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Thursday, 21 November, 2024
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EWS आरक्षण का आधार कांग्रेस ने बनाया, सिन्हो कमीशन की रिपोर्ट अब बीजेपी के काम आ रही है

मोदी सरकार अभी तक ऐसे आंकड़े देने में असमर्थ रही है जिससे ईडब्ल्यूएस के लिए 10 फीसदी कोटे का आधार बताया जा सके.

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ईडब्ल्यूएस यानी सवर्ण गरीबों के आरक्षण को बीजेपी अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखती है. 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ईडब्ल्यूएस आरक्षण लाकर बीजेपी ने सवर्ण तुष्टीकरण का बड़ा दांव चला, जो सफल भी रहा. लेकिन ईडब्ल्यूएस यानी गैर-एससी/एसटी/ओबीसी गरीबों को दिए गए इस आरक्षण की तह तक जाएंगे तो पता चलेगा कि इसका आधार कांग्रेस ने बनाया था. मंडल कमीशन की सिफारिश लागू करने की वीपी सिंह की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस लगातार आर्थिक आधार पर सवर्णों के लिए आरक्षण की जमीन तैयार कर रही थी और इस दिशा में सबसे बड़ा कदम था – सिन्हो आयोग या सिन्हो कमीशन. ये जरूर है कि इसका इस्तेमाल अब बीजेपी कर रही है.

ईडब्ल्यूएस कोटा अब कानूनी समीक्षा के दौर में है. मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है कि मेडिकल एंट्रेंस यानी नीट में ये कोटा दिया जा सकता है या नहीं है. ये मामला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में ही चल रहे उस बड़े मामले (जनहित अभियान बनाम भारत सरकार) से अलग है, जिसमें ईडब्ल्यूएस कोटा की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है. लेकिन चूंकि नीट में ईडब्ल्यूएस कोटे का मामला आ गया है, इसलिए यहां भी इस पर विचार किया जाएगा. हालांकि कोर्ट इस समय ईडब्ल्यूएस में सिर्फ आमदनी की सीमा (8 लाख रुपए प्रति वर्ष) पर ही सवाल उठा रहा है.

ये बहुत दिलचस्प है कि केंद्र सरकार ने इनकम लिमिट के लिए तर्क के तौर पर यूपीए सरकार द्वारा गठित सिन्हो कमीशन रिपोर्ट को आधार बनाकर अपनी एफिडेविट दाखिल की है. इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में एक जगह ये लिखा है कि सवर्ण (जनरल कैटेगरी) गरीबों की पहचान करने के लिए आय सीमा वही रखी जा सकती है, जो ओबीसी नॉन क्रीमी लेयर की सीमा है.

इस तरह 2010 से सरकार के पास पड़ी सिन्हो कमीशन की रिपोर्ट एक बार फिर से चर्चा में आ गई है. जनरल कैटेगरी के गरीबों के लिए आयोग का गठन तो 6 जुलाई 2004 में हो गया था, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने 10 जुलाई 2006 में इसका पुनर्गठन कर मेजर जनरल (रिटायर्ड) एस.आर. सिन्हो को इसका चेयरमैन नियुक्त किया. इस कमीशन के दूसरे मेंबर नरेंद्र कुमार बनाए गए जबकि मेंबर सेक्रेटरी के पद पर महेंद्र सिंह को नियुक्त किया गया.


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सिन्हो कमीशन ने नहीं की आरक्षण की सिफारिश

केंद्र सरकार ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बचाव के लिए जिस सिन्हो कमीशन का सहारा ले रही है, उसने इस वर्ग की पहचान के लिए आधार जरूर बताया है, लेकिन अपनी रिपोर्ट में इसने इस वर्ग को आरक्षण देने की न तो वकालत की है और न ही सिफारिश. बल्कि उसने कहा है कि ऐसा आरक्षण दिया नहीं जा सकता.

आयोग की रिपोर्ट के पेज 20 पर लिखा गया है – आयोग ने उपर्युक्त विमर्श के बाद आयोग की ये संवैधानिक और कानूनी समझ बनी है कि आर्थिक आधार पर निर्धारित किए गए ‘पिछड़े वर्ग’ को नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में दाखिले में आरक्षण नहीं दिया जा सकता.

दरअसल, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना एफिडेविट पेश करते समय सिन्हो कमीशन की रिपोर्ट को बहुत चुनिंदा तरीके से उद्धृत किया है. आमदनी की लिमिट के मामले में सिन्हो कमीशन की सिफारिश सिर्फ उतनी नहीं है, जो केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में दर्ज किया है. सिन्हो कमीशन में कहा गया है कि – जनरल कैटेगरी के सभी BPL य़ानी गरीबी रेखा से नीचे के परिवार को आर्थिक रूप से पिछड़ा माना जाए. इसके अलावा जनरल कैटेगरी के जिन परिवारों की आमदनी इनकम टैक्स लिमिट (रिपोर्ट लिखे जाते समय 1,60,000 रुपए सालाना) से कम है उनको भी आर्थिक रूप से पिछड़ा माना जाए.

सिन्हो कमीशन ने सवर्ण गरीबों को आरक्षण की सिफारिश नहीं करने के पीछे सबसे बड़ी वजह 50% की लिमिट को माना है. इसके अलावा आयोग ने ये भी माना है कि 1931 की जनगणना के बाद के जाति आधारित आंकड़े उपलब्ध न होने के कारण इस वर्ग की पहचान करने में उसे काफी दिक्कतें आईं. आयोग ने स्वीकार किया कि आरक्षण देने के लिए सिर्फ आर्थिक आधार पर इस वर्ग की पहचान संभव नहीं है.

2019 में दबे पांव आया ईब्ल्यूएस आरक्षण

आर्थिक आधार पर खास जातियों और समूहों को आरक्षण देने के कानून पर आज चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि इस बारे में जब कानून बन रहा था, तो संसद में समुचित चर्चा नहीं हो पाई. ये भारत के संवैधानिक इतिहास में सबसे तेजी से पारित किया गया संविधान संशोधन है. संविधान (124वां संशोधन) विधेयक 8 जनवरी, 2019 को लोकसभा में पेश हुआ. उसी दिन ये मंजूर भी हो गया और तेजी देखिए कि इसी दिन ये विधेयक राज्यसभा में भी पेश कर दिया गया. अगले ही दिन यानी 9 जनवरी, 2019 को इसे राज्यसभा में पारित कर दिया गया और राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद 12 जनवरी को ये भारत सरकार के गजट में छपकर लागू भी हो गया. ज्यादातर दलों को तो संभलने का भी मौका नहीं मिला कि हो क्या रहा है. वहीं कुछ दल ऐसे थे, जो खुश थे, कि उनकी इच्छा को बीजेपी पूरा कर रही है.

ये काम इस तेजी में हुआ कि सरकार ने खुद अपनी तैयारी भी नहीं की थी. 11 दिसंबर, 2019 को राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री ने सदन को सूचित किया कि ‘आर्थिक रूप से गरीब वर्गों के लिए मंत्रालय या सरकार ने कोई सेंसस या सर्वे नहीं कराया है, क्योंकि ये आरक्षण तो जनवरी, 2019 में ही लागू हुआ है.’ यानी सरकार ने इस कानून को लाने से पहले या बाद में इस संबंध में कोई आंकड़ा नहीं जुटाया. इस बात तक का पता नहीं लगाया गया है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण जिनको दिया जाना है उनकी संख्या कितनी है और आरक्षण 10% ही क्यों दिया जा रहा है.


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कांग्रेस की जिम्मेदारी, कितनी भारी

ईडब्ल्यूएस आरक्षण के समर्थक इसके लिए बीजेपी को श्रेय देते हैं, जबकि ईडब्ल्यूएस आरक्षण के विरोधी बीजेपी की आलोचना करते हैं. लेकिन समर्थक और विरोधी दोनों ही इस मामले में कांग्रेस की भूमिका को नजरअंदाज कर रहे हैं. मेरा तर्क है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का मूल विचार कांग्रेस का था. कांग्रेस के नेताओं और प्रधानमंत्रियों – राजीव गांधी, नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने आर्थिक आधार पर आरक्षण के विचार को आगे बढ़ाया और इसे आधार प्रदान किया. यहां तक कि कांग्रेस ने इसे अपने घोषणापत्र का हिस्सा भी बनाया. इतिहास का ये संयोग है कि इस पूरे दौर में कांग्रेस की कभी बहुमत की सरकार नहीं बनी और वह ये आरक्षण दे नहीं पाई. ये काम बीजेपी के हिस्से आया. और जब ये लागू हुआ तो कांग्रेस के पास इसका स्वागत और समर्थन करने के अलावा कुछ करने के लिए बचा ही नहीं था.

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की जड़ें ओबीसी कोटा और मंडल कमीशन की प्रतिक्रिया में छिपी हैं. एससी और एसटी आरक्षण को भारतीय समाज का हर वर्ग और राजनीतिक शक्तियां काफी हद तक स्वीकार कर चुकी हैं. लेकिन ओबीसी आरक्षण ने नई हलचल पैदा की है. तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 7 अगस्त, 1990 को मंडल कमीशन की एक सिफारिश यानी केंद्र सरकार की नौकरियों में 27% ओबीसी आरक्षण लागू करने की घोषणा की. कांग्रेस उस समय विपक्ष में थी और कांग्रेस के नेता राजीव गांधी ने मंडल कमीशन लागू करने के विरोध में लोकसभा में 6 सितंबर, 1990 को लंबा भाषण दिया. इसी भाषण में उन्होंने आर्थिक आधार की बात की. उन्होंने कहा कि – ‘सवाल ये है कि आप किस वर्ग की मदद करना चाहते हैं? क्या आप किसी खास वर्ग में उन लोगों की मदद करना चाहते हैं, जो पहले से अमीर हैं? अगर आप किसी वर्ग में किसी की मदद करना चाहते हैं तो वो मदद वहां सबसे गरीब लोगों को मिलनी चाहिए.’ इस भाषण में उन्होंने प्रतिनिधित्व के सवाल को पूरी तरह छोड़ दिया.

इसके साथ ही आरक्षण की बहस में आर्थिक आधार का प्रवेश हुआ. यही बात आगे चलकर ओबीसी कोटे में क्रीमी लेयर लगाने का आधार बनी, जिसके कारण ओबीसी कोटा कभी भी पूरी तरह लागू नहीं होता और यही बात ईडब्ल्यूएस आरक्षण का भी आधार है. ऐसा करते हुए मूल संविधान के अनुच्छेद 16(4) की अनदेखी कर दी गई जो आरक्षण के लिए दो बुनियादी शर्त रखता है- सामाजिक पिछड़ापन और प्रतिनिधित्व का अभाव.

पहली बार ईडब्ल्यूएस आरक्षण भी कांग्रेस ने ही देने की कोशिश की. मंडल कमीशन लागू करने के बाद बीजेपी और कांग्रेस ने वीपी सिंह सरकार के खिलाफ मतदान किया और वो सरकार गिर गई. उसके बाद आई नरसिंह राव सरकार ने 25 सितंबर, 1991 को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण देने के लिए आदेश जारी किया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इंद्रा साहनी केस में फैसला देते समय इस आरक्षण को खारिज कर दिया और कहा कि – ‘आर्थिक आधार पर कमजोर वर्ग के लोगों की पहचान नहीं हो सकती.’

लेकिन सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का कांग्रेस का प्रोजेक्ट यहां नहीं रुका. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार ने 10 जुलाई, 2006 में सिन्हो कमीशन बनाकर इस आरक्षण के लिए आधार बनाने की कोशिश की. आयोग को कई बार कार्य विस्तार दिया गया. आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

जुलाई 2006 में इस आयोग के गठन का तात्कालिक कारण ये था कि चार महीना पहले यानी 5 अप्रैल, 2006 को तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा कर दी. ये कोई नई घोषणा नहीं थी. दरअसल 2005 में ही ये संविधान संशोधन हो चुका था कि उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण दिया जाएगा. अर्जुन सिंह ने उस संविधान संशोधन को जमीन पर उतारने की घोषणा की थी. लेकिन इसके खिलाफ भारी विरोध खड़ा हो गया. उत्तर भारत के कई शहरों में डॉक्टरों और मेडिकल स्टूडेंट्स इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए और उन्होंने मरीजों का इलाज बंद कर दिया. दो कैबिनेट मंत्रियों कपिल सिब्बल और कमलनाथ ने ऐसे बयान दिए, जिनसे आरक्षण विरोधियों का हौसला काफी बढ़ गया.

सरकार दबाव में थी. इसलिए उसने सवर्ण भावनाओं को सहलाने के लिए सवर्ण गरीबों के लिए सिन्हो कमीशन गठित कर दिया. वही रिपोर्ट अब बीजेपी के काम आ रही है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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