पेट्रोलिंग प्वाइंट 15 से सैन्य वापसी पर चर्चा के लिए चुशुल-मोल्दो बॉर्डर मीटिंग प्वाइंट पर 10 अक्टूबर को कोर कमांडर-स्तरीय वार्ता का 13वां दौर चला लेकिन यह गतिरोध पर ही जाकर खत्म हुआ. दोनों पक्षों ने इसके लिए एक-दूसरे पर आरोप लगाते हुए कड़े शब्दों में बयान जारी किए. ऐसे में लगता तो यही है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी टकराव लगातार दूसरी सर्दियों में भी बरकरार रहने की रूपरेखा तैयार हो गई है.
दो महीने के अंतराल के बाद यह वार्ता 16 सितंबर को दुशांबे, ताजिकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के मौके पर दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद फिर से शुरू हुई थी. हालांकि, ऐसा लगता है कि इस बैठक से पहले और बाद में बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिसकी वजह से ही यह सैन्य वार्ता टूटी.
मैं यहां वार्ता टूटने के कारणों और एलएसी पर उभरती रणनीतिक स्थिति का विश्लेषण कर रहा हूं.
गतिरोध के कारण
पूर्वी लद्दाख में चीन (3) का एक स्पष्ट रणनीतिक उद्देश्य था—भारत पर अपना प्रभुत्व थोपना और ऐसा करते हुए 1959 की दावा रेखा (सीएल) को सुरक्षित करना ताकि उन क्षेत्रों में सीमा पर बुनियादी ढांचे का निर्माण रोका जा सके जहां से, भले ही संभावनाएं कितनी ही दूर क्यों न हो, अक्साई चीन और उन अन्य इलाकों के लिए कोई खतरा न उत्पन्न हो सके जिन पर 1962 के युद्ध से पहले या उसके दौरान पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने कब्जा कर लिया था. रणनीतिक तौर पर हैरत में डालते हुए चीन ने अप्रैल-मई 2020 के अपनी पैंतरेबाजी के जरिये अपना ये लक्ष्य काफी आसानी से साध भी लिया था.
चीन ने देपसांग मैदानों के आधे दक्षिणी हिस्से में 600-800 वर्ग किलोमीटर इलाके पर नियंत्रण हासिल कर लिया, जिससे पेट्रोलिंग पॉइंट (पीपी) 10, 11, 12 और 13 तक हमारी पहुंच बाधित हो गई. चांगचेनमो सेक्टर में पीएलए ने 1959 की सीएल से आगे घुसपैठ कर भारत को पीपी 15, 16, 17 और 17ए तक पहुंचने से रोक दिया. यह अतिक्रमण, दूरी के मामले में चांगलंग नाला में केवल तीन किलोमीटर और पीपी 15 और पीपी 16 क्षेत्र में चार किलोमीटर थी. हालांकि, भौगोलिक स्थितियों के कारण 30-35 किलोमीटर लंबी और 4-5 किलोमीटर चौड़ी कुग्रांग नदी घाटी तक पहुंचना हमारे लिए नामुमकिन हो गया. इसके अलावा, हॉट स्प्रिंग्स (गूगल मैप्स पर गलत तरीके गोगरा के तौर पर चिह्नित) के सामने अपने सैनिकों को तैनात करके उसने हमारा कोंगका ला, पीपी 18 तक पहुंचना बाधित कर दिया.
चीन पैंगोंग त्सो के उत्तर में फिंगर 3 तक घुस आया और उत्तर के ऊंचाई वाले इलाकों में भी पहुंच गया, इस तरह उसने हमारे करीब 40-60 किलोमीटर क्षेत्र पर नियंत्रण कायम कर लिया.
गलवान नदी में घुसपैठ मामूली ही थी—जो पीपी 14 तक थी—लेकिन वापसी के दौरान विवाद ने 15/16 जून 2020 की ‘निशस्त्र लड़ाई’ को जन्म दिया. डेमचोक के दक्षिणी क्षेत्र में चीन ने हमें चार्डिंग-निंगलुंग नाला तक पहुंचाने रोक दिया. हालांकि, यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां चीनी 1959 की दावा रेखा तक नहीं पहुंच पाए जो पश्चिम में 30 किलोमीटर दूर है.
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अपने रणनीतिक इरादों के मद्देनजर चीन का इन क्षेत्रों से हटने का कोई इरादा नहीं था. हालांकि, 29/30 अगस्त, 2020 की रात चुशुल सेक्टर में कैलाश रेंज पर कब्जा कर लेने वाली हमारी कार्रवाई चीनियों के लिए शर्मिंदगी का सबब बन गई और इसने उसे अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति में भी ला दिया. नतीजा, फरवरी में बीजिंग कूटनीतिक रूप से नई दिल्ली के साथ पैंगोंग त्सो के उत्तर और दक्षिण से सैन्य वापसी/तनाव घटाने के एक स्टैंड अलोन समझौते पर तैयार हो गया. इसके बाद से सैन्य वापसी/तनाव घटाने की दिशा में वस्तुतः कोई प्रगति नहीं हुई. इसके विपरीत, दोनों पक्षों ने कैंपेनिंग सीजन (अप्रैल से नवंबर) की पूरी जोरदारी से तैयारी शुरू कर दी. परस्पर संदेह की भावना ने दोनों पक्षों को सैन्य तैनाती और बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए बाध्य किया.
अगस्त में गोगरा से सैन्य वापसी का समझौता मात्र संकेतवादी था. हमारी सरकार ने बेहद कम सच्चाई उजागर की और चीनियों की तरफ से कोई बयान नहीं दिया गया. बाद में पता चला (6) समझौते में केवल पीपी 17 से सैन्य वापसी की बात थी न कि पूरी तौर पर चांग चेन्मो सेक्टर से. सैन्य वापसी का यह प्रस्ताव स्पष्ट तौर पर कुछ आश्वस्त भी नहीं करता है, क्योंकि क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए पीएलए कभी भी वापसी कर सकती है. पीपी 15 और पीपी 16 में घुसपैठ के अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे को इसमें शामिल नहीं किया गया था. भारत शायद एक विशाल बफर जोन के लिए सहमत नहीं था जिसमें पीपी 15,16,17 और 17ए और पूरी कुग्रांग नदी घाटी शामिल थी. नतीजतन, दोनों पक्षों के अपना रुख कठोर कर लेने में कुछ भी हैरान करने वाला नहीं था.
चीनी सैनिकों ने पीछे हटने से पहले 30 अगस्त को बाराहोती सेक्टर में घुसपैठ करके और एक पुल और खाली बंकरों को नुकसान पहुंचाकर अपने इरादे साफ कर दिए थे. यह घुसपैठ प्रतीकात्मक थी क्योंकि यह 1954 में पहली बार चीनी घुसपैठ वाली जगह थी. भारत में इस घटना की जानकारी सितंबर के अंत में सामने आई. इसके कुछ ही समय बाद 28 सितंबर को तवांग सेक्टर में बुम ला से 12-16 किलोमीटर पूर्व में एक और घुसपैठ की खबर आई, जिसमें भारतीय सेना की तरफ से 150-200 सैनिकों को कुछ समय के लिए हिरासत में ले लिया गया था. भारत में कुछ टीवी चैनलों की तरफ से ‘हिरासत’ शब्द का इस्तेमाल करने और इसे एक बड़ी जीत जैसा दर्शाने से भड़का चीनी मीडिया भी इस घटना के खंडन में एक सीमा से आगे चला गया. दरअसल, ग्लोबल टाइम्स ने गतिरोध बढ़ने की भविष्यवाणी करते हुए कह डाला—’विशेषज्ञों ने चेताया है कि डोंगझांग की घटना सीमा वार्ता के वातावरण में जहर घोल देगी.’
बस इतना ही काफी नहीं था, गलवान घाटी की झड़प को लेकर मूलत: चीन की तरफ की कुछ फोटो और वीडियो ट्विटर पर साझा किए गए. इनमें से एक में 37 बुरी तरह घायल भारतीय सैनिकों को पीओडब्ल्यू (युद्धबंदियों) के तौर पर दर्शाया गया था.
10 अक्टूबर को मोल्दो में वार्ता से एक दिन पहले सेनाध्यक्ष जनरल एम.एम. नरवणे ने कहा, ‘यह चिंता का विषय है कि पूर्व में बड़े पैमाने पर हुआ निर्माण अब भी बहाल है. इसका मतलब है कि वे वहां रहने वाले हैं, लेकिन अगर वे वहां रहने वाले हैं तो फिर हम भी वहां रहने वाले हैं.’
संक्षेप में कहें तो गतिरोध एक तरह से पूर्वनिर्धारित निष्कर्ष था.
क्या रणनीतिक स्थिति उभर रही
एलएसी की मौजूदा स्थिति को रणनीतिक गतिरोध कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. चीन ने देपसांग को छोड़कर सभी क्षेत्रों में 1959 की दावा रेखा तक नियंत्रण हासिल कर लिया है. भारत में पूर्व की स्थिति बहाल कराने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और सैन्य क्षमता का अभाव है और इस हद तक, चीन ने अपना प्रभुत्व थोप दिया है और भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को घटाया है. हालांकि, इसके आगे अतिक्रमण से रोकने के लिए भारत की तरफ से भारी तैनाती और कैलाश रेंज पर कब्जे की उसकी जवाबी कार्रवाई ने चीन को रणनीतिक जीत से वंचित कर दिया है. यही नहीं दुनिया अब अमेरिका के बाद भारत को ही चीन के लिए एकमात्र अन्य गंभीर चुनौती के तौर पर देख रही है.
चीन 86-87 में सुमदोरोंग चू संघर्ष के बाद पिछले 35 सालों से जारी अपेक्षाकृत शांति को खत्म कर देने के बाद अब एक दुविधा में घिरा हुआ है. अत्यंत विषम संरचना वाले भूभाग में नतीजों की अनिश्चतता के कारण यह किसी सीमित युद्ध का जोखिम नहीं उठा सकता. उसके जैसे सुपर पॉवर के लिए निर्णायक जीत से कम कुछ भी किसी हार से कम नहीं है. वहीं, भारत की तरफ से जैसे को तैसा की तर्ज कोई कदम उठाए जाने की आशंका में वह एलएसी पर सैन्य बल नहीं घटा सकता.
1962 की तरह ही, जब चीन ने वास्तव में भारतीय सशस्त्र बलों में सुधारों के लिए बाध्य कर दिया. चीन के मुकाबले सैन्य अंतर को घटाने के लिए आधुनिकीकरण के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. यह देश प्रतीकात्मक और शाब्दिक दोनों ही अर्थों में भारत का सबसे बड़ा शत्रु है.
मैं किसी गंभीर सैन्य टकराव की कल्पना नहीं करता. दोनों पक्ष अंतत: आक्रमण के लिए आवश्यक दूरी पर स्थायी शिविरों में उचित संख्या में नियमित बलों के साथ अर्धसैनिक बलों को बनाए रखकर सीमा की निगरानी करने को तैयार हो जाएंगे. इसके लिए आईटीबीपी में 47 बॉर्डर पोस्ट का सृजन और इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स में डिवीजनों का पुनर्गठन सही दिशा में उठाया गया कदम है. भारत के लिए रक्षात्मक भूमिका में लद्दाख में एक अतिरिक्त डिवीजन इसी में अंतर्निहित है. पूर्वोत्तर की स्थिति के बारे में बहुत कुछ सार्वजनिक तो नहीं है. हालांकि, ईस्टर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल मनोज पांडे के अनुसार, ‘पूर्वी क्षेत्र में (ईस्टर लद्दाख) स्थिति बहुत ही मामूली तौर पर बदली है.’ मेरा आकलन कहता है कि बहुत खराब स्थिति में भी रक्षात्मक भूमिका में हमें मैकमोहन लाइन/एलएसी के साथ स्थायी रूप से दो डिवीजन लगानी पड़ सकती हैं.
ऊंचाई वाले इलाकों में जवानों के समक्ष पेश आने वाली चुनौतियों पर कुछ ज्यादा ही बहस हो रही है, पर मैं यह कहना चाहता हूं कि अपने जवानों का सेना पूरा ध्यान रखती है.
सभी सेनाएं यह सुनिश्चित करती हैं कि उनके जवानों को अच्छी देखभाल और तमाम सुविधाएं मिलें. दरअसल, हमें एलएसी के आसपास पर्याप्त बुनियादी ढांचे (12) के साथ सैन्य स्टेशन और टाउनशिप बनाने के इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए.
एलएसी के आसपास बढ़ी तैनाती का नतीजा यह होगा कि एलएसी खुद-ब-खुद एक ऐसी सीमा बन जाएगी जिसमें किसी सीमित युद्ध—जिसकी संभावना न के बराबर ही है—के बिना किसी बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी. वास्तव में, इससे किसी स्थायी समाधान का मंच तैयार हो सकता है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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