सुंदरगढ़: ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के गरगदबहल गांव स्थित अपने घर के बाहर 45 वर्षीय आशा कार्यकर्ता मटिल्डा कुल्लू अपने काम पर रवाना होने से पहले अपना बैग और साइकिल तैयार कर रही हैं.
बेहद करीने से पिन लगी नीली साड़ी पहने कुल्लू साइकिल के पहियों को चेक करती हैं और फिर अपने बैग में आवश्यक दवाएं, कोविड किट और रिकॉर्ड रखने से जुड़ी सामग्री (नोटबुक, चार्ट, पेन आदि) रखती है. वह अपने प्रभार में आने वाले लगभग 250 घरों के बारे में पूरा रिकॉर्ड रखती हैं.
पिछले 15 सालों से बतौर आशा कार्यकर्ता काम कर रही कुल्लू को हाल ही में अमेजन की प्रमुख अपर्णा पुरोहित और बैंकर अरुंधति भट्टाचार्य के साथ ‘फोर्ब्स इंडिया डब्ल्यू-पावर 2021’ सूची में शामिल किया गया है. यह पहली बार है जब किसी आशा कार्यकर्ता ने फोर्ब्स की सूची में अपनी जगह बनाई है.
हालांकि, उनका यह सफर आसान नहीं रहा है. कुल्लू ने दिप्रिंट से बातचीत के दौरान बताया कि कैसे उन्हें जातिवाद और अंधविश्वास से जूझना पड़ा था, और एक समय ऐसा था जब उनके परिवार के लिए भोजन जुटाना भी आसान नहीं होता था.
खारिया जनजाति से आने वाली कुल्लू बताती हैं, ‘कभी-कभी तो लोग ऐसा मानने लगते कि उनके बीमार होने का कारण मैं हूं क्योंकि मैं उनके घर गई थी. वे इस कदर अंधविश्वासी होते थे.’
वह अब अपने संघर्ष के दिनों को मुस्कुराहट के साथ ही याद करती है और इस दौरान मिले अनुभवों और जानकारियों को लोगों के साथ साझा करना चाहती हैं. उन्हें यह बताते हुए बहुत गर्व होता है कि वह जिस पूरे क्षेत्र की देखरेख करती है, वहां लगभग पूरी तरह कोविड टीकाकरण हो चुका है.
एक लंबी यात्रा
कुल्लू का दिन सुबह 5:30 से 7 बजे के बीच शुरू होता है, जो इस पर निर्भर करता है कि कब कितना काम करना है. अपने घरेलू कामकाज को निपटाने के बाद वह अपना टिफिन पैक करती है और फील्ड में निकल पड़ती हैं. कभी-कभी शाम को चार बजे तक लौट आती हैं और कभी रात के 11 भी बज जाते हैं.
उनका काम गर्भवती और नई-नई मां बनीं महिलाओं के चेकअप से लेकर मलेरिया की जांच, महिलाओं को स्वच्छता और गर्भनिरोधक पर सलाह देना, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ बैठकें करना और कोविड के लक्षणों और टीकों के संबंध में घर-घर जाकर जानकारी जुटाना है.
आशा कार्यकर्ता बनने से पहले कुल्लू सिलाई की दुकान चलाती थीं. उन्हें आशा कार्यकर्ता के बारे में अपने गांव में एक स्वयं सहायता समूह से पता चला था.
पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी कुल्लू कहती हैं कि उन्हें अपने माता-पिता से बहुत लाड़-प्यार मिला, लेकिन साथ ही उन संघर्षों के बारे में भी बताती हैं, जिनसे उन्हें जूझना पड़ा था.
वह बताती हैं, ‘एक समय ऐसा भी था जब उनके पास खाने के लिए खाना तक नहीं होता था. मेरे जन्म के समय तक स्थिति काफी बेहतर हो गई थी.’
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कुल्लू ने जब आशा कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू किया तो उन्हें तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. कई बार जब वह फील्ड विजिट पर होतीं तो लोग उन्हें किसी गिलास में पीने के लिए पानी तो दे देते हैं लेकिन बाद में उस गिलास को छूने से मना कर देते थे.
कुल्लू कहती हैं वह वो दिन कभी नहीं भूल पाएंगी जब एक सरकारी अस्पताल में उन्हें फर्श पर बैठाया गया और एक कुत्ता आकर उनके बगल में बैठ गया. यह तब हुआ जब वह एक गर्भवती महिला को प्रसव के लिए उसके परिवार के साथ लेकर अस्पताल गई थीं.
क्षेत्र में ऐसे ही एक दौरे के समय एक महिला ने कुल्लू पर चिल्लाते हुए कहा, ‘तुम्हारी जाति के लोग अपने-आप को समझते क्या हैं’ हालांकि, कुल्लू के मुताबिक, वह उस घर में बार-बार जाती रहीं क्योंकि मलेरिया से पीड़ित इस महिला की देखभाल करना उनका कर्तव्य था. बरसों बाद जब उनकी बहू को बच्चा हुआ तो महिला ने कुल्लू से कहा, ‘अगर तुम नहीं होतीं तो हम लोग संभाल नहीं पाते.’
वह मुस्कुराते हुए बताती हैं, ‘अब जब मैं उनके घर जाती हूं तो वो लोग मेरे साथ बैठकर खाते हैं और चाय भी पीते हैं.’
महामारी से निपटना
कुल्लू के लिए महामारी से निपटना किसी चुनौती से कम नहीं था, क्योंकि तमाम ग्रामीणों को शुरू में यही लगता था कि कोविड एक ‘अफवाह’ भर है और उन्हें डर था कि अगर टीका लगवाएंगे तो मर जाएंगे. हालांकि, धैर्य के साथ सही मार्गदर्शन करते हुए कुल्लू अपने गांव के लोगों को टेस्टिंग, आइसोलेशन (यदि कोविड पॉजिटिव हों तो), और टीकाकरण के लिए मनाने में सक्षम रहीं.
कुल्लू को खुद अपनी हालत ने भी काफी डरा दिया था. यह तब हुआ जब इस साल दूसरी लहर के दौरान 2 मई को वह टेस्ट में कोविड पॉजिटिव निकलीं. उन्होंने कहा, ‘दूसरी लहर भयानक थी. मैं रोज सोचती थी कि क्या मैं इससे बच पाऊंगी.’
कुल्लू का एसपीओ2 का स्तर 84 तक गिर गया. क्वारंटाइन रहने के दौरान वह कोविड के कारण किसी के मरने की खबर सुनकर एकदम बेचैन जाती थीं. हालांकि, वह जल्द ही इससे उबर आईं और 18 मई को फिर अपना फील्ड वर्क शुरू कर दिया.
अपनी सेहत सुधरने के घटनाक्रम के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, ‘मेरी टीबी रोगी को दवा की जरूरत थी, इसलिए मैंने ठीक होने और देखभाल के लिए उसके पास जाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी.’
‘पहचान मिलने की खुशी’
फोर्ब्स की सूची में शामिल किए जाने पर कुल्लू का कहना है कि वह खुश हैं कि आशा कार्यकर्ताओं को पहचान मिल रही है. उन्हें लगता है कि उनके इतने सालों का संघर्ष सार्थक हो गया है.
उन्होंने कहा, ‘मुझे लोगों की मदद करना अच्छा लगता है. उन्हें स्वस्थ और खुश देखकर मुझे संतुष्टि मिलती है. मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे देखकर कभी दुखी हो, भले ही इसके लिए मुझे अपने दर्द को दबाना क्यों न पड़े.’
लगातार एक से दूसरे घर का चक्कर लगाने वाली कुल्लू कहती है कि वह अपना अनुभव और जानकारी लोगों के साथ साझा करना चाहती है और किसी के प्रसव में सहायता करने या किसी की जान बचाने में उन्हें सबसे ज्यादा खुशी मिलती है.
वह कहती हैं, ‘मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि अपने बच्चों को गोद में उठाते समय मांओं के चेहरे पर नजर आने वाले खुशी के भाव देख पाती हूं. और किसी को बचा लेने से मुझे जो खुशी और संतुष्टि मिलती है वो पैसा कभी नहीं दे सकता.’
वह अभी शुरुआत करने वाली अन्य आशाओं के लिए सलाह भी देती हैं—अपना काम लगन से करें और सफल खुद-ब-खुद मिलेगी. ‘आशा कार्यकर्ता बन पाना हर किसी की किस्मत में नहीं होता है. आप भाग्यशाली हैं कि आपको यह अवसर मिला है. इसलिए पूरी लगन से काम करो.’
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