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Thursday, 25 April, 2024
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स्मारक बनाने के नाम पर सरकारी बंगले पर कब्जे की कोशिश ‘कंटेप्ट ऑफ कोर्ट’ हो सकती है

किसी बड़े नेता का निधन होने पर उनके परिजन और समर्थन अपने चहेते नेता के सरकारी रिहायशी आवासी को स्मारक बनाकर उसमे डटे रहना चाहते हैं. लेकिन न्यायपालिका के सख्त रुख के कारण अब ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है.

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सरकारी बंगलों में रहने का आकर्षण इतना अधिक होता है कि कई बार तो इसके आबंटी आवंटन की अवधि खत्म होने के बावजूद इन परिसर को खाली ही नहीं करना चाहते और अनधिकृत रूप से इनमें डटे रहते हैं. ऐसा करने वालों में नेता, कलाकार और दिवंगत नेताओं के परिजन तक शामिल होते हैं.

किसी बड़े नेता का निधन होने पर उनके परिजन और समर्थन अपने चहेते नेता के सरकारी रिहायशी आवासी को स्मारक बनाकर उसमे डटे रहना चाहते हैं. लेकिन न्यायपालिका के सख्त रुख के कारण अब ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है.

किसी भी सरकारी रिहाइशी आवास को स्मारक में परिवर्तित नहीं करने की आठ साल पुरानी न्यायिक व्यवस्था के अकसर दिवंगत कद्दावर नेताओं के परिजन इन बंगलों का मोह नहीं छोड़ पाते हैं और किसी न किसी तरह इस पर अपना कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं.

न्यायालय के हस्तक्षेप और कड़े रुख के बाद ही दिल्ली में अनेक विशाल सरकारी आवासों में अनधिकृत रूप से डटे नेताओं और दूसरे व्यक्तियों से इन्हें खाली कराया जा सका था. न्यायालय के फैसले के बाद ही इन बंगलों को स्मारक बनाने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाना संभव हुआ था.

लेकिन, राजनीति के मौसम वैज्ञानिक के नाम से चर्चित दिवंगत दलित नेता रामबिलास पासवान के राजधानी के 12 जनपथ सरकारी बंगले के मामले में भी अनधिकृत रूप से काबिज रहने और इसे स्मारक बनाने का प्रयास देखने में आया है.

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रामबिलास पासवान करीब तीन दशक तक इस बंगले में रहे. अब उनके निधन के बाद केन्द्र सरकार ने इस बंगले का आबंटन रद्द करके इसे खाली करने का नोटिस उनके परिवार को दिया. लेकिन यह क्या, सरकारी आवास खाली तो नहीं हुआ, अचानक ही उसमें दिवंगत दलित नेता की प्रतिमा स्थापित हो गयी.

इस बंगले में रामविलास पासवान की प्रतिमा स्थापित किये जाने का मंतव्य स्पष्ट है कि इसे खाली करने की बजाए एक स्मारक बनाया जाये. निश्चित ही यह सब रामबिलास पासवान के सांसद पुत्र चिराग पासवान की सहमति से किया गया होगा. क्या यह समझा जाए कि उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था के बावजूद चिराग पासवान ने राजनीतिक नफे नुकसान को ध्यान में रखकर ही यह कदम उठाया है.

उच्चतम न्यायालय ने पांच जुलाई 2013 को S.D. Bandi vs Divisional Traffic Officer प्रकरण में अपने फैसले में स्पष्ट शब्दों मे कहा था कि अब भविष्य में रिहाइशी परिसर के रूप में चिन्हित किसी भी सरकारी मकान को स्मारक में तब्दील करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.

यह व्यवस्था न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की पीठ ने दी थी. संयोग से दोनों ही न्यायाधीश आगे चल कर देश के प्रधान न्यायाधीश बने और फिर में न्यायमूर्ति सदाशिवम राज्यपाल बने जबकि न्यायमूर्ति गोगोई राज्यसभा में मनोनीत हुये.


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सरकारी बंगला, स्मारक और प्रतिबंध

वैसे तो यह मामला विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के सदस्यों द्वारा आवेदन की निर्धारित अवधि के बाद भी सरकारी आवास खाली नहीं होने से उत्पन्न समस्या से संबंधित था लेकिन सुनवाई के दौरान ही रिहायशी बंगलों में स्मारक बनाये जाने का मामला भी न्यायालय के संज्ञान में लाया गया था.

न्यायालय की इस व्यवस्था का ही नतीजा था कि पूर्व प्रधानमंत्री और किसान नेता चौ. चरण सिंह के दिल्ली स्थित सरकारी आवास 12, तुगलक रोड को उनकी स्मृति में स्मारक में परिवर्तित करने का उनके पुत्र और पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह का अनुरोध सरकार ने सितंबर, 2014 में ठुकरा दिया था.

इस मामले में शहरी विकास मंत्रालय का कहना था कि मंत्रिपरिषद ने 2000 में सरकारी बंगलों को स्मारक में परिवर्तित करने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

लेकिन, सरकार ने अपने 2000 के फैसले से अलग हटते हुये कृष्णा मेनन मार्ग पर स्थित पूर्व उपप्रधान मंत्री और रक्षा मंत्री जगजीवन राम के सरकारी आवास को उनके स्मारक में तब्दील करने की अनुमति दे दी थी.

यह बंगला सामाजिक न्याय मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार को 2004 में आवंटित हुआ लेकिन वह इसमें रहने नहीं आयीं . उन्होंने इस बंगले को अपने पिता की स्मृति में स्मारक में तब्दील करने का अनुरोध किया था. इस समय इसमे बाबू जगजीवन राम नेशनल फाउंडेशन है.

मौजूदा सरकार ने सरकारी बंगलों को स्मारक में तब्दील करने पर प्रतिबंध लगाने के निर्णय का पालन किया और अक्टूबर, 2015 में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सरकारी आवास, 10 राजाजी मार्ग को उनकी स्मृति में स्मारक में तब्दील करने का अनुरोध अस्वीकार कर दिया. सरकार ने यह बंगला तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री महेश शर्मा को आवंटित कर दिया था.

सरकारी आवास को स्मारक में तब्दील करने की प्रवृत्ति पर शीर्ष अदालत ने चिंता व्यक्त करते हुए पांच जुलाई, 2013 को अपने फैसले में दो टूक शब्दों में कहा था, ‘अब, रिहायशी आवास के लिए चिन्हित किसी भी सरकारी आवास को भविष्य में स्मारक में परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिए.’

न्यायालय ने अपने फैसले में इस तथ्य का भी जिक्र किया था कि मंत्रिपरिषद की आवास समिति ने स्मारकों में तब्दील किये गये सरकारी आवासों को Shiv Sagar Tiwari vs. Union of India मामले में 1996 में दिये गए निर्देशों के तहत बने दिशा निर्देशों के अनुरूप संबंधित ट्रस्ट-समितियों को पट्टे पर आवंटित किया है. इन स्मारकों के लिए ट्रस्ट और समितियों के साथ सरकार ने एक निश्चित अवधि के लिए पट्टा करार किया था.

शिव सागर तिवारी प्रकरण के तहत नवंबर, 2000 में निर्धारित दिशानिर्देशों में दिवंगत नेताओं की स्मृति में सरकारी बंगलों को स्मारक में तब्दील करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया था.

उम्मीद की जानी चाहिए कि वोट की राजनीति के लाभ हानि को ध्यान में रखे बगैर ही केन्द्र सरकार पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम प्रकरण की तरह ही इसे भ्री स्मारक बनाने की इजाजत नहीं देगी और इसे स्मारक बनाने के किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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