अब किसी को इस बात में कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि अफगानिस्तान में 1979 से 2021 तक 42 वर्षों की लड़ाई में दो महाशक्तियों की पूर्ण पराजय के बाद ‘बुनियादी’ इस्लाम को पूरी दुनिया में एक नयी ताकत मिलेगी. तालिबान की जीत इस सिद्धांत को मजबूत करती है कि खुदाई जिहाद के इस्लामी उसूलों की कामयाबी के लिए सिर्फ आस्था, संकल्प और धैर्य की जरूरत है. दुनिया भर के मुसलमानों के जेहन में जीत का जो जोश भरा है वह फंड और नये लोगों की भर्तियों के रूप में सामने आएगा.
भारत में हालांकि 17.22 करोड़ मुसलमान हैं (2011 की जनगणना के मुताबिक) लेकिन कट्टरपंथी इस्लामवादी उसे ‘दर-अल-हर्ब’ (गैर-मुस्लिम मुल्क) ही मानते हैं. जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुल इलाकों में पाकिस्तान की शह पर जो छद्म युद्ध/ बगावत जारी है और बाकी देश में मुसलमानों के साथ कथित जुल्म का जो प्रचार किया जा रहा है उसने भारत को स्वाभाविक तौर पर उग्रपंथी इस्लाम के निशाने पर ला दिया है.
मेरे विचार से, भारत और खासकर जम्मू-कश्मीर में उग्रपंथी इस्लाम के उभार के खतरे को बढ़ाचढ़ाकर देखा जा रहा है. जो भी हो, हमें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में पाकिस्तान और चीन की ओर से नये सिरे से दोहरी मोर्चाबंदी का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए.
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तालिबान का रुख क्या होगा
अफगानिस्तान में 1979 से 1989 के बीच जिहाद मॉडल का इस्तेमाल करने में मुजाहिदीन की कामयाबी ने पाकिस्तान को 1989 के बाद से कश्मीर में इसे दोहराने को प्रेरित किया. बगावत का सबसे खूनी दौर 1993 से 2003 के बीच बीता जब अफगानिस्तान में पहले मुजाहिदीन और फिर 1996 से 2001 के बीच तालिबान का राज था. उस दौरान कश्मीर में अच्छी तादाद में ‘विदेशी आतंकवादियों‘ ने अपनी गतिविधियां शुरू की. ऐसी भी खबरें थीं कि कश्मीर में बड़ी संख्या में अफगानी आतंकवादी सक्रिय हैं, जो ज़्यादातर गुलबुद्दीन हिकमतयार की हिज़्ब-ए-इस्लामी पार्टी के सदस्य थे. इन खबरों की कभी पुष्टि नहीं हुई. सरकार ने ‘विदेशी आतंकवादियों’ की राष्ट्रीयता के बारे में कभी अधिकृत सूचना नहीं दी, सिवा पाकिस्तान वालों के बारे में.
मेरा विचार है कि ‘अफगान आतंकी’ शब्द उनके लिए इस्तेमाल किया गया जो ‘अफगानिस्तान में अनुभव’ हासिल कर चुके थे. कश्मीर में सक्रिय अधिकतर विदेशी आतंकी पाकिस्तान के पंजाब से थे.
तालिबान अफगानिस्तान में ही केंद्रित रहे हैं और ‘बुनियादी’ इस्लाम के लिए लड़ाई लड़ने के वास्ते शायद ही कभी अफगानिस्तान से बाहर निकले. फिलहाल तालिबान अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल करने की कोशिश में है और बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर रहा है कि वह अफगानिस्तान को आतंकवाद के निर्यात का अड्डा नहीं बनने देगा.
अफगानिस्तान को प्रभावी शासन पाने के लिए राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिरता हासिल करने में लंबा समय लगेगा. निकट भविष्य में यह संभावना तो नहीं है कि तालिबान इस्लामी विचारधारा से प्रेरित आतंकवाद को समर्थन देगा या उसे दूसरे देशों में निर्यात करने के लिए तालिबों का इस्तेमाल करेगा. बाद में जाकर भी अगर वह ऐसा करता है तो वह परोक्ष और सूक्ष्म रूप से कर सकता है जिससे जरूरत पड़ने पर इनकार भी किया जा सके. अंतरराष्ट्रीय मान्यता और सहायता मिलने पर वह शायद ही पाकिस्तान के प्रति कृतज्ञ बना रहेगा. संप्रभुता और उसकी पख्तून पहचान उसे पाकिस्तान की लड़ाई लड़ने से रोकेगी.
लेकिन तालिबान के साथी सहयोगी आतंकी लड़ाके कई रंग-रूप के हैं- अल-क़ायदा, आईएसआईएस-खुरासान सूबा/डाएश, लश्कर-ए-तैय्यबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), ईस्ट तुर्किस्तान लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (ऊईगर) और इस्लामी मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान आदि. इन सब पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है.
तालिबान के चरमपंथी तत्वों समेत ये आतंकी केवल एक चीज जानते हैं- दार अल-इस्लाम को लागू करने के लिए जिहाद करना. वे सैद्धांतिक या निजी कारणों से तुरंत पाला बदल लेते हैं. टीटीपी के सरदारों ने जब पाकिस्तान से बातचीत शुरू की तो उसके कई काडर आईएसआईएस-खुरासान में चले गए.
संभावना है कि आईएसआई कश्मीर में बगावत भड़काने के लिए अफगानिस्तान के अनुभव से पक चुके लश्कर तथा जैश के काडर और तालिबान के चरमपंथी तत्वों समेत दूसरे आतंकी गिरोहों का इस्तेमाल करे. वे बेहतर प्रशिक्षण पाए हुए तो हैं ही, उनके पास अमेरिका द्वारा छोड़े गए अत्याधुनिक हथियार भी हैं.
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पाकिस्तान के लिए विकल्प क्या हैं
पाकिस्तान को कश्मीर में छद्म युद्ध की सीमाओं का एहसास है. भारत परमाणु शक्ति संपन्न देश है और सैन्य मामले में पाकिस्तान से ताकतवर है. पाकिस्तान भारत को थका कर तोड़ पाने में नाकाम रहा है. अगर वह कश्मीर में तनाव बढ़ाकर भारत की अखंडता को खतरा पहुंचाएगा तो युद्ध हो सकता है और उसमें पाकिस्तान हार जाएगा. परमाणु हथियार भी कश्मीर को हड़पने के लिए चीन-पाकिस्तान की मिलीभगत के विकल्प को निरस्त कर देते हैं.
पाकिस्तान की आर्थिक बेहतरी चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर (सीपीईसी) पर निर्भर है. यह कॉरीडोर भारत के गिलगिट-बाल्तीस्तान क्षेत्र से गुजरता है, जिस पर पाकिस्तान ने अवैध कब्जा कर रखा है. सीपीईसी चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (बीआरआई) की अग्रणी परियोजना है. बलूच आंदोलन, टीटीपी और गिलगिट-बाल्तीस्तान यूनाइटेड फ्रंट सीपीईसी में काम कर रहे चीनी नागरिकों को निशाना बनाते रहे हैं. अगर पाकिस्तान कश्मीर में तनाव बढ़ाता है, तो भारत पाकिस्तान को जैसे को तैसा वाला जवाब दे सकता है, खासकर सीपीईसी के मामले में. आतंकियों के लिए सिद्धांत के अलावा पैसा भी बहुत बड़ा आकर्षण है. अफगानिस्तान के सभी आतंकी गिरोहों का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ भी किया जा सकता है.
इस तरह पाकिस्तान के लिए दो विकल्प रह जाते हैं. भारत को हज़ार घाव देने के लिए कश्मीर और लद्दाख में दोहरा युद्ध— छद्म युद्ध के साथ-साथ चीन के साथ मिलीभगत से सरहदों पर पारंपरिक टक्कर छेड़ दो. या द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय वार्ता शुरू करके शांति की कोशिश करो ताकि ऐसा ‘स्थिर’ समझौता हो कि नियंत्रण रेखा और वास्तविक नियंत्रण रेखा अंतरराष्ट्रीय सरहदें नहीं, तो वास्तविक सरहदें ही बन जाएं.
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भारत की रणनीति
अफगानिस्तान और कश्मीर के बीच कोई तुलना नहीं की जा सकती. अफगानिस्तान में तालिबान एक विदेशी कब्जाधारी और एक अलोकप्रिय कठपुतली सरकार से लड़ रहा था. अमेरिका और अफगान फौजें बगावत विरोधी (सीआई) कार्रवाई के सभी कायदों का उल्लंघन कर रही थीं. सरहदों को सील नहीं किया गया, फौरन कार्रवाई करने में समर्थ चौकियां/ अड्डे कभी नहीं बनाए गए और तालिबान ने बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया.
भारतीय सेना लोगों से दोस्ताना रखने वाला सीआई अभियान चलाती है. एलओसी पर घुसपैठ विरोधी पर्याप्त तैनाती ने सीमाओं को सील किए रखा. पाकिस्तान डूरंड रेखा पर यही मॉडल लागू करने की कोशिश कर रहा है. कंपनी ऑपरेटिंग अड्डों का प्रभावी सीआई ग्रिड मौजूद है, जो फौरन सक्रिय हो सकता है. स्पेशल सेना खाली और दुर्गम क्षेत्रों के लिए हैं. रणनीतिक सर्जिकल एअर स्ट्राइक/स्पेशल फोर्सेज़ स्ट्राइक्स जरूरत पड़ने पर की जा सकती है. एलओसी/एलएसी पर दोहरे युद्ध के हिस्से के तौर पर पारंपरिक खतरों का मुकाबला करने की पर्याप्त क्षमता हमारे पास है.
फौजी रणनीति सफल रही है और रहेगी लेकिन राजनीतिक रणनीति अपेक्षित स्तर की नहीं है. अनुच्छेद 370 को रद्द करना और पंचायतों तथा जिला परिषदों के जरिए लोकतांत्रिक प्रयोग कश्मीर की जनता का दिलोदिमाग जीतने में विफल रहे हैं. मुख्यधारा के दलों तक पहुंचने की प्रधानमंत्री की कोशिशें अनमनी ही रही हैं. पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना एक ‘सियासी वादा’ ही रहा है. सरकार को याद रखना चाहिए कि श्रीनगर तक का रास्ता– लोगों के दिलों और दिमागों को छूने का रास्ता दिल्ली से शुरू होता है, न कि इस्लामाबाद या काबुल से.
कश्मीर में छद्म युद्ध के तेज होने का खतरा सरकार के लिए बड़ी चिंता की बात नहीं है. चिंता की बड़ी बात यह है कि विशाल मुस्लिम समुदाय के दिमाग में खाई इसलिए पैदा हो रही है क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय में लंपट विचारधारा से प्रभावित तत्व उसे निशाना बना रहे हैं. इन तत्वों को राजनीतिक/सरकारी संरक्षण बुनियादी इस्लाम के उत्पीड़न सिद्धांत की पुष्टि ही करता है.
भारतीय मुसलमान और तालिबान के बीच मिलीभगत को लेकर दक्षिणपंथ समर्थक मीडिया और नेताओं की मुहिम ने और घालमेल पैदा कर दिया है. पाकिस्तान और बुनियादी इस्लाम इस स्थिति का लाभ उठाएंगे ही.
तालिबान की गुजारिश पर उससे खुला राजनयिक संबंध बनाकर एक शुरुआत कर दी गई है. वह सबका साथ वाली सरकार बनाता है, आतंकवादियों को अपने यहां अड्डा नहीं बनाने देता है और मानवाधिकारों का पालन करता है तो उसे मान्यता और उसके साथ संबंध का विस्तार हमारी ‘सॉफ्ट पावर’ के मेल से बुनियादी इस्लाम और पाकिस्तान दोनों को परे रखने में कारगर साबित हो सकता है.
कूटनीतिक मोर्चे पर, हमें कश्मीर और लद्दाख में अमन कायम करने के लिए पाकिस्तान और चीन के साथ त्रिपक्षीय व्यवस्था बनाने से परहेज नहीं करना चाहिए.
भारत की सरकारें और शीर्ष अदालतें उसके धर्मनिरपेक्ष संविधान का संकल्पपूर्वक पालन करती हैं. एक बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक, सर्वसमावेशी समाज के रूप में भारत की कल्पना लोगों के मन-मस्तिष्क में जमी हुई है. इसने विचारधारा से प्रेरित बाहरी और आंतरिक खतरों से सुरक्षा प्रदान की है. हमारी आर्थिक मजबूती, राजनीति-निरपेक्ष/धर्मनिरपेक्ष सेनाओं ने प्रत्यक्ष खतरों को नाकाम किया है. जातीय, धार्मिक, विचारधारात्मक तत्वों से प्रेरित अलगाववाद/बगावत से निपटने का हमारा मॉडल दुनिया में ईर्ष्या का विषय है. भारत जब तक इन आदर्शों से जुड़ा रहेगा, तब तक बुनियादी इस्लाम से कोई खतरा नहीं रहेगा.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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