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Friday, 22 November, 2024
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अफगानिस्तान की नई तालिबान सरकार पर पाकिस्तान की स्पष्ट छाप है, भारत के लिए ये क्यों बुरी खबर है

हक्कानी नेटवर्क के एक अहम भूमिका संभालने के साथ, भारत के लिए लोगों से लोगों के जुड़ाव को बरकरार रखना या वहां से अपने लोगों की निकासी को पूरा करना भी एक चुनौती बन सकता है.

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नई दिल्ली: अपेक्षा की जा रही है कि तालिबान के अंतर्गत अफगानिस्तान की नई कार्यवाहक सरकार, अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले भारत के प्रति कम दोस्ताना रवैया रखेगी और देश को नई दिल्ली से दूर ले जाएगी. इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार के लिए स्थिति ज़्यादा चुनौतीपूर्ण है जिसने, कई सूत्रों के अनुसार, तालिबान सरकार को मान्यता नहीं देने का फैसला कर लिया है.

तालिबान सरकार पीएम मोदी की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति के लिए एक बड़ा झटका है, चूंकि स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान वहां अब एक कहीं ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाएगा, जबकि भारत की भूमिका घट जाने की अपेक्षा है.

सूत्रों के मुताबिक, भारत सरकार ने बुद्धिमानी के साथ काबुल में अपने दूतावास और कंधार, मज़ार-ए-शरीफ, हिरात तथा जलालाबाद में चार कॉन्सलेट्स को बंद कर दिया लेकिन अब उसके लिए लोगों से लोगों के जुड़ाव को बनाए रखना भी ‘बेहद चुनौती भरा’ हो जाएगा.

काबुल पर कब्ज़ा करने के तीन हफ्ते के बाद, मंगलवार को तालिबान ने अपनी कार्यवाहक सरकार का ऐलान कर दिया. नए कैबिनेट मंत्री सक्रिय रूप से आतंकी गतिविधियों में लिप्त रहे हैं, जिसकी वजह से उन पर संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिबंध लगाया हुआ था, जबकि बाकी एफबीआई की ‘मोस्ट वांटेड’ लिस्ट में थे.

अंतरिम प्रधानमंत्री मोहम्मद हसन अख़ुंद तालिबान संस्थापक मुल्ला उमर के मुख्य सहयोगियों में से एक थे. तालिबान के सह-संस्थापक 71 वर्षीय अख़ुंद पर यूएन ने प्रतिबंध लगाया हुआ है.

दो उप-प्रधानमंत्री, अब्दुल ग़नी बरादर और अब्दुल सलाम हनफी दोनों भी पुराने तालिबान लड़ाके हैं और दोनों यूएन की ब्लैकलिस्ट में हैं.

इसके अलावा, तालिबान ने अपनी नई टीम में खूंखार हक्कानी नेटवर्क के तीन मुख्य चेहरों को भी शामिल किया है. सूत्रों का कहना है कि इससे मोदी सरकार को काफी चिंता पैदा हो गई है, जिसका मानना है कि इस कदम से भारत का निकासी का काम खतरे में आ सकता है.


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भारत अफगानिस्तान में अपने ‘अगले कदमों’ को लेकर चिंतित

सूत्रों के मुताबिक, भारत अब अफगानिस्तान में अपने ‘अगले कदमों’ को लेकर चिंतित है, चूंकि उसने अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार में भारी निवेश किया हुआ था, जो 15 अगस्त को तालिबान के काबुल में घुसने के बाद देश छोड़कर भाग गए.

बुधवार को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और उनके रूसी समकक्ष निकोलाई पेत्रुशेव के बीच, इन्हीं मुद्दों पर विचार विमर्श हुआ और इस बात पर चर्चा हुई कि आगे चलकर मोदी सरकार अफगानिस्तान सरकार के साथ किस तरह डील करेगी.

सूत्रों ने बताया कि मीटिंग के दौरान डोभाल ने अफगानिस्तान में पाकिस्तान की बढ़ती भूमिका को लेकर चिंता जताई कि किस तरह वो देश फिर से अंतर्राष्ट्रीय आतंकी नेटवर्क्स का एक बड़ा केंद्र बन सकता है.

रूस ने कहा कि बातचीत इस रोशनी में हुई कि पीएम मोदी और राष्ट्रपति पुतिन के बीच क्या चर्चा हुई थी, जब उन्होंने 24 अगस्त को टेलीफोन पर बातचीत की थी, जो अफगानिस्तान पर केंद्रित थी.


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‘नई कैबिनेट अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के मुंह पर तमाचा’

एक्सपर्ट्स के मुताबिक, नई तालिबान कैबिनेट के गठन से साफ ज़ाहिर है कि वो पाकिस्तान से किस हद तक प्रभावित है और यही कारण है कि आईएसआई प्रमुख फ़ैज़ हमीद, पिछले हफ्ते काबुल में नज़र आए थे.

विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव और अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रहे अमर सिन्हा ने दिप्रिंट से कहा, ‘नई कैबिनेट पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के मुंह पर तमाचा है, चूंकि उसमें से 17 मंत्री यूएन की प्रतिबंधित सूची में हैं. ये कैबिनेट पाकिस्तान में बनी है और पाकिस्तान के लिए बनी है और इसका अफगानिस्तान या शासन से कोई लेना-देना नहीं है. ये किसी आतंकी शो की रैंप पर परेड जैसी ज़्यादा लगती है’.

सिन्हा ने कहा, ‘डीजी आईएसआई उसे आशीर्वाद देने और ये सुनिश्चित करने आए कि ‘उनके लोगों को’ वो सब मिल जाए, जो वो चाहते थे. सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को सरकार के मुखिया या राष्ट्र अध्यक्ष के रूप में न देखना, उनके लिए ज़रूर एक गंभीर समझौता रहा होगा’. सिन्हा ने आगे कहा कि भारत को अपने पड़ोस में आतंक और आतंकवादियों के सामान्यीकरण से भारी चिंता पैदा होनी चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘साफ ज़ाहिर है कि आतंकी संगठनों को नियंत्रित करने वाले नियम, चाहे वो यूएन के हों या अमेरिका जैसे किसी निजी देश के, सिर्फ कागज के टुकड़े साबित हुए हैं. संदेश स्पष्ट है- हर एक अपने लिए है. इस घटनाक्रम से बहुत से ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन मिलेगा, जो तालिबान में दरारों का फायदा उठाकर और ज़्यादा प्रतिनिधि पैदा करने की कोशिश कर सकते हैं’.

सिन्हा ने ये भी कहा कि तालिबान ने अंतरिम सरकार का गठन इसलिए किया है कि अफगान संविधान के अनुसार मंत्रियों को ‘कार्यवाहक’ की हैसियत से नियुक्त किया जाता है, जिनके लिए बाद में संसद से मंजूरी हासिल करनी होती है. लेकिन तालिबान के मामले में तो कोई संसद है ही नहीं, इसलिए नियुक्तियों के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय वैधता की जरूरत पड़ेगी.

इस बीच, बुधवार को अमेरिकी विदेश विभाग ने तालिबान की नई कार्यवाहक सरकार को लेकर चिंता जताई, जिसका कारण प्रमुख मंत्रियों के तौर पर नामित किए गए लोगों की ‘संबद्धता और उनका पिछला रिकॉर्ड’ है.

भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल के अनुसार, अफगानिस्तान की नई सरकार सुनिश्चित करेगी कि ‘भारत के लिए उस मुल्क के दरवाज़े कसकर बंद रहें’.

सिब्बल ने कहा, ‘अफगानिस्तान में तालिबान के सामने एक बड़ी समस्या आएगी. वो फिर से पाकिस्तान पर भरोसा कर रहे हैं और फिर से उथल-पुथल तथा आंतरिक संघर्षों में डूब जाएंगे और इस तरह आखिर में आईएसआई फिर से मजबूती के साथ अपने पैर जमा लेगी’.


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‘बातचीत करना समर्थन देना नहीं है’

लेकिन, सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के डायरेक्टर कमोडोर सी उदय भास्कर के अनुसार, भारत को अफगानिस्तान के नए शासन के साथ संपर्क बनाना चाहिए.

भास्कर ने कहा, ‘काबुल में गठित अंतरिम सरकार का झुकाव स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की ओर ज़्यादा है, इसलिए भारत और उसके प्रमुख हितों के प्रति, उसका रवैया उतना सहानुभूतिपूर्ण नहीं रहेगा. अफगानिस्तान की घरेलू राजनीति के संदर्भ में भी, इस टीम में पश्तूनों का भारी वर्चस्व है और ये समावेशी नहीं है और तालिबान ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को जिसका वचन दिया था, ये उसके बिल्कुल उलट है’.

उन्होंने कहा, ‘तालिबान के अंदर भी, प्रमुख मंत्रालय ज़्यादा कठोर और पश्चिम-विरोधी गुटों को दिए गए हैं जो कंधार में फूले-फले हैं, बजाय उनके जिनकी नुमाइंदगी दोहा में थी. इसलिए इस सरकार की कई परतें हैं. असली आज़माइश ये होगी कि वो अफगान आबादी पर कैसे शासन करते हैं और वहां के नागरिक खासकर महिलाएं उन्हें स्वीकार करती हैं या तालिबान और उनकी विचारधारा का विरोध करती हैं’.

‘भारत के नज़रिए से मेरा मानना है कि उनसे संपर्क बनाना जरूरी है. बातचीत करना समर्थन देना नहीं है. अफगानिस्तान भारत के लिए एक आज़माइश है कि क्षेत्रीय चुनौतियों के सामने वो अपनी सूझबूझ कैसे दिखाता है और हाई टेबल पर बैठने के अपने दावे को कैसे मजबूत करता है. ब्रिक्स शिखर सम्मेलन पीएम मोदी के लिए एक मौका है, जहां रूस और चीन के साथ मिलकर, वो आपसी सहमति से एक अफगानिस्तान रणनीति को आकार दे सकते हैं और सुनिश्चित कर सकते हैं कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र पर तालिबान और उनके द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों का कोई विपरीत प्रभाव न पड़े’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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