एकदम सही तारीख तो नहीं मालूम है मगर यह 28 या 29 अप्रैल 1971 की बात है, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘पूर्वी बंगाल’ के संकट पर चर्चा करने के लिए अपने मंत्रिमंडल की एक अहम बैठक बुलाई थी. ‘पूर्वी बंगाल’ शब्द का पहली बार प्रयोग 29 मार्च 1971 के संसदीय प्रस्ताव में किया गया था, जिसमें ‘पूर्वी पाकिस्तान’ पर बर्बर हमले की निंदा की गई थी. इससे पहले अधिक तटस्थ किस्म के शब्द ‘पूर्वी पाकिस्तान’ का प्रयोग किया जाता रहा था. ‘भारत, और बांग्लादेश मुक्ति युद्ध’ विषय पर उल्लेखनीय पुस्तक के लेखक चंद्रशेखर दासगुप्ता कहते हैं कि ‘पूर्वी बंगाल’ शब्द का प्रयोग बताता है कि प्रधानमंत्री इस मसले पर ‘अपने सलाहकारों से कहीं आगे’ थीं. 1972-74 के बीच बांग्लादेश में भारतीय राजनयिक के तौर पर तैनात रहे दासगुप्ता कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री ने मसले को तुरंत समझ लिया था, ‘कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान की निरंकुश चालों ने ‘पाकिस्तानी एकता को अंतिम घातक चोट पहुंचा दी थी.’
इस दमन और इसके मामले में भारत के रुख पर विचार करने के लिए तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ को भी 28/29 अप्रैल की उस बैठक में बुलाया गया था. बैठक में विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह, संभवतः रक्षा मंत्री जगजीवन राम, प्रधानमंत्री के सलाहकार पी.एन. हक्सर, और अन्य लोग शामिल हुए थे.
यह भी पढ़ें:आत्मघात पर तुले पाकिस्तान को पता होना चाहिए, नरेंद्र मोदी परमाणु बटन से नहीं डरते
पिछले ब्योरे
इंदिरा गांधी के जीवनीकारों, जिनमें पुपुल जयकर भी शामिल हैं, के अनुसार प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष में इस तरह की बातचीत हुई— प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि ‘बड़ी तादाद में शरणार्थी आ रहे हैं. आपको उन्हें रोकना ही होगा. जरूरी हो तो पूर्वी पाकिस्तान में चले जाइए, मगर उन्हें रोकिए.’ दूसरे स्रोतों के मुताबिक, सेनाध्यक्ष का जवाब था कि अगर भारतीय फौज को तुरंत दखल देने का आदेश दिया गया तो ‘मैं सौ फीसदी हार की गारंटी देता हूं.’
कहा जाता है कि इसने इंदिरा गांधी को 1971 की गर्मियों में फौजी दखल देने से रोक दिया था. इस तर्क को आगे बढ़ाएं तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है— जैसा कि कई लोग निकाल चुके हैं— कि मानेकशॉ के चलते भारत फौजी शिकस्त खाने से बच गया था. वास्तव में उक्त संवाद, जिसे कई और विवरणों में दोहराया जा चुका है, एक तरह का मिथक बन गया है. इस बैठक के अभिलेखीय दस्तावेज़ अभी भी गोपनीय, ‘क्लासिफायड’ श्रेणी में हैं. बताया जाता है कि विदेश मंत्रालय ने इन रेकॉर्डों का डिजिटलीकरण कर लिया है, लेकिन मेरी जानकारी के अनुसार राष्ट्रीय अभिलेखागार को अभी कुछ भी नहीं दिया गया है.
दूसरा दृष्टिकोण…
राजनयिक से इतिहासकर बने दासगुप्ता ने रिकॉर्ड को दुरुस्त कर दिया है. वे कहते हैं कि ‘कहानियां सुनाने में माहिर मानेकशॉ ने काफी नमक-मिर्च लगाकर यह कहानी प्रसारित कर दी कि उन्होंने इंदिरा गांधी को अप्रैल में भारतीय सेना को पूर्वी पाकिस्तान में भेजने का आदेश जारी करने से किस तरह रोक दिया था.’ 250 पेज के इस विशद उपक्रम में यह प्रसंग दो पैराग्राफ में सिमटा हुआ है मगर इसने तमाम तरह की लेखकीय प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है.
पूर्व वायुसेना उपाध्यक्ष और दो खंडों में लिखी शानदार पुस्तक ‘इंडियाज़ वार्स’ के लेखक अर्जुन सुब्रह्मण्यम का कहना है कि दासगुप्ता ने एक ‘आदर्श’ सेनाध्यक्ष की ‘प्रतिष्ठा’ को घटाने का काम किया है.
सुब्रह्मण्यम के मुताबिक, यह एक अतिशयोक्ति ही लगती है कि परीक्षा के उस दौर में सेनाध्यक्ष ने नहीं बल्कि प्रधानमंत्री ने ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह नाराजगी क्यों है, एक हद तक तो समझ में आता है. कई लोगों, खासकर भारतीय सेना में रहे लोगों को दासगुप्ता की व्याख्याएं नागरिक-सेना संबंधों के व्यापक साहित्य में दर्ज एक विशेष उपदेश के प्रतीक जैसी हैं जो भारतीय सेना की सामर्थ्य को निरंतर कमतर आंकता रहा है.
वैसे, इस मामले में दासगुप्ता सही नज़र आते हैं. लेकिन इससे देश के लिए मानेकशॉ के योगदान कतई छोटे नहीं हो जाते. वास्तव में, इतिहास के इस छोटे-से प्रसंग यानी 1971 की लड़ाई में मानेकशॉ की भूमिका के एक मामूली प्रकरण पर ज़ोर देते रहने का अर्थ उस आदर्श की गाथा को कमतर बताना होगा, जिसे सुनते हुए हम बड़े हुए.
यह भी पढ़ें: बदला लेने से ज़्यादा ज़रूरी है दुश्मन के दिलो-दिमाग में खौफ़ पैदा करना
…उसका औचित्य
दासगुप्ता के इस दावे के पक्ष में, कि इंदिरा गांधी ने 28/29 अप्रैल की बैठक से पहले ही तय कर लिया था कि फौजी कार्रवाई देर से की जानी चाहिए, दो तरह के विचार सामने आए हैं. इसके अलावा, किसी नीतिगत प्रक्रिया के तरह किसी फौजी कार्रवाई पर विचार करने में सात महीने लगे. नीति के विकास को समझने के लिए अभिलेखकीय रेकॉर्ड स्पष्ट हैं और वे दुनिया के करीब आधा दर्जन पुस्तकालयों में आसानी से उपलब्ध हैं. अपेक्षा तो यही की जाती है कि विदेश मंत्रालय के रेकॉर्ड ‘डीक्लासिफाई’ यानी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध किए जाएंगे, लेकिन यह समझना बहुत जरूरी नहीं है कि भारत ने फौजी कार्रवाई करने के लिए दिसंबर 1971 तक इंतजार किया तो उसका मकसद क्या था.
पहली बात यह कि अप्रैल 1971 में शुरू से ही स्वर्ण सिंह संयम बरतने की बात कर रहे थे. भारतीय विदेश मंत्री के एजेंडा में सबसे ऊपर यह था कि याह्या खान की हुकूमत के खिलाफ, और भारत की ओर से फौजी कार्रवाई के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाया जाए. सोवियत संघ में भारतीय राजदूत डी.पी. धर ने खबर दी थी कि मॉस्को का समर्थन मिलने में संदेह है. धर और उनके सहायकों ने 1969 में पहले रूस द्वारा प्रस्तावित ‘मैत्री संधि’ की संभावनाओं को फिर से टटोलना शुरू कर दिया था. 9 अगस्त 1971 को इस संधि पर दस्तखत किए गए. कई लोगों ने इस संधि को अमेरिका, चीन तथा पाकिस्तान की संयुक्त कार्रवाई से भारत को बचाने के कूटनीतिक कवच के रूप में देखा. लेकिन दासगुप्ता ने अपनी पुस्तक में यह खुलासा किया है कि सोवियत नेतृत्व भारत का समर्थन करने के सवाल पर नवंबर तक बंटा हुआ था. सोवियत विदेश मंत्री आंद्रे ग्रोमिको ने अमेरिकी विदेश मंत्री को जून-जुलाई में यह संदेश दे दिया था कि यह संधि वास्तव में भारत पर अंकुश लगाएगी (यह सारा पत्राचार कॉलेज पार्क में अमेरिका के नेशनल आर्काइव में उपलब्ध है). धर को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा.
वास्तव में, जैसा कि श्रीनाथ राघवन ने अपनी शानदार किताब ‘द ग्लोबल हिस्टरी ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में स्पष्ट किया है, मार्च 1971 के अंत तक इंदिरा गांधी और हकसर दोनों का मानना था कि ‘पाकिस्तान की आंतरिक घटनाओं में हमने हस्तक्षेप किया तो हमें अधिकतर देशों का समर्थन और सदभाव नहीं हासिल होगा.’ इसलिए दुनिया भर का समर्थन हासिल करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय अभियान तैयार करना होगा. अगले छह महीनों में यही किया गया. अभियान का पहला लक्ष्य पूर्वी बंगाल में जारी ‘नरसंहार’ के बारे में तमाम राजधानियों को विश्वास दिलाना था. इंदिरा गांधी ने यूरोप और अमेरिका में तमाम जो इंटरव्यू दिए उनमें इन शब्दों का प्रयोग करना वे नहीं भूलीं.
दूसरे, रक्षा मंत्री जगजीवन राम समेत अन्य लोगों ने इंदिरा गांधी को सावधान किया कि समय से पहले दखल देने पर चीन किस तरह की भूमिका निभा सकता है. इस तरह के विचार को जुलाई 1971 में हेनरी किसिंगर की पेकिंग की गुप्त यात्रा से और बल मिला. रूस के साथ हुई संधि को कुछ हलक़ों में चीन को परे रखने के उपाय के रूप में देखा गया. इसके अलावा, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इसे चीन, अमेरिका, पाकिस्तान की संभावित संयुक्त कार्रवाई के खिलाफ एक तरह के कवच के रूप में भी देखा गया. इस मिलीभगत के सबूत स्वर्ण सिंह को जून में ही मिल गए जब वे अमेरिका गए थे और उन्हें पता चला कि अमेरिकी हथियार पाकिस्तान भेजे गए हैं.
अंत में, जैसा कि जे.एन. दीक्षित ने लिखा है, 28/29 को जो विचार-विमर्श हुआ उसने स्पष्ट कर दिया कि ‘विकासशील नीति’ का रुख अपनाना पड़ेगा. दीक्षित के मुताबिक, लक्ष्य यह था कि ‘अगर अन्तरिम उपायों से पूर्वी पाकिस्तान के संकट का समाधान नहीं हुआ तो फौजी कार्रवाई’ का विकल्प चुनने की स्वतंत्रता रहे. इन विचार-विमर्शों से जो नीतिगत कदम उभरा उसमें मानेकशॉ ने भी बेशक अपनी भूमिका निभाई. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इंदिरा गांधी को समय से पहले दखल देने पर पुनर्विचार का फैसला करने के लिए समझाने की जरूरत नहीं थी. यह फैसला वे पहले कर चुकी थीं. उनके सलाहकारों, मंत्रियों ने इसे आकार दिया, और संभारतंत्रीय कारणों के आधार पर सेनाध्यक्ष ने इसकी पुनः पुष्टि की.
(लेखक कार्नेज इंडिया के निदेशक हैं. विचार व्यक्तिगत हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बॉडी आर्मर होते तो इतने भारतीय जवानों को न गंवानी पड़ती जान, सेना को इसकी बहुत जरूरत है