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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतलड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाना तो बहाना है, असल मकसद यूनिफॉर्म सिविल कोड की दिशा में बढ़ना है

लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाना तो बहाना है, असल मकसद यूनिफॉर्म सिविल कोड की दिशा में बढ़ना है

संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन लोकसभा में बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक पेश किये जाना सरकार का लैंगिक समानता प्रदान करने की तुलना में राजनीतिक हित साधने वाला ज्यादा लगता है.

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लड़का और लड़की की विवाह की आयु 21 साल करने के मुद्दे पर लगता है बहुत रस्साकशी होगी.

लड़कियों की विवाह की उम्र 18 साल से बढ़ाकर लड़कों के समान 21 साल निर्धारित करने के सरकार के प्रयासों को लेकर राजनीतिक रस्साकशी शुरू हो गयी है. सरकार लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल करना चाहती है जबकि विधि आयोग लड़के-लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु 18 साल करने का पक्षधर है. देश की शीर्ष अदालत लड़कों की विवाह की उम्र 21 साल से घटाकर 18 साल करने के लिए दायर एक याचिका पहले ही खारिज कर चुकी है.

संसद के शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन लोकसभा में बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक पेश किये जाना सरकार का लैंगिक समानता प्रदान करने की तुलना में राजनीतिक हित साधने वाला ज्यादा लगता है.

इस विधेयक को अंतिम दिन पेश करने की कवायद से दो बातें साफ नजर आ रही हैं: पहला तो सदन में अंतिम दिन विधेयक पेश का मकसद इस संवेदनशील विषय का आगामी विधानसभा चुनावों में राजनीतिक लाभ प्राप्त करना और अगर यह रणनीति सफल रही तो लड़कियों की विवाह की आयु बढ़ाकर 21 साल करने के प्रयासों की आड़ में समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाना है.

विधेयक संसद की स्थायी समिति के पास

यह कितना दिलचस्प है कि विधेयकों को संसद की स्थायी समिति को भेजने की विपक्ष की मांग से अक्सर असहमत रहने वाली केन्द्र सरकार ने बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक को पेश करने के तुरंत बाद संसद की स्थायी समिति को सौंप दिया.

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बाल विवाह निषेध कानून, 1929 के तहत 21 साल का होने तक कोई भी लड़का बालक माना गया है जबकि 18 साल की आयु पूरी होने तक लड़की को बच्ची माना गया है. लेकिन इस प्रस्तावित संशोधन के माध्यम से बाल विवाह निषेध कानून के तहत किसी भी बच्चे को, चाहे वो लड़का हो या लड़की, 21 वर्ष की आयु होने तक बच्चा माना जाएगा.

फिलहाल यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि संसद की स्थाई समिति इस संवेदनशील संशोधन विधेयक पर मंत्रणा करके अपनी रिपोर्ट तैयार करने में कितना वक्त लगायेगी. इस विधेयक के महत्व को देखते हुए ऐसा लगता है कि संसद के बजट सत्र तक समिति की रिपोर्ट शायद तैयार नहीं हो सके. बहुत संभव है कि उस समय तक उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और उत्तराखंड सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव संपन्न हो चुके होंगे.

लेकिन, फिलहाल तो लड़के और लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित करने की सरकार की कवायद के साथ ही इस मुद्दे पर राजनीतिक बहस तेज हो गयी है. कई राजनीतिक दलों ने जहां लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु 18 से बढ़ाकर 21 साल निर्धारित करने के औचित्य पर सवाल उठाया है.

लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाने के सवाल पर ग्रामीण अंचल की महिलाओं और गांव के चौधरियों में मतभेद है. महिलाएं लड़की की शादी की उम्र बढ़ाकर 21 साल करने के पक्ष में है जबकि चौधरी इसके खिलाफ हैं.

कई बार ऐसा भी हुआ है कि संवेदनशील विषय पर लोक सभा में पेश किया गया विधेयक अपरिहार्य कारणों से सदन में चर्चा के लिए आ ही नहीं सका और इस दौरान लोक सभा का कार्यकाल पूरा हो गया. लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो जाने की स्थिति में यह विधेयक भी स्वत: ही खत्म हो जाता है.

मुस्लिम महिला (शादी होने पर अधिकारों का संरक्षण) विधेयक के साथ भी शुरू में ऐसा ही हुआ था. इस विधेयक को 2017 में लोकसभा ने पारित कर दिया था लेकिन दूसरे सदन में कांग्रेस के विरोध और ऊपरी सदन में बहुमत नहीं होने के कारण सरकार ने इसे राज्यसभा में पेश ही नहीं किया था. इस वजह से यह निष्प्रभावी हो गया था. ऐसे कई दूसरे उदाहरण भी हैं.

इसके विपरीत, चूंकि राज्यसभा कभी भंग नहीं होती है, इसलिए कई बार राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण विधेयक राज्यसभा में पेश कर उन्हें वहां से पारित कराया जाता है लेकिन ऐसे विधेयक कई बार लोकसभा तक नहीं पहुंच पाते.

इस संबंध में संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है. महिला आरक्षण विधेयक नाम से चर्चित 108वां संविधान संशोधन विधेयक मई, 2010 में राज्यसभा ने 2010 में पारित किया था लेकिन राजनीतिक दलों के विरोध और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव की वजह से इसे आज तक लोकसभा में पेश नहीं किया जा सका.


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विधेयक की गंभीरता को लेकर सवाल

सरकार अगर वास्तव में लैंगिक समानता लाने के लिए लड़कियों के विवाह की उम्र बढ़ाने के प्रति गंभीर थी तो वह शीतकालीन सत्र के अंतिम दिन विधेयक पेश करके उसे स्थाई समिति को सौंपने की बजाय पहले भी ला सकती थी.

इस विधेयक के माध्यम से सरकार विभिन्न समुदायों में प्रचलित विवाह कानून जैसे, भारतीय ईसाई विवाह कानून, 1872, पारसी विवाह और तलाक कानून, 1936, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन कानून, 1937, विशेष विवाह कानून, 1954, हिन्दू विवाह कानून, 1955 और विदेशी विवाह कानून, 1969 में लड़के और लड़कियों की विवाह की न्यूनतम आयु एक समान निर्धारित करना चाहती है.

यही नहीं, इस संशोधन विधेयक के माध्यम से हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षता कानून, 1956 की धारा छह और नौ तथा हिन्दू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण कानून, 1956 की धारा सात और आठ में भी संशोधन किया जायेगा.

सरकार का दावा है कि महिलाओं की शारीरिक, मानसिक और प्रजनन क्षमताओं में विकास के बगैर हम प्रगति नहीं कर सकते हैं. यह सही भी है और इस संबंध में न्यायपालिका की व्यवस्थाएं भी हैं. इन व्यवस्थाओं के आलोक में सरकार चाहती तो लड़कियों की शिक्षा, उनके चहुंमुखी विकास और लैंगिक समता के लिए विवाह की एक समान न्यूनतम आयु निर्धारित करने की दिशा में काफी पहले ही कदम उठा सकती थी.

भारतीय ईसाई विवाह कानून के तहत लड़के की विवाह की आयु 21 साल से कम नहीं होगी जबकि लड़कियों के मामले में न्यूनतम उम्र 18 वर्ष है. पारसी विवाह और तलाक कानून के तहत विवाह के मामले में लड़की की आयु 18 साल पूरी होना अनिवार्य है.

न्यायालय ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों को सही ठहराया है

मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों के तहत अगर कोई लड़की 15 साल की आयु में रजस्वला हो जाती है तो वह अपनी मर्जी से अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति से विवाह कर सकती है. न्यायपालिका ने अपने फैसलों में इस तरह के विवाह को सही ठहराया है.

उच्चतम न्यायालय ने लड़की और लड़के की शादी की उम्र एक समान करने के लिए भाजपा के नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका पर फरवरी 2021 में केंद्र और अन्य को नोटिस जारी किए थे. न्यायालय ने इस मामले को पहले से ही लंबित एक अन्य याचिका के साथ संलग्न कर दिया था. याचिका में दलील दी गयी थी कि विवाह की आयु में अंतर जहां लैंगिक समानता और लैंगिक न्याय के सिद्धांतों का हनन करता है वहीं यह महिलाओं की गरिमा के भी खिलाफ है.

लेकिन, इससे पहले, अक्टूबर 2018 में उच्चतम न्यायालय ने लड़कों की विवाह की न्यूनतम आयु 21 साल से घटाकर 18 करने के लिए अधिवक्ता अशोक पांडे की दायर जनहित याचिका खारिज कर दी थी और उस पर 25,000 रुपए का जुर्माना भी लगाया था.

खाफ पंचायतें लड़कियों की शादी की उम्र चाहती हैं 18 साल

लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने के मुद्दे पर हरियाणा की खाप पंचायत ने भी अपना रुख सार्वजनिक किया है. हाल ही में जींद जिले में खाप पंचायतों की बैठक हुई. इस बैठक में एक सौ से ज्यादा खापों ने हिस्सा लिया. इसमें फैसला हुआ कि शादी की उम्र बढ़ाने पर खापों को आपत्ति नहीं है लेकिन 18 साल की उम्र में भी परिजनों को लड़की की शादी का अधिकार मिलना चाहिए.

यही नहीं, खाप चाहती हैं कि एक गांव और एक गोत्र में शादी पर कानूनी रोक लगाई जाए. खाप पंचायतों की यह मांग बहुत पुरानी है. अंतरजातीय और सगोत्र वयस्कों में विवाह के मामले कई बार हिंसक रूप ले चुके हैं. इसी वजह से शीर्ष अदालत ने तो खाप की इस तरह की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए उचित कानून बनाने का भी सुझाव दिया था.

यहां एक सवाल यह भी है कि आखिर लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु 21 साल क्यों होनी चाहिए. कई मुस्लिम संगठनों और दलों को इस पर आपत्ति है.

विधि आयोग ने भी अगस्त, 2018 में अपने परामर्श पत्र में लड़की और लड़के के विवाह की समान आयु के बारे में अपनी राय दी थी. आयोग का कहना था कि अगर वयस्कता के लिए समान आयु को मान्यता है और यह सभी नागरिकों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार प्रदान करता है तो निश्चित ही वे अपना जीवन साथी चुनने में भी सक्षम होंगे.

विधि आयोग ने लड़के और लड़की की विवाह की न्यूनतम आयु में व्याप्त अंतर समाप्त करने का सुझाव देते हुए कहा था कि वयस्क होने की उम्र लड़के और लड़की के विवाह के लिए भी एक समान अर्थात 18 साल मानी जानी चाहिए.

उम्मीद है कि लड़का-लड़की के विवाह की न्यूनतम उम्र का मुद्दा राजनीतिक खींचतान की भेंट नहीं चढ़ेगा और राजनीतिक दल लैंगिक समानता और महिलाओं की गरिमा की रक्षा के लिए एक विषय पर सर्वसम्मति से नया कानून बनाने में सहयोग करेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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