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Monday, 4 November, 2024
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दत्ता पीठ-बाबाबुदानगिरी: कर्नाटक में हिंदू-मुस्लिम सौहार्द का प्रतीक धर्मस्थल कैसे ‘दक्षिण की अयोध्या’ बन गया

इस्लामी सूफीवाद और हिंदू अवधूत परंपरा का संगम माना जाने वाला धर्मस्थल अब मुस्लिम प्रभाव से ‘मुक्त’ कराने के संघ परिवार के अभियान का केंद्र बन चुका है.

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बेंगलुरू: भगवान दत्तात्रेय की जयंती के मौके पर चिकमंगलूर में एक पहाड़ी के ऊपर जुटी लोगों की भीड़ ने भगवा झंडे लहराते हुए काफी उत्साह के साथ पटाखे फोड़े. दरअसल, संघ परिवार की तरफ से शनिवार को यह सारा आयोजन कर्नाटक में हिंदू-मुस्लिम दोनों की आस्था के प्रतीक एक धर्मस्थल पर दावा जताने के लिए किया गया था.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) और बजरंग दल सहित तमाम हिंदूवादी संगठनों के नेताओं ने गुफा में स्थित धर्मस्थल में निकाली गई शोभा यात्रा के वीडियो साझा किए.

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और चिकमंगलूर से विधायक सी.टी. रवि ने शनिवार को ट्वीट किया, ‘दत्ता पीठ पर हिंदुओं का कब्जा होकर रहेगा.’

केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री शोभा करंदलाजे ने रविवार को ट्वीट किया, ‘भगवान दत्तात्रेय पीठ हिंदुओं की है, थी और हमेशा रहेगी!’ करंदलाजे उडुपी-चिकमंगलूर लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं.

गुफा में स्थित धर्मस्थल का नाम ‘श्री गुरु दत्तात्रेय स्वामी बाबा बुदान दरगाह’ ही यह बताने के लिए काफी है कि यह साझी आस्था का प्रतीक है. गुरु दत्तात्रेय एक हिंदू देवता हैं, जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानी त्रिमूर्ति का अवतार माना जाता है और उनके साथ बाबा बुदान शाह को भी यहां पर पूजनीय माना जाता है. बाबा बुदान शाह 16वीं शताब्दी के सूफी संत थे, जिनके बारे में माना जाता है कि भारत को कॉफी के पौधे और 11वीं सदी के सूफी संत दादा हयात से उन्होंने ही परिचित कराया था.

सदियों से हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक रहा यह धर्मस्थल 1980 के दशक में देशभर में राम मंदिर आंदोलन के जोर पकड़ने के बीच वीएचपी के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी संगठनों की गतिविधियों के कारण ‘दक्षिण की अयोध्या’ में तब्दील हो गया. साल में दो बार- दत्तात्रेय जयंती और वार्षिक उर्स के दौरान- इस धर्मस्थल को लेकर सांप्रदायिक बहस भड़क उठती है.

2000 से ही दत्ता पीठ को ‘मुक्त’ कराने के अपने आंदोलन के तौर पर दक्षिणपंथी संगठन शोभा यात्राएं निकालते हैं, जैसा उन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान किया था. हालांकि 2008 और 2015 के अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने केवल उन्हीं साझी परंपराओं, समारोहों और आयोजनों की अनुमित दी है जो 1975 से ही पहले प्रचलन में थीं.


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साझी परंपराओं का इतिहास

सदियों पुराने तमाम सरकारी रिकॉर्ड, पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के दस्तावेज धर्मस्थल की वास्तविक स्थिति के बारे में बताते हैं, जो कि बाबा बुदानगिरी या दत्ता पीठ- आप इसे जो भी मानें- नामक पहाड़ी पर स्थित है, जहां एक लंबे अरसे से मुस्लिम और हिंदू भक्त साझी धार्मिक परंपराओं के साथ ‘दत्तात्रेय बाबाबुदान स्वामी’ की पूजा करते आ रहे हैं.

धर्मस्थल का एक इतिहास मैसूर गजट में 1930 में प्रकाशित हुआ था. इसके मुताबिक, सदियों से एक मुस्लिम सज्जादानशीं (वंशानुगत प्रशासक) ‘दादा हयात खलेंद्र दत्तात्रेय स्वामी’ की दरगाह का मुखिया रहा है. बताया जाता है कि 11वीं सदी के सूफी संत दादा हयात ने गुफा को ही अपना ठिकाना बनाया था और पहले सज्जाद को नियुक्त किया था.

सज्जादा हर रोज होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों के लिए एक मुजावर (पुजारी) की नियुक्ति करता है, जो हिंदू-मुस्लिम दोनों ही धर्मों के भक्तों को पवित्र जल देता है, हिंदू मठों के साधुओं को नंदा दीप रोशन करने के लिए गुफा के अंदर ले जाता है और दत्तात्रेय की माने जाने वाली पादुका की पूजा-अर्चना कराता है.

मैसूर धार्मिक और धर्मार्थ संस्थान अधिनियम, 1927 के मुताबिक (हिंदू) धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग के तहत आने वाले इस धर्मस्थल को एक ‘प्रमुख मुजराई मंदिर’ माना जाता रहा है.


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‘कस्टडी’ के लिए कानूनी जंग

दरगाह पर दावे की कानूनी लड़ाई 1978 में शुरू हुई थी जब वक्फ बोर्ड की तरफ से 1973 में मुजराई विभाग से इसका प्रशासन अपने हाथ में ले लिया गया था. इसके बाद जिला अदालत ने बंदोबस्ती आयुक्त को 1975 से पहले प्रचलित धार्मिक प्रथाओं पर एक रिपोर्ट पेश करने को कहा.

1989 में दायर की गई रिपोर्ट में मौजूदा मिलीजुली परंपराओं के बारे में पूरा ब्योरा सामने रखा गया. हालांकि, जिला अदालत ने रिपोर्ट खारिज कर दी लेकिन 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में इसे बरकरार रखा.

इस साल सितंबर में कर्नाटक हाई कोर्ट ने कहा कि एक ऐसे धार्मिक स्थल जहां हिंदू रीति-रिवाजों के मुताबिक भी पूजा अर्चना की जाती है, में ‘केवल एक मुस्लिम मुजावर’ को ही धार्मिक अनुष्ठान की अनुमति देना मुसलमानों और हिंदुओं दोनों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है.

कोर्ट ने राज्य सरकार से एक हिंदू पुजारी नियुक्त करने के लिए भी कहा. इसके बाद, अक्टूबर में राज्य सरकार ने कहा कि इस आदेश को एक कैबिनेट उप-समिति देखेगी.

हिंदू पुजारी की नियुक्ति तीर्थस्थल को ‘मुक्त’ करने की कोशिशों में जुटे हिंदूवादी संगठनों की मांगों में से एक है.


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‘दक्षिण की अयोध्या’

2002 के पहले तक ऐसा नहीं था लेकिन जब पूर्व केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार ने इसे ‘दक्षिण की अयोध्या’ करार दिया, उसके बाद बाबाबुदनगिरी में सांप्रदायिक तनाव भड़का. दत्ता पीठ आंदोलन, अब भाजपा के वरिष्ठ नेता बन चुके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सी.टी. रवि, केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे और कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री सुनील कुमार का कद बढ़ाने में मददगार साबित हुआ है.

कन्नड़ लेखक के. मारुलासिद्दप्पा ने दिप्रिंट से कहा, ‘बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भाजपा को कर्नाटक में इसे दोहराने का राजनीतिक अवसर मिल गया. उन्हें सामाजिक-आर्थिक विकास का तो कोई ज्ञान नहीं है, लेकिन लोगों को गुमराह करने के लिए उन्होंने इस तरह धार्मिक भावनाएं भड़काने का काम किया.’

उन्होंने कहा, ‘उन्होंने दो जगहें चुनीं, हुबली में ईदगाह मैदान और चिकमंगलूर में बाबाबुदनगिरी. संघ परिवार ने बाबाबुदनगिरी को लेकर लोगों को धार्मिक आधार पर बांटना शुरू कर दिया- ये वही लोग थे जो सदियों से कंधे से कंधा मिलाकर प्रार्थना करते आ रहे थे.’

संघ कार्यकर्ताओं द्वारा दरगाह की घेरेबंदी करने के बाद इसे ‘दक्षिण की अयोध्या बनने’ से रोकने के लिए मारुलासिद्दप्पा ने नाटककार गिरीश कर्नाड, पत्रकार गौरी लंकेश और अन्य के साथ 2003 में बाबाबुदनगिरी का दौरा किया था. उस साल संघ की शोभा यात्रा के समापन के दौरान बाबाबुदनगिरी में मुसलमानों की दुकानों में कथित तौर पर आग लगा दी गई थी.

मारुलासिद्दप्पा ने कहा, ‘मैं चिकमंगलूर का रहने वाला हूं और बाबाबुदनगिरी में सांप्रदायिक सौहार्द देखते हुए ही बड़ा हुआ हूं. राम जन्मभूमि आंदोलन के पहले तक हमने लोगों को कभी इस तरह बंटा हुआ नहीं देखा था. संघ परिवार ने मेरे देखते-देखते ही सी.टी. रवि की अगुआई में सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक इस धर्मस्थल को नष्ट कर दिया.’

हालांकि, हिंदुत्व संगठनों का दावा है कि यह धर्मस्थल मूलत: एक हिंदू तीर्थस्थल था जिसका ‘इस्लामीकरण’ कर दिया गया था और उनकी लड़ाई इसे फिर से हासिल करने की है.

बजरंग दल के अखिल भारतीय सह-संयोजक सूर्यनारायण ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह साबित करने वाले ऐतिहासिक दस्तावेज मौजूद हैं कि ये एक हिंदू मंदिर था, इसमें शाही शासकों की तरफ से दी गई जमीन के दस्तावेज भी शामिल हैं. हैदर अली और टीपू सुल्तान के समय में ही इसका इस्लामीकरण हुआ था.’

बंदोबस्ती आयुक्त ने अपनी 1989 की रिपोर्ट में दर्ज किया था कि 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मैसूर के महाराजा ने 1,861 एकड़ भूमि ‘श्री दत्तात्रेय देवारू’ के लिए प्रदान की थी और ‘श्री बाबा बुदान दरगाह’ के लिए 111.25 एकड़ जमीन अलग से दी थी.

1975 के पहले से जारी धार्मिक गतिविधियों के अलावा अन्य किसी आयोजन पर प्रतिबंध लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद 2000 से हर साल बजरंग दल कार्यकर्ता और अन्य दक्षिणपंथी संगठन शोभा यात्रा और दत्ता माला तीर्थयात्रा आयोजित करते हैं.

सूर्यनारायण ने दिप्रिंट को बताया, ‘शोभा यात्रा हमारी भूमि फिर हासिल करने के लिए हमारे आंदोलन का हिस्सा है. दत्ता पीठ सिर्फ और सिर्फ एक हिंदू मंदिर है और हम इसके लिए अपनी लड़ाई जारी रखेंगे.’

उन्होंने इस दावे को खारिज कर दिया कि सूफी संत बाबा बुदान की मजार गुफा के अंदर थी. उन्होंने कहा, ‘उन्हें यहां दफनाया नहीं गया था. हम कई पीढ़ियों से शाह कादरी के परिवार (सज्जादानशीं का परिवार) के सदस्यों को आसपास दफनाने का विरोध करते रहे हैं. सभी कब्र हटा दी जानी चाहिए और भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित की जानी चाहिए.’

सालों से शोभा यात्रा में शामिल होने वाले लोगों द्वारा बैरिकेड तोड़ने और मकबरे को नुकसान पहुंचाने, दरगाह में हरी चादर जबरन हटाने और उसकी जगह भगवा चादर डालने की खबरें आती रही हैं. सूर्यनारायण ने कहा, ‘ऐसी घटनाएं अब नहीं होती हैं.’

यहां तक कि टाइटल क्लेम पर फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार भी अगले कदम पर गंभीरता से विचार कर रही है. कभी हिंदू-मुस्लिम सद्भाव का प्रतीक रहा एक धर्मस्थल अब एक सांप्रदायिक विवाद का केंद्र बना हुआ है.

गौरी लंकेश ने दत्ता पीठ से लौटने के बाद 3 दिसंबर 2003 को लंकेश पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में लिखा था, ‘अरब से चंद्र द्रोण पर्वत पर आए दादा हयात ने उस समय स्थानीय सामंती शासकों की प्रताड़ना झेल रहे शूद्रों और दलितों की मदद करके उनका भरोसा हासिल कर लिया था. दादा हयात के प्रेम भाव, करुणा और सहिष्णुता से प्रभावित होकर कुछ लोगों ने इस्लाम धर्म अपना लिया जबकि तमाम अन्य लोग अपने धर्म से नाता तोड़े बिना ही दादा हयात के भक्त बन गए, और उन्हें दत्तात्रेय का अवतार मानने लगे. इसका भी एक कारण है. हिंदू धर्म की पौराणिक गाथाओं में माना जाता है कि भगवान विष्णु ने लोगों को दासता से मुक्त कराने के लिए दत्तात्रेय अवतार लिया था. इसलिए हिंदू भक्तों ने दादा हयात में दत्तात्रेय को देखा और उन्हें एक हिंदू नाम दे दिया.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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