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Friday, 22 November, 2024
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रिज़र्वेशन की लड़ाई पूरी हुई, अब अनरिज़र्व सीटों की जंग

रिजर्व कैटेगरी खासकर, एससी, एसटी और ओबीसी कैंडिडेट का अनरिजर्व कैटेगरी में 'घुस आना' बहुत बड़ी 'आफत' के रूप में सामने आया है और इससे सवर्ण जातियों में तनाव और चिंता पैदा हो रही है.

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मेडिकल एडमिशन के लिए इस साल आयोजित नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट, NEET के अंडरग्रेजुएट यानी UG के लिए हुई परीक्षा ने एक स्पष्ट संदेश दिया है, जिसकी गूंज दूर तक जाएगी. वह संदेश ये है कि अन्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति और जनजाति के स्टूडेंट्स किसी बाढ़ की तरह चले आ रहे हैं और देश के उच्च शिक्षा संस्थानों के दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं. यथास्थितिवादियों के लिए इस बाढ़ को रोक पाना संभव नहीं है, इसलिए उनकी पूरी कोशिश ये होगी कि इनको शिक्षा संस्थानों में घुसने न दिया जाए. ये सिर्फ NEET में नहीं, बल्कि अन्य परीक्षाओं और सरकारी नौकरियों में भी हो रहा है.

तो शुरू से शुरू करते हैं. कोलकाता से प्रकाशित अखबार द टेलीग्राफ ने नेशनल टेस्टिंग एजेंसी द्वारा जारी NEET-UG के रिजल्ट का विश्लेषण करके बताया है कि ओबीसी के 83%, एससी के 80% और ST के 77% कैंडिडेट ने सामान्य यानी जनरल श्रेणी के उम्मीदवारों के पास होने के लिए न्यूनतम 50th पर्सेंटाइल कट ऑफ से बेहतर प्रदर्शन किया.

परसेंट की जगह अगर सीधे संख्या को देखें तो पता चलेगा कि ये ‘समस्या’ कितनी गंभीर है.

इस साल 15.44 लाख कैंडिडेट ने NEET-UG की परीक्षा दी. इनमें से 8.7 लाख पास हुए. रैंक और तमाम और आधार पर इनमें से एक लाख के आसपास कैंडिडेट्स को देश भर के मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में MBBS और BDS कोर्स में एडमिशन मिलेगा.

पास होने वाले 8.7 लाख कैंडिडेट्स में से 7.71 लाख कैंडिडेट ऐसे रहे जिन्होंने इस परीक्षा को जनरल कैटेगरी के लिए निर्धारित कट ऑफ से ज्यादा नंबर लाकर पास किया. अब चौंकाने वाली बात. जनरल कट ऑफ से ज्यादा नंबर लाने वालों में से 4.52 लाख कैंडिडेट ओबीसी, एससी और एसटी कैटेगरी के हैं. इनमें से 3.29 लाख तो सिर्फ ओबीसी कैंडिडेट हैं. वहीं, अनरिजर्व और EWS कटेगरी में अप्लाई करने वाले सिर्फ 3.18 लाख कैंडिडेट ही जनरल कट ऑफ से ज्यादा नंबर ला पाए.

ये आंकड़ा बताता है कि मेरिट और जाति का रिश्ता बताने वाली कहानियां कितनी फर्जी और तथ्यहीन हैं.


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रिजर्व कटेगरी का मेरिट

एक और आंकड़ा. इस साल जारी Civil Services Exam 2020 के रिजल्ट को देखें तो पाएंगे कि ओबीसी, ईडब्ल्यूएस, एससी और एसटी कैटेगरी के 75 कैंडिडेट ऐसे हैं, जिन्होंने अनरिजर्व मेरिट लिस्ट में जगह बनाई है. ये कुल सलेक्शन का लगभग 10% है और इसे ठीकठाक संख्या माना जाएगा. इन 75 कैंडिडेट में 55 ऐसे हैं, जिन्होंने ओबीसी कटेगरी से अप्लाई किया था. (ये बात और है कि यूपीएससी के एक अजीब से नियम के तहत इनमें से ज्यादातर कैंडिडेट को वापस अपनी-अपनी कैटेगरी में भेज दिया जाएगा. लेकिन उसकी बात आगे करेंगे).

रिजर्व कैटेगरी खासकर, एससी, एसटी और ओबीसी कैंडिडेट का अनरिजर्व कैटेगरी में ‘घुस आना’ बहुत बड़ी ‘आफत’ के रूप में सामने आया है और इससे सवर्ण जातियों में तनाव और चिंता पैदा हो रही है. कॉलेज एडमिशन और सरकारी जॉब में ये प्रवृत्ति सिर्फ केंद्र नहीं, बल्कि राज्य स्तर पर भी देखी जा रही है.

मिसाल के तौर पर, यूपी में बेसिक शिक्षकों की नियुक्ति के मामले में ये आरोप लगा है कि 5,000 से ज्यादा ओबीसी कैंडिडेट ने जनरल मेरिट में जगह बनाई है, लेकिन उन्हें ओबीसी कैटेगरी में ही डाल दिया गया है और इस तरह 5,844 ओबीसी कैंडिडेट टीचर नहीं बन पा रहे हैं. ये संख्या इससे ज्यादा भी बताई जा रही है. इस संदर्भ में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और कई विधायकों और सांसदों ने भी सवाल उठाए हैं. अगर सही प्रक्रिया अपनाई जाए तो अनरिजर्व सीट का बड़ा हिस्सा उन कैंडिडेट से भर जाएगा, जिन्होंने ओबीसी कैटेगरी से अप्लाई किया है.


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अनरिजर्व कैटेगरी का मतलब सवर्ण कैटेगरी नहीं

अनरिजर्व कैटेगरी में एससी, एसटी और ओबीसी एप्लिकेंट्स की एंट्री मुख्य रूप से तीन रास्तों से हो रही है. एक, इन कैटेगरी के कुछ या कई कैंडिडेट बेहतर परफॉर्म करते हुए अनरिजर्व कट ऑफ से ज्यादा नंबर ले आते हैं और इस तरह अनरिजर्व लिस्ट में जगह बना लेते हैं (ऐसे तीन उदाहरण मैंने ऊपर बताए हैं).

– दो, ओबीसी लिस्ट में शामिल जातियों के जिन कैंडिडेट के परिवार क्रीमी लेयर में आ गए हैं, उन्हें अनरिजर्व कैटेगरी में अप्लाई करना होता है क्योंकि रिजर्वेशन सिर्फ नॉन क्रीमी लेयर ओबीसी के लिए ही लागू है. मिसाल के तौर पर, वर्तमान केंद्रीय स्टील मंत्री आरसीपी सिंह IAS अफसर थे और फिर सांसद बने. वे कुर्मी जाति से हैं, पर क्रीमी लेयर के नियमों के कारण उनका परिवार ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं ले सकता. इसलिए उनकी बेटी लिपि सिंह ने अनरिजर्व कैंडिडेट के तौर पर सिविल सर्विस के लिए अप्लाई किया और IAS बनीं.

– और तीन, जब किसी एक राज्य का एससी, एसटी या ओबीसी कैंडिडेट किसी और राज्य की नौकरी के लिए अप्लाई करता है, तो उसे रिजर्व कैटेगरी में नहीं गिना जाता. मिसाल के तौर पर, दिल्ली में एसटी की कोई लिस्ट ही नहीं है. इसलिए जब किसी और राज्य का एसटी, दिल्ली सरकार की किसी नौकरी के लिए अप्लाई करेगा या करेगी तो उसे अनरिजर्व कैटेगरी में ही माना जाएगा.

कोई ये कह सकता है कि देश में एससी और एसटी की आबादी लगभग 25% है और ओबीसी भी आखिरी गणना के मुताबिक कम से कम 52% हैं, जबकि केंद्र की नौकरियों और एडमिशन में इनका सम्मिलित कोटा तो सिर्फ 49.5% है. इसलिए अगर इनमें से कुल लोग बाकी बची 51.5% (ईडब्ल्यूएस का 10% कोटा लागू होने के बाद अब 41.5%) सीटों पर आ भी जाते हैं तो क्या समस्या है? वैसे भी अनरिजर्व सीटें सवर्णों के लिए रिजर्व नहीं हैं. लेकिन यहां एक समस्या है. दरअसल प्रारंभ से ही ये धारणा रही है कि अनरिजर्व सीटें तो जनरल सीटें हैं. यानी, जनरल का मतलब सवर्ण मान लिया गया है. इसलिए, जब भी रिजर्व कैटेगरी का कोई कैंडिडेट किसी भी रास्ते से अनरिजर्व सीट ले लेता है, तो ये बात कई लोगों को असहज करती है.

दरअसल ये समस्या इसलिए पैदा हुई है क्योंकि लोकमान्यता में जनरल या अनरिजर्व सीटों को सवर्ण सीट मान लिया जाता है. ये सोच इस तरह काम करती है कि एससी, एसटी और ओबीसी के कैंडिडेट्स को तो अपनी कैटेगरी में जगह मिल ही चुकी है. अब अगर वे अनरिजर्व कैटेगरी में भी आ जाएंगे तो सवर्ण कैंडिडेट कहां जाएंगे? उनके लिए क्या बचेगा? दरअसल परेशानी इसलिए है क्योंकि सवर्ण कैंडिडेट ओपन सीटों पर एससी, एसटी और ओबीसी के साथ कंपटीशन नहीं करना चाहते.

ये समस्या ओबीसी कोटा लागू होने के बाद बढ़ी है. एससी और एसटी का कोटा संविधान लागू होने के बाद से है और इसे स्वीकार्यता मिल चुकी है. इस आरक्षण के पीछे लंबा संघर्ष है और ये राष्ट्र निर्माण के दौरान हुए एक प्रमुख समझौते– पूना पैक्ट- का प्रतिफल है. साथ ही, एससी और एसटी सामाजिक रूप से ज्यादा कमजोर और पीछे हैं. इस कारण से, नौकरियों और शिक्षा में उनके आने से जातीय वर्चस्व को कोई निर्णायक चुनौती नहीं मिलती. लेकिन ये बात ओबीसी के लिए नहीं कही जा सकती.

जब तक सिर्फ एससी और एसटी का कोटा था, तब तक जनरल सीटों पर ज्यादातर सवर्ण जातियों के लोग आते थे और ओबीसी को नाम मात्र का हिस्सा मिलता था. दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन ने 1980 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों से ये सूचना मिली है कि केंद्र सरकार की ग्रुप A की नौकरियों में पिछड़ी जाति के अफसरों की संख्या सिर्फ 4.69% है (मंडल कमीशन रिपोर्ट, अध्याय 9, अनुच्छेद 48).

यानी यहां तक सवर्णो के लिए ‘सब कुछ ठीक’ चल रहा था. 1990 के शुरुआती वर्षों में, मंडल कमीशन के तहत केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू होते ही 27% सीटें एक झटके में सवर्णों के हिस्से से बाहर चली गईं. एससी, एसटी को भी जोड़ दें तो लगभग आधी नौकरियां सवर्णों की पहुंच के बाहर हो गईं.

सवर्णों के नजरिए से देखें तो ये अपने आप में तकलीफदेह स्थिति थी. ये समस्या 2006 में और गंभीर हो गई, जब 27% ओबीसी आरक्षण केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में भी लागू हो गया. कोर्ट से उन्हें कोई बड़ी राहत नहीं मिल पाई, क्योंकि ओबीसी आरक्षण के लिए राष्ट्रीय सहमति बन चुकी थी. इसके बाद अगली चुनौती थी, 51.5% सीटों को अपने लिए सुरक्षित करना ताकि इसमें किसी तरह का ‘अतिक्रमण’ न हो.

इसके लिए मुख्य रूप से छह रणनीतियां अपनाई गईं:

एक, खाली पदों को न भरना क्योंकि नई नियुक्तियों का मतलब है लगभग आधी सीटें एससी, एसटी ओबीसी के खाते में डाल देना. नई नियुक्तियां न होने से यूं तो सवर्णों को भी नुकसान होता है क्योंकि उनको भी नौकरियां नहीं मिलती हैं. लेकिन उनके लिए अच्छी बात ये है कि यथास्थिति कायम रहती है. यथास्थिति का मतलब है उस दौर का जारी रहना जब नौकरशाही में सवर्ण वर्चस्व कायम था. इस साल के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार में लगभग 9 लाख पद इस समय खाली हैं.

दो, खाली पदों में से अनरिजर्व सीटों को तो भर लेना, लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी कैंडिडेट्स को नॉट फाउंड सुटेबल यानी पद के अयोग्य करार देना. कई बार और कुछ साल तक इस तरह से खाली रखे गए पद बाद में अनरिजर्व घोषित करके भर लिए जाते हैं. कई बार ऐसे पदों को अस्थायी या ठेके का पद घोषित करके भी रिजर्वेशन लागू करने से बचा जाता है.

तीन, अगर एससी, एसटी, ओबीसी कैंडिडेट ने बेहतर परफॉर्म करके अनरिजर्व मेरिट लिस्ट में जगह बना ली है, तो भी उन्हें जनरल कैंडिडेट न मानना. ऐसा करने पर कई बार ओबीसी कैटेगरी का कट ऑफ अनरिजर्व कैटेगरी से ऊपर चला जाता है. ऐसा राजस्थान, रेलवे, उत्तर प्रदेश और दिल्ली समेत कई नियुक्तियों में होता देखा गया है. हालांकि ये सुप्रीम कोर्ट के 2019 के आदेश का उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि ‘हर कैंडिडेट जनरल कैटेगरी का है और इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वह एससी, एसटी या ओबीसी है.’

चार, कुछ ऐसा उपाय करना कि जनरल मेरिट में सिलेक्ट हुए कैंडिडेट खुद ही अपनी कैटेगरी में लौट जाएं. NEET और JEE जैसी परीक्षा पास करने के बाद जब जनरल मेरिट में चुने गए एससी, एसटी, ओबीसी कैंडिडेट के सामने ये विकल्प होता है कि अगर वे अपनी कटेगरी में रहें तो उन्हें बेहतर या पसंद का कॉलेज मिलेगा. ये विकल्प उन्हें अपनी कटेगरी में लौटने के लिए मजबूर कर देता है. सिविल सर्विस में भी सर्विस अलोकेशन के नाम पर यही होता है. इसके लिए यूपीएससी ने Civil Services Examination Rule 16 (4) & (5) बनाया है. इस वजह से यूपीएससी हर साल एक कंसोलिडेटेड रिजर्व लिस्ट बनाता है. इसका उद्देश्य एससी, एसटी और ओबीसी कैंडिडेट के अपनी कैटेगरी में लौट जाने के बाद खाली हुई सीटों को अनरिजर्व कैंडिडेट से भरना होता है.

पांच, जिस भी कैंडिडेट ने आवेदन करने, परीक्षा देने या इंटरव्यू की पूरी प्रक्रिया में किसी भी स्तर पर रिजर्व कैटेगरी को मिलने वाली सुविधा या छूट या कट ऑफ का इस्तेमाल किया है, वह अगर परीक्षा का टॉपर भी हुआ या हुई तो उसे अपनी कैटेगरी में ही गिना जाएगा. मिसाल के तौर पर टीना डाबी 2015 की सिविल सर्विस परीक्षा की ओवरऑल टॉपर थीं, लेकिन चूंकि उन्होंने प्रारंभिक परीक्षा एससी कट ऑफ का लाभ लेकर पास की थी, इसलिए उनका नाम आखिरी लिस्ट में एससी में ही गिना गया.

छह, ईडब्ल्यूएस कोटा भी दरअसल इसी कोशिश के तहत है, ताकि कम से कम 10% सीटों को तो इस तरह सुरक्षित कर लिया जाए ताकि वहां एससी, एसटी, ओबीसी का कोई न घुसे. इसलिए संविधान संशोधन कानून में ईडब्ल्यूएस की परिभाषा में ही ये लिख दिया गया है कि इसमें एससी, एसटी, ओबीसी शामिल नहीं होंगे.

कुल मिलाकर देखा जाए, तो वर्चस्व को कायम रखने और वर्चस्व को तोड़ने के लिए दांव पेंच जारी हैं. ये खेल अभी खत्म नहीं हुआ है.

(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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