scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतओलंपिक गोल्ड विजेता नीरज और पैरालंपिक पदक विजेताओं को फोन करना मोदी के लिए सियासी मैदान में गोल्ड मेडल जीतने जैसा ही है

ओलंपिक गोल्ड विजेता नीरज और पैरालंपिक पदक विजेताओं को फोन करना मोदी के लिए सियासी मैदान में गोल्ड मेडल जीतने जैसा ही है

चुनावी सभाओं या लालकिले से भाषण से इतर भी लोगों से संवाद करके मोदी ने प्रधानमंत्री की ‘अलग-थलग’ वाली छवि को ध्वस्त करके उसे अलग ही आयाम प्रदान किया है.

Text Size:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भारत में तमाम दूसरे नेताओं के मुक़ाबले एक चीज कहीं ज्यादा अच्छी तरह करना जानते हैं. वह है अपनी छवि पेश करना, संदेश देना और संवाद बनाना. ओलंपिक और पैरालंपिक के पदक विजेताओं को फोन करके मोदी ने एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मकसद पूरा किया है- खुद को पिछले प्रधानमंत्रियों से अलग एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना, मानो वे ‘परिवार के एक बुज़ुर्ग’ हों. ऐसा लगता है मानो वे ‘चाचा नेहरू’ की छवि से भी आगे निकलने की कोशिश कर रहे हों.

राष्ट्रीय गौरव और विजय के मौकों से खुद को जोड़ना नेताओं के लिए कोई नयी बात नहीं है. इंदिरा गांधी ने अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से टेलीविज़न के माध्यम से बात की थी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी तब आधी रात को तिरंगा लहराते सड़क पर निकल आए थे जब भारत ने टी-20 का विश्वकप जीता था. लेकिन पराजय पर उस तरह सांत्वना देते शायद ही किसी नेता को देखा गया, जिस तरह मोदी ने टोक्यो ओलंपिक में हारी भारतीय हॉकी टीम को दिया.

ओलंपिक में महिला हॉकी टीम से लेकर पैरालंपिक के स्वर्ण पदक विजेता सुमित एंटिल को किए गए फोन, जाहिर है जनता को दिखाने के सायास प्रयास थे. मोदी के आलोचकों और विरोधियों ने इसकी आलोचना भी की. लेकिन ऐसे संवेदनशीलता ही, चाहे यह नाटकीय और बनावटी ही क्यों न हो, मोदी को मतदाताओं का चहेता बनाती है और उन्हें सबसे अलग तथा बेहद लोकप्रिय बनाती है.


यह भी पढ़ें : सोनिया गांधी और ममता बनर्जी की दोस्ती क्या आपसी हितों के टकराव की चुनौती का हल निकाल पाएगी


ऐसे दिखावों के लिए मोदी की आलोचना करना, या उनसे खुद को बदलने की अपेक्षा रखना भारतीय राजनीति के संदर्भ के मद्देनजर बेकार है क्योंकि ये जाति तथा धर्म जैसी चीजों को बेमानी करते हैं. मतदाता इन्हीं बातों के लिए उन्हें पसंद करते हैं, और वे उन्हें समझते भी हैं. वैसे, प्रधानमंत्री ने अपने ऊपर हमला करने के लिए लोगों को कई हथियार जुटाए हैं- कमजोर नीतियां बनाने से लेकर कमजोर शासन और एक असहिष्णु तथा बहुसंख्यकवादी पार्टी तक. लेकिन मतदाताओं से जुड़ने के आडंबरपूर्ण तरीकों या उन्हें ‘सबसे अलहदा प्रधानमंत्री’ के रूप में पेश करने की भाजपा की कोशिशों की आलोचना में समय बर्बाद करना बेकार है.

जुड़ने की कोशिशों का पदक

सटीक संदेश देने और जनता से जुड़ने के प्रभावी तरीकों के प्रयोग के लिए अगर कोई प्रतियोगिता होती तो मोदी जरूर उसमें गोल्ड मेडल जीतते. भारतीय महिला हॉकी टीम ने पदक भले न जीता हो, प्रधानमंत्री ने उसे तुरंत फोन किया. उनसे बात करते हुए खिलाड़ियों के भावुक हो जाने के चित्र वायरल हो गए और वे मोदी से जुड़ाव की पक्की पुष्टि करते हैं. उस फोन से यही संदेश दिया गया कि एक ‘पितातुल्य’ प्रधानमंत्री एक युवा टीम को हारने के बावजूद उसकी हौसलाअफजाई कर रहे हैं और खिलाड़ी उनसे इतना जुड़ाव महसूस कर रहे हैं कि उनकी आंखें भर आती हैं. अहम बात यह है कि मोदी उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए उन्हें प्यार से हिदायत देते हैं कि वे रोएं नहीं.

पदक विजेताओं को किए गए फोन की योजना बड़ी सावधानी से बनाई और लागू की गई. जेवलीन थ्रो में करिश्माई स्वर्ण पदक जीतने वाले नीरज चोपड़ा से मोदी ने मज़ाक में उनके गृहस्थान का जिक्र करते हुए कहा, ‘पानीपत ने पानी दिखा दिया.’

सोमवार को मोदी ने पैरालंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले सुमित एंटिल को फोन करके कहा कि किस तरह उन्होंने ‘अपनी कठिनाइयों पर विजय पाते हुए देश का गौरव बढ़ाया.’

मोदी की भाजपा ने सोशल मीडिया को अच्छी तरह साध लिया है और उसे यह भी एहसास है कि दूसरे सियासी दावेदार भी तेजी से इसे अपना रहे हैं. मोदी को पता है कि केवल ट्वीट ही, चाहे वह कितनी भी सावधानी से क्यों न लिखा हो, उन्हें दूसरों से अलग नहीं स्थापित कर सकता. इसलिए खिलाड़ियों आदि को किए गए फोन को सार्वजनिक करने की चाल कारगर हो सकती है. प्रधानमंत्री के संदेश प्रायः निशाने पर सटीक बैठते हैं और उनके लिए चमत्कार कर देते हैं. यह मैंने गुजरात से लेकर त्रिपुरा तक तमाम चुनावों की रिपोर्टिंग करते हुए देखा है.

‘पारिवारिक’ प्रधानमंत्री

मोदी ने बड़े जतन से अपनी छवि गढ़ी है और वे उसका लाभ उठा रहे हैं. यह छवि ‘पहुंच के दायरे वाले’ प्रधानमंत्री की है, और यह उस ‘अलगथलग-से’ नेता की छवि से अलग है जो केवल चुनावों या स्वतंत्रता दिवस जैसे समारोहों पर ही दिखता या सुना जाता है. मोदी खुद को परिवार के एक बुजुर्ग के रूप पेश कर रहे हैं, जो लोगों से दुनियावी बातों से लेकर तमाम तरह के विषयों पर बात कर सकता है.

उनका रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ इस दिशा में पहली कोशिश थी. 2018 में इस कार्यक्रम के चार वर्ष पूरे होने पर मैंने तब तक प्रसारित इसकी सभी कड़ियों का विश्लेषण करके यह समझने की कोशिश की थी कि मोदी ने अपना संदेश देने के लिए इस मंच का कितना प्रभावी उपयोग किया. इसका उपयोग उन्होंने अपनी सरकार की नीतियों का खुलासा करने से लेकर बच्चों को गर्मी की छुट्टी बिताने के तरीकों की सलाह देने तक और लोगों को त्योहारों पर बधाई देने से लेकर योग और मौसम जैसे मामलों या परीक्षाओं को लेकर तनाव तक तमाम मुद्दों पर अपने विचार रखने के लिए किया.

राष्ट्र के नाम उनके संदेशों- खासकर कोविड महामारी के शुरू के दिनों वाले- में उन्होंने लोगों से वायरस को भगाने के लिए थाली और ताली बजाने या मोमबत्ती जलाने के जो सुझाव दिए वे सब इसी रणनीति के हिस्से थे. शिक्षक दिवस पर छात्रों से संवाद हो, या उनकी किताब ‘एक्ज़ाम वारियर्स’ हो, जिसमें वे छात्रों को तनाव व दबाव से निबटने की सलाह देते हैं, सभी इसी के हिस्से हैं. ‘जन आंदोलन’ जैसे अभियान और विभिन्न जनकल्याण योजना के लाभभोगियों के साथ उनके निरंतर वीडियो कॉन्फ्रेंस भी इसी मुहिम में शामिल हैं.

मोदी की मंशा अपने मतदाताओं के घरों तक पहुंचने, उनसे संवाद करने, और खुद को उनके बीच का दिखाने की होती है. यह और बात है कि इनमें ज़्यादातर एकतरफा या पूर्वनिर्धारित संवाद होता है. इन गतिविधियों से क्या दिखाने और क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही है, यह बिलकुल स्पष्ट है.

यह मोदी को अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से बिलकुल अलग रूप में पेश करता है. याद कीजिए, मनमोहन सिंह कितने शांत और संयमित थे. यहां तक कि कुशल वक्ता और कवि अटल बिहारी वाजपेयी भी अल्पभाषी ही थे.

मोदी ने सिर्फ चुनावों में या लालकिले से दिए गए औपचारिक भाषणों के अलावा भी लोगों के साथ आम विषयों पर संवाद करके ‘अलगथलग’ प्रधानमंत्री की छवि को उलट दिया है. और जहां तक ‘कब्रिस्तान-श्मशान’ जैसे बयान देने या नागरिकता में सांप्रदायिक विभाजन जैसी बातें करने वाले ’56 इंच सीना’ वाले प्रधानमंत्री की बात है, तो मोदी अब अपनी छवि एक ‘नरमदिल बुजुर्ग’ की बनाने में जुटे हैं.

हम उनकी इस तरह की सोची-समझी, पूरी तरह से नुमाया चालों को हल्के में ले सकते हैं मगर ये ही हैं जो चुनावों और राजनीतिक चुनौतियों से निबटने में, और सबसे अहम यह कि अर्थव्यवस्था की बदहाली, पेट्रोल-डीजल की आसमान छूती कीमतों या कोविड महामारी में बदइंतजामी जैसे मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने में उनकी मदद करती हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments