नई दिल्ली: संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) समर्थित दि लाडली मीडिया अवार्ड्स के 11वें संस्करण में लैंगिक संवेदनशीलता (क्षेत्रीय) 2019-2020 की कैटेगरी में यह पुरस्कार अपनी रिपोर्ट के लिए दिप्रिंट की पत्रकार ज्योति यादव और हिना फातिमा ने जीता.
पुरस्कारों की औपचारिक घोषणा आज 19 नवंबर की शाम 5.30 बजे ऑनलाइन आयोजित एक समारोह में की गई.
इस वर्ष पुरस्कार समारोह के मुख्य अतिथि स्वतंत्र पत्रकार फेय डिसूजा थे, जबकि गेस्ट ऑफ ऑनर भारत में यूएनएफपीए इंडिया के प्रतिनिधि श्रीराम हरिदास थे.
यह लगातार दूसरा वर्ष है जब दिप्रिंट के पत्रकारों को इस पुरस्कार के लिए चुना गया. फ़ातिमा ने एक डिजिटल मीडिया संगठन ‘फेमिनिज्म इन इंडिया’ पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट ‘महिला विरोधी है ऑनलाइन शिक्षा’ के लिए यह पुरस्कार जीता.
यह लगातार दूसरा साल है जब ज्योति यादव ने यह पुरस्कार जीता है. इस साल उन्होंने अपनी स्टोरी—’लॉकर रूम बॉयज टू आईटी सेल मेन : इंडियाज रेप कल्चर ग्रो विद शेम ऑर कॉन्सीक्वेंसेस’—के लिए पुरस्कार जीता. उन्हें अपनी दो खबरों के लिए ‘जूरी एप्रीसिएशन साइटेशन’ से भी सम्मानित किया गया जो ‘कैसे एक महिला अधिकारी ने एक साल से टॉयलेट में बंद 38 वर्ष रामरती को किया रेस्क्यू’ और ‘ग्रामीण भारत: घूंघट के भीतर से कैसी दिखती है डिजिटल दुनिया’ शीर्षक से छपी थीं.
पिछले साल फ़ातिमा खान, जो उस समय दिप्रिंट के साथ थीं, ने 23 वर्षीय एक युवती के कथित बलात्कार और हत्या पर अपनी कवरेज के लिए यह पुरस्कार जीता था, जिसे दिसंबर 2019 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में जिंदा जला दिया गया था. उन्हें यह पुरस्कार वेब न्यूज रिपोर्ट की श्रेणी में मिला था.
‘कोई रोएगा नहीं और फिर सब्र का बांध टूट गया-उन्नाव के गांव ने ‘दुष्कर्म’ पीड़िता को कैसे दी अंतिम विदाई’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट न केवल अपराध पर गहन पड़ताल करती थी, बल्कि इसमें जाति, लिंग और राजनीति के आधार पर गांव की स्थिति का भी विश्लेषण किया गया था जिन्होंने कई घटनाओं की कड़ी को अंतत: एक त्रासदी में तब्दील कर दिया था.
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हाशिए पर पड़े लोगों के मुद्दे सामने लाने की जरूरत
ज्योति यादव ने पिछले साल अपने वेब फीचर ‘हरियाणवी मर्दों’ के एहसान तले दबी औरतें जिनकी अपनी पहचान खो गई’ के लिए पुरस्कार जीता था.
उन्होंने कहा, ‘इस साल रेप कल्चर पर मेरे ऑपिनियन पीस को यह पुरस्कार मिला है. किसी ऐसे इंसान के तौर पर, जो हरियाणा के गांव में पैदा हुआ और पला-बढ़ा हो और केवल बंद दरवाजों के पीछे से ही ग्राम पंचायत की बैठकों को देख सकता हो, मैं वास्तव में खुद को बहुत सशक्त महसूस करती हूं कि 21वीं सदी की रिपोर्टर के तौर पर सार्वजनिक विमर्श में योगदान दे पा रही हूं.’
हिना फातिमा की रिपोर्ट बताती है कि कोविड के समय ऑनलाइन शिक्षा का चलन बढ़ने से कैसे महिलाओं के लिए पढ़ना मुहाल हो गया है.
हिना फातिमा का कहना है, ‘आज हम देख रहे हैं कैसे राजनीतिक विमर्श पत्रकारों को प्रभावित कर रहा है और कैसे पत्रकारिता के सिद्धांतों को ताक पर रखा जा रहा है. इसलिए आज यह जरूरी हो गया है कि हाशिये पर रहने वाले, गरीब, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाओं के मुद्दों को मुख्यधारा की मीडिया का हिस्सा बनाया जाए और जमीनी रिपोर्टिंग के जरिए उनकी सच्चाई को जन-जन तक पहुंचाया जाए.’
उन्होंने कहा, ‘यह पत्रकारों का काम है. हमें ग्राउंड रिपोर्टिंग करनी चाहिए और लोगों से जुड़े मुद्दों को सामने लाने और पत्रकारिता के सिद्धांतों को जिंदा रखने में लगातार जुटे रहना चाहिए.’
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