नई दिल्ली: अगस्त 2020 तक राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम– वो कानून जिसमें रक्षा, सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के आधार पर रोकथाम गिरफ्तारी की अनुमति दी गई है- उत्तर प्रदेश में 139 लोगों पर लगाया गया था. इनमें से 76 मामले ऐसे थे जिनमें लोगों पर गौहत्या का आरोप लगाया गया था.
ऐसा ही एक मामला पिछले साल जुलाई में यूपी के सीतापुर जिले में इमलिया गांव के तीन भाइयों पर दर्ज किया गया था. परवेज़ (33) और इरफान (21) को 12 जुलाई 2020 को उस समय गिरफ्तार किया गया, जब पुलिस ने कथित रूप से उन्हें 60 किलो गौमांस और मवेशी काटने के औज़ारों के साथ पकड़ लिया, जबकि 40 वर्षीय रहमतुल्लाह को अगले दिन गिरफ्तार किया गया.
एक महीने बाद न्यायिक हिरासत में रहते हुए ही उनपर यूपी गुंडा तथा असामाजिक गतिविधियां (रोकथाम) एक्ट 1986 और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 लगा दिए गए.
वो एक साल से ऊपर जेल में रहे, जिसके बाद उनकी याचिका पर इलाहबाद हाई कोर्ट ने इस साल 5 अगस्त को उनकी रासुका हिरासत को रद्द कर दिया. लेकिन उनकी याचिका बेकार साबित हुई, चूंकि हाई कोर्ट आदेश उस समय आया, जब वो पहले ही हिरासत में लगभग एक वर्ष पूरा कर चुके थे- जो किसी भी व्यक्ति को रासुका के तहत हिरासत में रखने की अधिकतम अवधि होती है.
हालांकि राज्य के अधिकारियों ने ये आरोप लगाते हुए रासुका लगाने के फैसले का बचाव किया है कि तीनों भाईयों ने यूपी के गांव में ‘हिंदू समुदाय को परेशान’ करने का काम किया था लेकिन अभियुक्तों का कहना है कि वो ‘राजनीति का शिकार’ हुए थे.
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सुबह 5.30 बजे गिरफ्तारी
तीनों भाईयों के खिलाफ दर्ज एफआईआर के मुताबिक, जिसे दिप्रिंट ने देखा है, कुछ पुलिस अधिकारियों को एक मुखबिर से सूचना मिली थी कि दो कसाई रहमतुल्लाह के घर गौमांस लेकर आए थे और उसे बेचने की योजना बना रहे थे.
उसके बाद पुलिस ने 12 जुलाई 2020 को सुबह 5.30 बजे इरफान और परवेज़ को उनके घर से रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया. रहमतुल्लाह उस समय गिरफ्तारी से बचने में कामयाब हो गया लेकिन उसे अगले दिन पकड़ लिया गया. तीनों पर यूपी गो-वध निवारण अधिनियिम 1955 और क्रिमिनल लॉ (संशोधन) एक्ट के प्रावधानों के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया.
पहली एफआईआर के अंतर्गत हिरासत में रहते हुए 25 जुलाई को उन्हीं आरोपों के आधार पर उनके ऊपर उत्तर प्रदेश गिरोहबन्द और समाज विरोधी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम के प्रावधानों के तहत एक और एफआईआर दर्ज कर दी गई.
गुंडा एक्ट राज्य का एक विवादास्पद कानून है, जिसका भू-माफिया और पत्रकारों आदि के खिलाफ अंधाधुंध तरीके से इस्तेमाल किया गया है. 19 नवंबर 2020 को इलाहबाद हाई कोर्ट ने भी छोटे-छोटे मामलों में इस कानून को लगाने के लिए यूपी पुलिस की आलोचना की थी और कहा था कि इस कानून का ‘पुलिस द्वारा दुरुपयोग’ किया जा रहा है.
दूसरी एफआईआर के बीस दिन बाद 14 अगस्त को सीतापुर के तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट अखिलेश तिवारी ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 के तहत उनकी हिरासत के लिए आदेश जारी कर दिए. इस कानून में केंद्र अथवा राज्य सरकार के अधिकारी हिरासत के आदेश जारी कर सकते हैं.
उसके बाद पिछले साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश सलाहकार बोर्ड और यूपी सरकार दोनों ने उनकी हिरासत की पुष्टि कर दी.
उसके बाद समय-समय पर उनकी हिरासत बढ़ाई जाती रही. रासुका के तहत, किसी व्यक्ति को अधिकतम 12 महीनों के लिए हिरासत में रखा जा सकता है और हिरासत शुरू होने के बाद हर तीन महीने पर उसे बढ़ाए जाने की अनुमति लेनी होती है.
भाईयों के वकील अतीक खान के अनुसार, उनकी हिरासत समय-समय पर बढ़ाई जाती रही और उन्होंने कुल मिलाकर 12 महीने जेल में बिताए.
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कोर्ट ने बताई खामियां
रासुका हिरासत के दौरान तीनों व्यक्तियों को गौ-हत्या कानून के तहत दर्ज एफआईआर में 27 अगस्त 2020 को और गुंडा एक्ट मामले में 11 नवंबर 2020 को जमानत दे दी गई.
अगस्त के अपने आदेश में सीतापुर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने अभियोजन पक्ष के केस में कुछ खामियां बताईं थीं, जिनमें खासतौर से किसी स्वतंत्र गवाह का न होना भी था.
कोर्ट ने ये भी कहा कि पशु चिकित्सा अधिकारी ने सिर्फ देखकर ही मांस को गौमांस बता दिया था लेकिन उसे साबित करने के लिए कोई फॉरेंसिक रिपोर्ट दायर नहीं की गई थी.
एफआईआर में ये भी कहा गया था कि पशु चिकित्सा अधिकारी ने बोरे में देखकर पुष्टि कर दी थी कि ज़ब्त किया गया मांस गौमांस था और उसी दिन ‘ज़मीन में गढ्ढा खोदकर ज़ब्त किए गए मांस को उसमें दबा दिया गया’.
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‘हिंदू समुदाय को परेशान गया’: एनएसए हिरासत आदेश
इस बीच भाईयों के खिलाफ जारी रासुका हिरासत आदेश में संविधान की धारा 48 का हवाला दिया गया, जो सरकार को निर्देश देता है कि ‘गायों, बछड़ों, और अन्य दुधारू तथा वाहक मवेशियों की कटाई रोकने के लिए कदम उठाने का प्रयास करे’.
आदेश में आगे कहा गया कि अभियुक्त जमानत हासिल करने की ‘पूरी कोशिश’ कर रहे हैं और अगर अभियुक्तों को जमानत दे दी गई, तो वो फिर से इसी तरह की गतिविधियों में संलिप्त हो जाएंगे.
आदेश में ये भी कहा गया कि उनकी हरकतों से सार्वजनिक व्यवस्था पर असर पड़ेगा और गांव के सांप्रदायिक सदभाव को नुकसान पहुंचेगा.
सीतापुर डीएम विशाल भारद्वाज ने भी इस साल जनवरी में हाई कोर्ट में पेश किए अपने हलफनामे में रासुका आदेश का बचाव किया और कहा कि अभियुक्तों ने ‘एक जघन्य अपराध को अंजाम दिया था और हिंदू समुदाय को नाराज किया था, क्योंकि वो गौहत्या में शामिल थे’.
हलफनामे में ये भी कहा गया कि गौमांस बरामद होने और उनकी गिरफ्तारी की खबर फैलने के बाद ‘कानून व्यवस्था की स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी और सांप्रदायिक सदभाव भंग हो गया था’.
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‘राजनीतिक दुर्भावना’
भाईयों ने पिछले साल 24 अगस्त को रासुका आदेश के खिलाफ डीएम के समक्ष भी याचिका दाखिल की. याचिका में, जिसकी कॉपी दिप्रिंट ने देखी है, दावा किया गया कि सभी आरोप और कथित तौर पर उनके पास से बरामद हथियार ‘झूठे और फर्ज़ी’ हैं. उन्होंने पुलिस पर भी मनगढ़ंत कहानी रचने का आरोप लगाया.
भाईयों ने इस मामले में उनकी गिरफ्तारी के पीछे, ‘राजनीतिक दुर्भावना’ का भी हवाला दिया. उनकी याचिका में कहा गया, ‘ये झूठा केस राजनीतिक दुर्भावना के चलते दर्ज किया गया, जिससे कि आवेदक या उसके परिवार का कोई सदस्य, आगामी चुनावों में खड़ा न हो सके’.
इस आरोप पर उन्हें अभी भी विश्वास है. परवेज़ ने दिप्रिंट से कहा, ‘हम बस राजनीति का शिकार हुए हैं’.
उसने ये भी आरोप लगाया कि पूरा मामला मनगढ़ंत है और दावा किया कि उस रात जब पुलिस ने उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया, तो रहमतुल्लाह घर में नहीं बल्कि अपनी ससुराल में था’.
परवेज़ की मांग है कि उन्हें मुआवज़ा दिया जाना चाहिए, क्योंकि हाई कोर्ट के हिरासत को रद्द करने के बावजूद, उन्हें पूरे एक साल हिरासत में रखा गया. उसने राज्य सरकार को ‘मुसलमानों को निशाना बनाने’ का भी दोषी ठहराया.
उसने कहा, ‘हम एक साल तक जेल में रहे, इसलिए हमें मुआवज़ा मिलना चाहिए, चूंकि हमारे बीवी-बच्चे हमसे दूर रहे’.
एडवोकेट नरेंद्र गुप्ता, जो भाईयों की ओर से हाई कोर्ट में पेश हुए, ने भी कहा, ‘उनकी याचिका वास्तव में अनावश्यक थी, चूंकि जब फैसला आया तब तक वो पहले ही एक साल हिरासत में बिता चुके थे. अब वो मुआवज़े के हकदार हैं, क्योंकि उन्हें राज्य की ओर से हिरासत में रखा गया था’.
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एक साल बाद रिहाई
तीनों भाईयों ने इस साल 5 जनवरी को इलाहबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर की थीं. ठीक आठ महीने बाद 5 अगस्त को हाई कोर्ट ने 26 पन्नों का फैसला जारी करते हुए उनकी रासुका हिरासत को रद्द कर दिया.
न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा और सरोज यादव की खंडपीठ ने, किसी के घर के भीतर गाय काटने और सबकी आंखों के सामने गाय काटने के बीच फर्क किया.
बेंच ने ये भी कहा कि हिरासत के आदेश में गुंडा एक्ट के तहत दर्ज दूसरी एफआईआर का उल्लेख नहीं किया गया था और उसने आगे ये राय रखी कि ‘इस निष्कर्ष पर पहुंचने के पीछे कोई आधार नहीं था कि याचिकाकर्ता/ नज़रबंद व्यक्ति भविष्य में भी इस हरकत को दोहराएंगे’.
परवेज़ ने दिप्रिंट को बताया कि पहली गिरफ्तारी के एक साल से भी अधिक समय बाद उन्हें आखिरकार 13 अगस्त को रिहा किया गया.
लेकिन तीनों भाईयों की कानूनी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है. दो एफआईआर के तहत उनपर अभी भी मुकदमा चलना है, जो उनके खिलाफ गौहत्या कानून और गुंडा एक्ट के तहत दर्ज की गईं थीं.
उनके वकील अतीक़ खान ने दिप्रिंट को बताया कि दोनों मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए जा चुके हैं और भाइयों को अब इन मुकदमों का सामना करना होगा.
लेकिन उन्होंने कहा कि इस मामले में की गई जांच ‘अनुचित’ थी.
उन्होंने कहा, ‘गौहत्या के नाम पर जिस तरह लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, वो सही नहीं है. निष्पक्ष जांच के अभाव मे अगर कोई बेगुनाह शख्स जेल जाता है, तो एक इंसान के नाते मुझे बहुत बुरा लगता है. यूपी में पुलिस की जांच ही निष्पक्ष नहीं होती’.
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