पूरी तत्परता के साथ ‘चुनावी लोकतंत्र’ पर कुठाराघात की एक कवायद के तहत लोकसभा और राज्य सभा ने निर्वाचन आयोग की तरफ से जारी किए जाने वाले वोटर कार्ड को आधार- जो कि 12 अंकों का बायोमेट्रिक नंबर है और जिसे केंद्र सरकार की एजेंसी यूनिक आइडेंटिफेकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया या यूआईडीएआई जारी करती है- से जोड़ने संबंधी चुनाव कानून (संशोधन) विधेयक को मंजूरी दे दी है. मूलत: यह कदम पूरी तरह अनुचित है क्योंकि निर्वाचन आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत स्थापित एक संवैधानिक निकाय है, जो सरकारी प्रभाव से इतर स्वायत्त तौर पर स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार है.
विपक्षी दलों के सांसदों की यह दलील कि विधेयक नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा, इसे पूरी तरह खारिज करते हुए केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि संशोधन जाली वोट और फर्जी मतदान पर रोक लगाने के लिए किया गया है. लेकिन तथ्य तो यही है कि वोटर कार्ड को आधार से जोड़ने से न केवल ‘जाली वोट और फर्जी मतदान’ बढ़ेगा, बल्कि आने वाले समय में लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित भी होना पड़ सकता है.
नरेंद्र मोदी सरकार का यह कदम घातक नतीजों वाला साबित हो सकता है. आरटीआई पर मिले जवाब बताते हैं कि 2014-15 में आठ करोड़ जाली या फर्जी आधार नंबरों का पता चला था. आरटीआई से यह भी पता चलता है कि डेटा में हेरफेर की पूरी संभावना होती है और ऐसे में इस कदम से भारतीय चुनाव प्रणाली में धांधली का जोखिम बढ़ेगा ही.
भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) का तर्क था कि इन्हें जोड़ना ‘सरकार के वैध हितों’ को पूरा करेगा, जिसे सुप्रीम कोर्ट में निजता हनन के मामले में निर्धारित सीमा को लेकर सुनवाई के दौरान जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी खारिज कर चुके हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या चुनाव आयोग का काम सरकार के हितों का ख्याल रखना है या नागरिकों के हितों की रक्षा करना.
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आधार-वोटर कार्ड जोड़ना गलत और असंवैधानिक होने के छह कारण
वोटर आईडी-आधार को लिंक करने के खिलाफ कई मजबूत और ठोस तर्क मौजूद हैं.
पहला, आधार वोट देने के अधिकार का सबूत नहीं है. यह न तो नागरिकता का प्रमाण पत्र है और न ही इसे इस उद्देश्य से लाया गया था, यही वजह है कि आधार नंबर देश में रह रहे सभी निवासियों को जारी किया गया न कि नागरिकों को. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत केवल भारत में रह रहे नागरिकों को ही वोट देने का अधिकार है. दोनों को जोड़ना मूर्खतापूर्ण है और यह निराधार भी होगा- यह जनता के पैसे की बर्बादी के अलावा कुछ और नहीं है.
दूसरा, इसे जोड़ने से बड़े पैमाने पर वोटर अपने मताधिकार से वंचित हो सकते हैं. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसी अन्य सरकारी योजनाओं में डेटाबेस ‘क्लीन अप’ के लिए आधार का इस्तेमाल करने के पिछले प्रयासों के व्यापक नतीजे सामने आए हैं, जिसमें हजारों की संख्या में नागरिक बिना किसी नोटिस के मनमाने ढंग से सिस्टम से बाहर हो गए.
उदाहरण के तौर पर झारखंड में एक अध्ययन में पाया गया कि 2016 से 2018 के बीच आधार से जोड़ने के दौरान ‘फर्जी’ मानकर रद्द किए गए 90 फीसदी राशन कार्ड सही थे. यहां तक कि 2018 में यूआईडीएआई के सीईओ ने भी स्वीकारा कि सरकारी सेवाओं के लिए प्रमाणीकरण में चूक की गुंजाइश 12% से अधिक थी, जो लाखों लोगों के प्रभावित होने की वजह हो सकती है.
तीसरा, मतदाता फर्जीवाड़ा बढ़ने की संभावना है. आधार को लिंक करने से वोटर आईडी डेटाबेस की शुचिता भी कमजोर होगी. 2019 में आधार डेटा में सेल्फ-रिपोर्टेट त्रुटियां चुनावी डेटाबेस की त्रुटियों की तुलना में डेढ़ गुना अधिक थीं. दोनों डेटाबेस जोड़ने के पीछे धारणा यह है कि आधार डेटाबेस में लोगों के रिकॉर्ड की प्रामाणिकता का इस्तेमाल वोटर आईडी डेटाबेस रिकॉर्ड की प्रामाणिकता की पुष्टि के लिए किया जा सकेगा.
हालांकि, आधार डेटाबेस में गुणवत्ता के मुद्दे पर व्यापक तौर पर गौर करें- जो कि नामांकन प्रक्रिया का पूरी तरह पालन न किए जाने और प्रभावी सुधार तंत्र के अभाव का नतीजा है- तो कहा जा सकता है कि आधार से जोड़ने की यह कवायद मतदाता पहचान डेटाबेस में रिकॉर्ड की शुचिता को भी घटा देगी. हालिया शोध बताता है कि आधार-पैन लिंकिंग की वजह से सिस्टम में तमाम फर्जी जानकारियां दर्ज हो गई हैं.
चौथा, वोटिंग के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन में तमाम जोखिम हैं. यूआईडीएआई पर पूरी तरह निर्भरता के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा न होने और शिकायत निवारण तंत्र के अभाव के कारण भोजन के अधिकार अभियान को आधार और बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण से जोड़े जाने के दौरान कई तरह की खामियां पहले ही उजागर हो चुकी हैं. कई लोगों के फिंगरप्रिंट काम नहीं करते, खासकर बुजुर्गों और उन लोगों के जो अपने हाथों से बहुत ज्यादा श्रम करते हैं और चेहरे से पहचान की प्रक्रिया में भी खामियां और चूक की पूरी गुंजाइश रहती है.
यूआईडीएआई ने कल्याणकारी योजनाओं के मामले में बिना पूरी तैयारी के एक ‘नॉमिनी सिस्टम’ और ओटीपी के जरिये बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण में खामियां और समस्याएं दूर करने की कोशिश की है. दूरवर्ती और दुर्गम स्थलों के बूथों पर मतदान के मामले में यह व्यवस्था कारगर नहीं होगी, जहां मतदान मैन्युअली कराया जाता है. इसके अलावा ईवीएम एक स्टैंड-अलोन गैजेट है जो इंटरनेट से जुड़ा नहीं होता, फिर इसमें बायोमेट्रिक सत्यापन कैसे होगा?
पांचवां, मतदाता और आधार डेटाबेस को जोड़ना निजता के अधिकार का हनन होगा. सबसे बड़ी चिंता का विषय ये है कि इससे हमारे संवैधानिक और निजता के मौलिक अधिकार और वोट की गोपनीयता का उल्लंघन होगा.
भारत में मौजूदा समय में कोई डेटा संरक्षण कानून नहीं है. आधार को वोटर कार्ड से जोड़ने पर जनसांख्यिकीय जानकारी मतदाता डेटाबेस में आ जाएगी. इससे लगातार निगरानी, पहचान के आधार पर मताधिकार से वंचित करना, वोटर को लक्षित करके प्रचार और संवेदनशील निजी डेटा का वाणिज्यिक इस्तेमाल आदि की संभावनाएं उत्पन्न होंगी.
2019 में कैम्ब्रिज एनालिटिका घोटाला यह दर्शा चुका है कि गहन और आक्रामक तरीके से वोटर प्रोफाइलिंग लोगों के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए भी किस हद तक घातक होती है. हाल में, मद्रास हाई कोर्ट ने भारतीय निर्वाचन आयोग से कहा है कि भाजपा पर 2021 के विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक लाभ के लिए पुडुचेरी के मतदाताओं के आधार डेटा का अवैध इस्तेमाल करने के आरोपों पर गौर करे.
छठा, आधार कानून में ‘स्वैच्छिकता’ के वादे पर भरोसा नहीं किया जा सकता. यह पूरी तरह निर्रथक सुरक्षा उपाय है, जैसा हमने पहले देखा भी है कि कानून स्वैच्छिक होने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा खास तौर पर स्थगन आदेश जारी किए जाने के बावजूद जनता को कैसे अपने आधार नंबरों को बैंक खातों से जोड़ने के लिए जबरन बाध्य और आतंकित किया गया. हमने हर स्तर पर आधार प्रोजेक्ट पर अमल के दौरान पाया है कि कैसे कागजों पर ‘स्वैच्छिक’ होने का दावा व्यावहारिक स्तर पर एक जबरदस्ती वाले तंत्र में बदल जाता है.
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एक भयावह परिदृश्य
वोटर आईडी-आधार को जोड़ने और आधार नंबर को बैंक अकाउंट से लिंक करने में काफी समानताएं हैं. ‘एम.जी. देवसहायम और अन्य बनाम भारत संघ ’ मामले में आधार को बैंक खाते से लिंक किए जाने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिकता को ध्यान में रखते हुए कुछ इस प्रकार अपना फैसला सुनाया:
‘(ए) हम मानते हैं कि मौजूदा स्वरूप में यह प्रावधान समानता की शर्त को पूरा नहीं करता और इसलिए किसी व्यक्ति के गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करता है जो कि उसके बैंकिंग संबंधी ब्योरे से जुड़ा है.
(बी) आधार लिंकिंग को न केवल नया बैंक खाता खोलने के लिए जरूरी बनाया गया है बल्कि मौजूदा बैंक खातों के लिए भी इसे अनिवार्य कर दिया गया है, इस शर्त के साथ कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो खाता निष्क्रिय कर दिया जाएगा. इसका नतीजा यह होगा कि खाता धारक बैंक खाता आधार से लिंक न होने तक उसे ऑपरेट करने का हकदार नहीं होगा. यह किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित करने जैसा है. हमने पाया कि आधार को बैंक खाते से अनिवार्य रूप से जोड़ने का यह कदम समानता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता…
(सी) नियमों को असंगत पाया गया है.’
सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड को बैंक खाते जैसी नकद लेन-देन सुविधा से लिंक करने को ‘संपत्ति से वंचित’ करने वाला करार दिया और इसलिए असंवैधानिक माना. उसी कार्ड को वोटर आईडी से लिंक करने के नाम पर नागरिकों को सरकार चुनने के उनके बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित किया जा सकता है और इसलिए यह दोगुना असंवैधानिक होगा.
ये परिदृश्य काफी भयावह है कि आधार से जुड़े मतदाता पहचान पत्र को मोबाइल फोन से जोड़ा जाएगा, जो कि सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ होगा. सोशल मीडिया एक एल्गोरिदम पर काम करता है, जो सीधे तौर पर यूजर के इंट्रेस्ट्र/विचारों से जुड़ा होगा. चूंकि इस पर नियंत्रण के लिए कोई डेटा संरक्षण कानून नहीं है, ऐसे में वोटर प्रोफाइलिंग, चुनिंदा लोगों को मताधिकार से वंचित करना या फिर हितों को ध्यान में रखकर अभियान चलाना आदि सब कुछ संभव होगा. शायद कानून के पीछे असली मकसद यही है, न कि जैसा दावा किया जा रहा है कि फर्जी मतदान पर रोक लगाई जानी है.
कुल मिलाकर वोटर प्रोफाइलिंग और किसी को मताधिकार से वंचित करना एक ऐसा घातक कदम होगा जो भारत के चुनावी लोकतंत्र को पूरी तरह नष्ट कर सकता है.
(एम.जी. देवसहायम एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी और पीपल-फर्स्ट के अध्यक्ष हैं. उन्होंने भारतीय सेना में अपनी सेवाएं भी दी हैं. लेखक उस बयान का मसौदा तैयार करने वाले समूह में शामिल रहे हैं जिसका कुछ हिस्सा रीथिंकिंग आधार की तरफ से प्रकाशित किया गया था. व्यक्त विचार निजी हैं)
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