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Saturday, 16 November, 2024
होमदेश2016 के बाद से कम धार्मिक हुए भारतीय मुसलमान- CSDS स्टडी में ख़ुलासा, 44% ने की भेदभाव की शिकायत

2016 के बाद से कम धार्मिक हुए भारतीय मुसलमान- CSDS स्टडी में ख़ुलासा, 44% ने की भेदभाव की शिकायत

‘इंडियन यूथ: एस्पिरेशंस एंड विज़न्स फॉर दि फ्यूचर’ नाम की ये रिपोर्ट एक सर्वे पर आधारित है, जो इस साल जुलाई-अगस्त में 18 राज्यों के 18-34 वर्ष के बीच के, 6,277 लोगों पर किया गया था.

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नई दिल्ली: युवा मुसलमान अपने हिंदू, सिख, और ईसाई साथियों से ‘कुछ अलग’ नज़र आते हैं, चूंकि वो अकेला समुदाय हैं जिसमें पिछले पांच वर्षों में, धार्मिक गतिविधियों में काफी कमी दर्ज हुई है, ये ख़ुलासा इसी महीने जारी एक सर्वे रिपोर्ट में हुआ है.

‘इंडियन यूथ: एस्पिरेशंस एंड विज़न्स फॉर दि फ्यूचर’ नाम की ये रिपोर्ट एक सर्वे पर आधारित है, जो इस साल जुलाई-अगस्त में 18 राज्यों के 18-34 वर्ष के बीच के, 6,277 लोगों पर किया गया था. ये स्टडी सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) ने, अपने शोध कार्यक्रम लोकनीति के अंतर्गत, जर्मन थिंक टैंक कोनराड एडेनॉयर स्टिफटंग (केएएस) के सहयोग से की.

सर्वे में पता चला कि नमाज़ पढ़ने वाले, रोज़ा रखने वाले, मस्जिदों में जाने वाले और धार्मिक सामग्री पढ़ने या देखने वाले मुसलमानों का अनुपात, 2016 के मुक़ाबले कम हुआ था, जब पिछला सीएसडीएस-लोकनीति सर्वेक्षण किया गया था.

मुसलमान एक और मामले में दूसरे समुदायों से अलग खड़े नज़र आए: धर्म की वजह से दोस्तों के हाथों उनके साथ भेदभाव का अनुभव. हालांकि दो अन्य अस्लसंख्यकों, ईसाइयों और सिखों ने भी मुसलमानों की तरह ही, भारत में साम्प्रदायिक सदभाव को लेकर ‘ज़बर्दस्त निराशा की भावना’ का इज़हार किया, लेकिन उनमें धार्मिक भेदभाव का अनुभव करने वालों का अनुपात कहीं कम था.


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5 वर्ष में मुसलमान धार्मिक गतिविधियों में सबसे ऊपर से सबसे नीचे आए

2016 के सीएसडीएस सर्वे में, जो 5,681 के सैम्पल साइज़ पर किया गया था, पता चला कि मुसलमान युवकों में किसी भी दूसरे ग्रुप के मुक़ाबले धार्मिकता ज़्यादा थी. उस साल में, 97 प्रतिशत मुसलमान उत्तरदाताओं ने कहा था कि वो नियमित रूप से इबादत करते हैं, जिसके बाद हिंदू (92 प्रतिशत), सिख (92 प्रतिशत), और ईसाई (91 प्रतिशत) आते हैं.

लेकिन, 2021 में, केवल 86 प्रतिशत मुस्लिम युवाओं ने कहा, कि वो नियमित रूप से नमाज़ पढ़ते हैं- जो पांच साल पहले से 11 प्रतिशत की गिरावट थी. इसके मुक़ाबले, नियमित रूप से इबादत करने वाले युवाओं की संख्या, सिखों (96 प्रतिशत) और ईसाइयों (93 प्रतिशत) में बढ़ी है, और हिंदुओं (88 प्रतिशत) में थोड़ी सी कम हुई है.

रमनदीप कौर का चित्रण /दिप्रिंट.

इसी तरह, इबादत गाहों पर जाने वाले मुस्लिम युवाओं के अनुपात में भी तेज़ी से गिरावट आई है.

2016 में, 85 प्रतिशत मुस्लिम उत्तरदाताओं ने बताया कि वो अपनी इबादत गाहों पर जाते थे (अलग अलग बारंबारता के साथ), लेकिन 2021 में केवल 79 प्रतिशत ने कहा कि उन्होंने ऐसा किया है. हालांकि ये गिरावट अन्य धर्मों में भी देखी गई, लेकिन मुसलमानों में ये सबसे अधिक-6 प्रतिशत थी, जिसके बाद हिंदुओं में 4 प्रतिशत (92 से 88 प्रतिशत), ईसाइयों में 2 प्रतिशत (91 से 89 प्रतिशत), और सिखों में 1 प्रतिशत (97 से 96 प्रतिशत) थी.

रमनदीप कौर का चित्रण | दिप्रिंट.

धार्मिक भागीदारी पर स्वयं की धारणा

कुल मिलाकर, 19 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उनकी धार्मिक भागीदारी में इज़ाफा हुआ है, जबकि 17 प्रतिशत ने कहा कि इसमें कमी आई है. 57 प्रतिशत ने कहा कि ये उतनी ही है, और 7 प्रतिशत ने कोई जवाब नहीं दिया.

यहां भी, दूसरे धर्मों की अपेक्षा मुसलमानों के एक ज़्यादा बड़े हिस्से ने कहा कि अपनी धार्मिक भागीदारी को लेकर उनकी अवधारणा में कमी आई है.

रमनदीप कौर का चित्रण | दिप्रिंट.

जहां 18 प्रतिशत मुस्लिम युवाओं ने कहा कि उनकी धार्मिक भागीदारी में इज़ाफा हुआ है, वहीं 20 प्रतिशत को लगा कि उनकी धार्मिक भागीदारी कम हुई है.

ईसाई और सिखों के लिए, ज़्यादती और कमी दोनों का अहसास करने वाले उत्तरदाताओं की हिस्सेदारी बराबर थी- क्रमश: 25 प्रतिशत और 13 प्रतिशत.

हिंदुओं ने बताया कि धार्मिक भागीदारी की उनकी अवधारणा बढ़ी है. क़रीब 20 प्रतिशत हिंदू उत्तरदाताओं ने बताया कि उनकी धार्मिक भागीदारी में इज़ाफा हुआ है, जबकि 16 प्रतिशत ने इसमें कमी देखी.


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भारत में धार्मिक सदभाव को लेकर निराशा

सीएसडीएस रिपोर्ट में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डाटा का संज्ञान लेते हुए कहा गया, कि 2020 में साम्प्रदायिक/धार्मिक दंगों के 857 मामले दर्ज किए गए, जो 2019 के 438 का लगभग दोगुना थे.

रिपोर्ट में अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाकर हाल ही में हुए, घृणा अपराधों और लिंचिंग की घटनाओं का उल्लेख किया गया, और भारत के तीन मुस्लिम-बहुल पड़ोसियों के धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नए नागरिकता क़ानून का भी ज़िक्र था. इस संदर्भ में सर्वे में उत्तरदाताओं से पूछा गया कि क्या उन्हें लगता है कि अगले पांच वर्षों में, धार्मिक सदभाव में सुधार होगा या वो और बिगड़ेगा.

19 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि उन्हें लगता है, कि साम्प्रदायिक सामंजस्य की स्थिति और बिगड़ेगी, जबकि अल्पसंख्यक कहीं अधिक निराशावादी थे- 31 प्रतिशत ईसाई और 33 प्रतिशत मुसलमानों तथा सिखों का कहना था कि उन्हें लगता है कि धार्मिक सौहार्द में कमी आएगी.

रिपोर्ट के लेखक इस आधार पर ज़मीनी स्तर पर मुसलमान युवाओं के विचारों की गहराई में ज़्यादा गए कि इस समुदाय ने ‘हाल के वर्षों में भेदभाव और हिंसा की मार झेली है’.

रिपोर्ट के मुताबिक़, धार्मिक सह-अस्तित्व को लेकर ‘निराशा’ की भावना उन मुसलमानों में ज़्यादा थी, जो ऐसे सूबों में रहते हैं जहां मुस्लिम आबादी, 14.23 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा है. कुल मिलाकर, इन सूबों– असम, पश्चिम बंगाल, यूपी, बिहार, झारखंड, और केरल- के धार्मिक सदभाव को लेकर निराशावादी होने की संभावना ज़्यादा है.

इन सूबों में कुल मिलाकर 35 प्रतिशत मुसलमानों ने कहा कि उन्हें इसके और बिगड़ने की अपेक्षा है, जबकि औसत से कम मुस्लिम आबादी वाले सूबों में ये प्रतिशत 23 था.

सर्वे में ये भी पाया गया कि जिन राज्यों में मुसलमानों की आबादी औसत से अधिक है, वहां उनके धार्मिक भेदभाव के बारे में बताने की संभावना भी ज़्यादा है, यक़ीनन इसलिए कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच, ‘मेल-मिलाप और बातचीत के अवसर अधिक होते हैं’.

धार्मिक भेदभाव की अवधारणा

2011 जनगणना के अनुसार, हिंदू कुल आबादी का क़रीब 80 प्रतिशत हैं, जिसके बाद तीन सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय आते हैं- मुसलमान (14.23 प्रतिशत), ईसाई (2.3 प्रतिशत), और सिख (1.72 प्रतिशत).

सर्वे में सैम्पल किए गए अल्पसंख्यकों के अनुसार, मुसलमानों ने अपने दोस्तों के हाथों भेदभाव का सबसे ज़्यादा अनुभव किया था.

क़रीब 44 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उन्होंने अपने दोस्तों से भेदभाव का सामना किया, जिनमें 13 प्रतिशत ने कहा कि ये अक्सर होता था, जबकि 31 प्रतिशत ने कहा कि ये कभी कभी हुआ था. केवल 18 प्रतिशत ईसाइयों (4 प्रतिशत अकसर,14 प्रतिशत कभी कभी), और 8 प्रतिशत सिखों (3 प्रतिशत अकसर, 5 प्रतिशत कभी कभी) ने ऐसे भेदभाव की बात कही.

रमनदीप कौर का चित्रण | दिप्रिंट

जहां औसतन 70 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उन्होंने अपने धर्म को लेकर कभी भेदभाव का सामना नहीं किया, वहीं मुसलमानों में ये प्रतिशत सिर्फ 49 था.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘यहां पर दिलचस्प ये है कि धार्मिक सदभाव के मुद्दे के विपरीत, जहां विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों के युवाओं की लगभग एक राय थी, वहीं भेदभाव का सामना करने के मुद्दे पर, ये अहसास काफी हद तक सिर्फ मुसलमानों के बीच था’.

क्या मुसलमान वाक़ई कम धार्मिक हो रहे हैं?

निष्कर्षों पर अपनी चर्चा में सर्वे रिपोर्ट में कहा गया कि ऐसा लगता है कि ‘सहज ज्ञान के विपरीत’ मुसलमान युवा पहले से कम धार्मिक नज़र आते हैं.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘किसी के भी दिमाग़ में आएगा कि नफरत, भेदभाव, और हिंसा का शिकार होने के बाद मुसलमानों ने और अधिक संख्या में अपनी आस्था का रुख़ किया होगा’. रिपोर्ट में आगे कहा गया कि ऐसा मुमकिन है कि कुछ मुस्लिम उत्तरदाताओं को, अपने धार्मिक कार्य-कलापों के बारे में बात करना ‘सहज न लगा हो’.

दिप्रिंट ने स्टडी के निष्कर्षों पर उनकी राय जानने के लिए, कई इस्लामी विद्वानों से बात की और पाया कि वो आमतौर पर संशय में थे.

लखनऊ स्थित इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया के अध्यक्ष, मौलाना ख़ालिद फिरंगी महली के मुताबिक़ सर्वे का डाटा ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं दिखाता.

महली ने कहा, ‘इस तरह के सर्वे बहुत कम लोगों पर किए जाते हैं, और ज़्यादातर शहरी इलाक़ों में होते हैं. वो पूरी आबादी की नुमाइंदगी नहीं करते. मुझे नहीं लगता कि मुस्लिम नौजवानों की धार्मिक भागीदारी में कोई कमी आई है’. उन्होंने कहा, ‘इस मुल्क में आप जुमे को किसी भी मस्जिद में जाइए, और ख़ुद वहां के लोगों पर नज़र डालिए. आप देखेंगे कि बहुत सारे नौजवान नमाज़ पढ़ने आते हैं’.

राजनीतिक इस्लाम के स्कॉलर और सीएसडीएस में एसोशिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद ने दिप्रिंट से कहा कि इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि लोग अपने धार्मिक कार्यों को कैसे देखते हैं, ये व्यक्तिपरक होता है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘सर्वे का डाटा किसी व्यक्ति की अवधारणा पर आधारित होता है…और धार्मिकता बहुत व्यक्तिपरक होती है. किसी शख्स के लिए हर जुमे को नमाज़ पढ़ना, किसी अमल करने वाले मुसलमान के स्थापित नियम से हटना माना जा सकता है. जो इंसान पांच वक़्त नमाज़ पढ़ता है, वो अपने आप को पाबंदी से नमाज़ पढ़ने वाला समझ सकता है’.

अहमद ने ये भी कहा कि मुसलमानों में अपने मज़हब को लेकर व्यक्तिगत रहने की प्रवृत्ति होती है, और उन्होंने एक लेख का हवाला दिया, जो उन्होंने इसी विषय पर दिप्रिंट के लिए लिखा था.

अहमद ने उस लेख में लिखा था, ‘ये दलील दी जा सकती है कि इस्लामी धार्मिकता भारतीय मुस्लिम समुदायों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को पूरी तरह तय नहीं करती. यही वजह है कि वो अपने आपको, कुछ हद तक धार्मिक बताते हैं’.

तो फिर डेटा में गिरावट क्यों दिखती है?

अहमद का कहना है कि भारत में धार्मिकता के स्थापित रूपों में गिरावट आई है. मसलन, तबलीग़ी जमात जो कई दशकों तक, धार्मिकता को बढ़ावा देने वाला एक अहम सुन्नी मुस्लिम आंदोलन रहा, अब मुस्लिम युवाओं के बीच अपने इस्लाम का इज़हार करने के लिए, उतना आकर्षक नहीं रहा है. अहमद ने कहा, ‘इसके नतीजे में एक ख़ालीपन आ गया है, जिसकी वजह से एक नई धार्मिकता की तलाश में हैं’.

उन्होंने आगे कहा कि हो सकता है कि युवा मुसलमान अब उतनी नमाज़ न पढ़ रहे हों, लेकिन वो सलाह मशविरे के लिए बाबाओं और पीरों के पास जाने जैसे दूसरे काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘इन दिनों मुसलमानों के एक नई धार्मिकता की ज़रूरत है- वो मज़हब से हटे नहीं हैं, बल्कि एक नया रास्ता तलाश रहे हैं’.


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