पुद्दन कथा के लेखक देवेश ने भी कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों के अपने घर वापसी की मजबूरी को बयां किया है. किताब में वो लिखते हैं, ‘हर बार गांव जाते समय हम पैसे लेकर जाते थे और इस बार खाली पेट, खाली जेब लिए जा रहे हैं, ऐसे जाने पर गांव हमें पहचानेगा?’
कोरोना की पहली लहर में हम देख चुके हैं कि हजारों किलोमीटर के सफर के बाद घर पहुंचे लोगों को अपने गांवों के बाहर कई दिनों तक रहना पड़ा, गांव वाले लोगों ने उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया.
लेखक ने काल्पनिक पात्रों का सहारा लेकर भले ही हमारे समय की सच्चाई लिखने की कोशिश की है, लेकिन पात्रों के काल्पनिक होते हुए भी वो हमारे-आपके सच से काफी नजदीकी वास्ता रखते हैं.
भारत की बड़ी आबादी कोरोना के पहली और दूसरी लहर से प्रभावित हुई है और अब उसके सामने ओमीक्रॉन वैरिएंट की वजह से तीसरी लहर का खतरा बना हुआ है. ऐसे में गलत सूचनाएं, अंधविश्वास समाज को कितना नुकसान पहुंचा सकती है, इसे मनोरंजक ढंग से किताब में बताया गया है.
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भाषा में लयात्मकता
इस किताब को इसलिए भी पढ़ना जरूरी है क्योंकि ये हमारे समय की वास्तविकताओं के काफी नजदीक है और पाठक इसे खुद से काफी जुड़ा हुआ पाएंगे. खासकर वो लोग जो कोरोनावायरस के संक्रमण से पीड़ित रह चुके हैं या उस कोरोनाकाल में व्यवस्था के हाथों त्रस्त हुए हैं.
व्यवस्था और समाज पर दिलचस्प ढंग से टिप्पणी करती किताब पुद्दन कथा, काफी गंभीर समय में एक अनसुलझे वायरस से प्रभावित जटिलताओं भरे समाज के लिए एक आईना साबित हो सकती है, जिसे देखकर वो गलतियां दोहराने से बचा जा सकता है, जिसे सरकार, व्यवस्था, समाज पहले कर चुका है.
पुद्दन कथा की भाषा भी शुद्ध हिंदी न होकर, उसी ग्रामीण परिवेश की है, जहां की लेखक कहानी लिख रहा है. भोजपुरी में कोरोना को लेकर हो रहा संवाद, एक लयात्मकता और निरंतरता लिए हुए है, जो पाठक को एक सूथिंग फीलिंग (अच्छा अनुभव) देता है.
किताब को पढ़ते हुए पाठक ऐसे कई शब्दों से गुजरेंगे, जो हिंदी में नहीं मिल सकते. एक किताब नए-नए शब्दों और भाषाई स्तर पर थोड़ा मजबूत और बेहतर भी करती चलती है. पुद्दन कथा, इस स्तर पर भी अपने पाठकों के साथ इंसाफ करती है. वहीं किताब का आवरण कोविड काल में हमारे मन-मस्तिष्क में बनी छवि से काफी मेल खाती है और चित्रकार विक्रम नायक के चित्र किताब को रूचिकर बनाती है.
(‘पुद्दन कथा: कोरोनाकाल में गांव-गिरांव’ को राधाकृष्ण प्रकाशन के उपक्रम फंडा ने छापा है, जिसे लेखक देवेश ने लिखा है)
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