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Thursday, 21 November, 2024
होमदेश'मैं बंबई का बाबू, नाम मेरा अंजाना'- भारतीय सिनेमा में कॉमेडी को शक्लो-सूरत देने वाले जॉनी वॉकर

‘मैं बंबई का बाबू, नाम मेरा अंजाना’- भारतीय सिनेमा में कॉमेडी को शक्लो-सूरत देने वाले जॉनी वॉकर

जॉनी वॉकर जिस अंदाज में अपने चेहरे को घुमाते, नज़रें तिरछी करते, भौंहे सिकुड़ाते, नाक से निकली आवाज के दम पर डॉयलग डिलीवरी करते- कॉमेडी की दुनिया में ये अनोखी बात थी.

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10 अक्टूबर 1964 को बंबई से एक फोन बजता है और खबर दी जाती है कि ‘जॉनी ! गुरु गया ‘. मद्रास के एक होटल में ठहरे जॉनी वॉकर ये सुनते ही टूट जाते हैं. आखिर उनका जिगरी दोस्त और दिग्गज अभिनेता और निर्देशक गुरु दत्त इस फानी दुनिया को अलविदा कह चुके होते हैं. जॉनी वॉकर के साथ वहीदा रहमान भी होती हैं और ये सुनते ही दोनों आखिरी बार अपने मुक़द्दस सहयोगी गुरु दत्त को देखने मद्रास से बंबई निकल पड़ते हैं.

जॉनी वॉकर के लिए गुरु दत्त बहुत प्रिय थे और पहली मुलाकात में ही दोनों दोस्त बन गए थे. इंदौर में मिल मजदूर के परिवार में जन्मे बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी का जन्म 1924 में हुआ लेकिन मिल बंद होने और काम छूट जाने के बाद उनका परिवार मुंबई आ गया. नए शहर की चुनौतियों ने उन्हें भी घेरा और वो बेस्ट की बसों में कंडेक्टर की नौकरी करने लगे और अपने मजाकिया अंदाज से यात्रियों को गुदगुदाने लगे.

एक दिन पटकथा लेखक और अभिनेता बलराज साहनी बस से सफर कर रहे थे और तभी उनकी मुलाकात काज़ी से होती है और वो सलाह देते हैं कि उन्हें गुरु दत्त से मिलना चाहिए. गुरु दत्त उन दिनों नवकेतन प्रोडक्शन के बैनर तले बन रही फिल्म बाज़ी (1951) बना रहे थे और इसकी कहानी लिखने का जिम्मा बलराज साहनी के पास था.

एक दिन बाज़ी फिल्म के किसी सीन के लिए देव आनंद और गुरु दत्त गहन चर्चा कर रहे थे तभी अचानक एक शराबी शख्स आता है और उसकी हरकतें सभी को चौंकाती है और सब हंस पड़ते हैं. टीम के लोग उस व्यक्ति को पकड़ लेते हैं तभी वो बिल्कुल उन्हें झटकता हुआ सीधा खड़ा हो जाता है और अपनी पतली आवाज़ में कहता है कि उसने शराब नहीं पी रखी. बदरुद्दीन जलालुद्दीन काज़ी की ये प्रतिभा सबको हैरान कर देती है और गुरु दत्त अपनी पहली फिल्म में उन्हें मौका दे देते हैं. दोनों के कैरिअर (गुरु दत्त और काज़ी) की शुरुआत इसी फिल्म से होती है और आगे चलकर गुरु दत्त की हर फिल्म में जॉनी वॉकर एक विशेष भूमिका में नज़र आते रहे.

गुरु दत्त ने अपनी पसंदीदा व्हिस्की ब्रांड के नाम पर काज़ी का नाम बदलकर जॉनी वॉकर रख दिया. गौरतलब बात तो ये है कि जॉनी वॉकर ने ताउम्र कभी शराब को हाथ तक नहीं लगाया लेकिन शराबी की भूमिका में उनके अभिनय को दर्शकों ने खूब पसंद किया.

गुरु दत्त की स्पेशल टीम के जॉनी वॉकर एक महत्तवपूर्ण सदस्य थे. गुरु दत्त जिस अभिनेता पर भरोसा जता देते थे उसे काफी मौके देते थे. गुरु दत्त पर किताब लिखने वाले पत्रकार और लेखक यासिर उस्मान ने लिखा है कि दत्त ने एक बार जॉनी वॉकर से कहा था, ‘जॉनी ये तुम्हारा सीन है, ये डॉयलग है, यो शॉट है. इसमें तुम जो बेहतर कर सकते हो तो करो.’ और हम सब जानते हैं….जॉनी वॉकर ने फिल्मी पर्दे पर जो किया वो इतिहास है.

जॉनी वॉकर की 18वीं पुण्यतिथि पर दिप्रिंट उनके सफर को याद कर रहा है.


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कॉमेडी को एक अलग आयाम दिया

जॉनी वॉकर ने हास्य कलाकार के तौर पर जो प्रयोग किए, डॉयलग डिलिवरी का जो अंदाज पेश किया, अपनी पतली आवाज से जो जादू बिखेरा, इन सब चीज़ों ने भारतीय सिनेमा में कॉमेडी को एक अलग आयाम दिया. जिसे उन्होंने नूर मोहम्मद चार्ली (मूक फिल्मों में अभिनय किया) जो कि भारतीय सिनेमा के पहले स्टार कॉमेडियन थे- उनके बाद उनकी विरासत को आगे बढ़ाया.

भगवान दादा और नूर मोहम्मद चार्ली के बाद जॉनी वॉकर ने जो कॉमेडी की, उसे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग याद करते हैं और उनके निभाए किरदारों की चर्चा करते हैं. कॉमेडी के लिए जो टाइमिंग की समझ होती है वो उनके किरदारों में साफ झलकती है. वॉकर ने ज्यादा तालीम तो हासिल नहीं की थी लेकिन फिल्मों में काम करने के लिए उन्होंने काफी मेहनत की और लगातार नए प्रयोग करते रहे.

जॉनी वॉकर भारतीय सिनेमा में अब तक के पहले हास्य कलाकार हैं जिनके लिए अलग से गाने फिल्माए जाते थे और निर्देशक अलग से उनके लिए सीन लिखा करते थे. 1964 तक गुरु दत्त के रहते वो उनकी लगभग सारी फिल्मों का हिस्सा रहे. बाजी, कागज के फूल, प्यासा, चौदहवीं का चांद, आर पार, टैक्सी ड्राइवर में वॉकर की अहम भूमिका रही है. 1950 और 1960 के दशक में देव आनंद और दिलीप कुमार की कई फिल्मों में उन्होंने काम किया.

दिलीप कुमार के साथ वो नया दौर, मधुमती, पैगाम, दिल दिया दर्द लिया और गोपी में नज़र आए. मधुमती (1958) के लिए उन्हें फिल्मफेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवॉर्ड मिला, वहीं 1968 में आई शिकार के लिए उन्हें दूसरी बार फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला.

1951 में आई बाज़ी से फिल्मी सफर शुरू कर उन्होंने लगभग 300 से ज्यादा फिल्मों में काम किया. आखिरी बार उन्होंने कमल हासन की फिल्म चाची 420 में अभिनय किया और उस फिल्म में भी लोगों ने उनकी भूमिका को खूब सराहा.

जॉनी वॉकर ने तीन फिल्मों में बतौर मुख्य अभिनेता भी भूमिका निभाई थी. ये फिल्में थी- जॉनी वॉकर, छू मंतर (1956) और मिस्टर कार्टून एमए (1958). शायद वो अकेले कलाकार हैं जिनके नाम पर ही फिल्म (जॉनी वॉकर) बनी है और खुद उसमें उन्होंने ही अभिनय किया है.


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रफी साहब के बिना जॉनी वॉकर की कल्पना बेमानी

जॉनी वॉकर जिस अंदाज में अपने चेहरे को घुमाते, नज़रे तिरछी करते, भौंहे सिकुड़ाते, नाक से निकली आवाज के दम पर डॉयलग डिलीवरी करते- कॉमेडी की दुनिया में ये सब उस दौर में एकदम अलग और ताजगी भरा था. यहां तक कि आज भी ऐसा करना किसी कॉमेडियन के लिए बेहद मुश्किल है.

फिल्मों में उनका किरदार सिर्फ एक हास्य कलाकार के तौर पर दर्ज नहीं होता था बल्कि कहानी में उनकी मौजूदगी फिल्म को मजबूत करती थी और उबाऊ होने से बचाती थी.

सुरों के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने उनके लिए काफी गाने गाए. वॉकर जिस अंदाज में कॉमेडी करते और अपनी आवाज़ में बदलाव करते, रफी साहब गानों में उसी अंदाज को उतार देते. रफी साहब के बिना जॉनी वॉकर की कल्पना करना शायद बेमानी हो.

बीआर चोपड़ा की मशहूर फिल्म नया दौर में उनकी भूमिका को कौन भुला सकता है. जब मशीन और तांगे के बीच मुकाबला होने वाला होता है और गांव के लोग सड़क बनाने में लगे होते हैं, उसे कवर करने के लिए बंबई से एक रिपोर्टर की भूमिका में जॉनी वॉकर की एंट्री होती है. और रफी साहब की आवाज में उस फिल्म का गाना- मैं बंबई का बाबू, नाम मेरा अंजाना, इंग्लिश धुन में गाऊं, मैं हिंदुस्तानी गाना…..आज भी जेहन में बसा हुआ है.

जॉनी वॉकर के साथ एक और दिलचस्प बात जो जुड़ी है वो ये है कि लगभग हर फिल्म में उनके ऊपर फिल्माया एक गाना तो जरूर होता था. किसी-किसी फिल्म में दो गाने भी होते थे जैसे की चौदहवीं का चांद फिल्म में उन पर दो गाने फिल्माए गए हैं- मेरा यार बना है दुल्हा और ये दुनिया गोल है.

पैगाम फिल्म में तो उन पर तीन गाने फिल्माए गए हैं- बदला सारा जमान बाबू, बदला सारा जमाना, कैसे दिवाली मनाएं हम और सुनो रे भैया हम लाए हैं एक खबर मस्तानी, आज किसी जालिम की मरने वाली है नानी.

सीआईडी  फिल्म का ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां…, प्यासा का सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए…, मधुमती में जंगल में मोर नाचा किसने देखा..., आर पार का अरे ना ना ना तौबा तौबा, मिस्टर एंड मिसेज 55 में जाने कहां मेरा जिगर गया जी….ये गाने आज भी जॉनी वॉकर की उपस्थिति दर्ज कराते हैं और गाहे-बगाहे उन्हें याद करने पर मजबूर करते हैं.


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अश्लीलता से बची रही जॉनी वॉकर की कॉमेडी

जॉनी वॉकर ने करीब 40 सालों तक लोगों को हंसाया लेकिन उनकी कॉमेडी में कभी फूहड़ता या अश्लीलता नज़र नहीं आयी. उनके समकालीन रहे महमूद और ओम प्रकाश की कॉमेडी भी अश्लीलता से बची रही. 1970 के दशक में उत्पल दत्त, डेविड अब्राहिम, केस्टो मुखर्जी, जगदीप सरीखे हास्य कलाकारों ने भी लोगों का खूब मनोरंजन किया.

1980 के आखिर से जॉनी लीवर और परेश रावल ने भी कॉमेडी के जरिए लोगों से खूब प्रशंसा पाई. लेकिन 21वीं सदी में कॉमेडी ने अलग रूप लिया और ये और भी पेशेवर तरीके से पेश किया जाने लगा. टीवी पर कॉमेडी शो और स्टैंड अप कॉमेडी की शुरुआत हुई लेकिन नए युग में कॉमेडी और अश्लीलता एक दूसरे के पूरक हो चले हैं.

जॉनी वॉकर अपनी कॉमेडी और कैरिअर को लेकर काफी संतुष्ट थे. उन्होंने एक बार कहा था, ‘हम लोग काफी जागरूक थे कि जो लोग सिनेमा में आते हैं उनके बीवी और बच्चे भी होते हैं…फिल्म की कहानी सबसे जरूरी होती थी. कॉमेडियन अब एक किरदार नहीं रह गया है बल्कि वो दो सीन के बीच फिट होने के लिए बनकर रह गया है. अश्लीलता के कारण मैंने अब दूरी बना ली है. मैंने 300 के करीब फिल्मों में काम किया लेकिन सेंसर बोर्ड ने आज तक एक भी लाइन नहीं काटी.’


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जॉनी वॉकर और जीवन का फलसफा

1971 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद जीवन का फलसफा दे जाती है, इसमें जॉनी वॉकर की छोटी लेकिन असरदार भूमिका है. इस फिल्म में वो एक दाढ़ी वाले स्टेज डॉयरेक्टर की भूमिका में होते हैं और कैंसर के मरीज राजेश खन्ना को जीवन का जरूरी फलसफा बता जाते हैं.

वॉकर साहब आनंद फिल्म में कहते हैं, ‘जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह…उसे न आप बदल सकते हैं और न मैं. हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के उंगलियों में बंधी है…कब, कौन, कैसे उठेगा..कोई नहीं बता सकता.

इससे इतर 1950 और 60 के दशकों में उन्होंने जो भूमिका निभाई वो कई सामाजिक मुद्दों को भी उभारती है. उन पर फिल्माए गानों में कई सामाजिक समस्याओं को जगह मिली जिसे आम आदमी अपने जीवन में भोगता है.

सीआईडी फिल्म के ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां  गाने में वो मुंबई जैसे बड़े शहर की दुश्वारियों और शहरी जीवन की अमानवीयता को व्यक्त करते हैं. मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गाने की इन चंद पंक्तियों से इसे महसूस किया जा सकता है-

बेघर को आवारा यहां केहते हंस हंस
खुद काटे गले सब के कहे इस को बिज़नेस
इक चीज़ के हैं कई नाम यहां
ज़रा हट के ज़रा बच के
ये है बॉम्बे मेरी जान

इसी गाने में एक ऐसी पंक्ति भी है जो जीवन का दर्शन दे जाती है और वॉकर साहब ने इसे अपने अंदाज में पर्दे पर बखूबी उतारा है-

बुरा दुनिया वो है केहता ऐसा भोला तू ना बन
जो है करता वो है भरता ये जहां का है चलन
दादागीरी नहीं चलने की यहां
ये है बॉम्बे, ये है बॉम्बे
ये है बॉम्बे मेरी जान

प्यासा का चंपी वाला गाना लोगों की जुबान पर आज भी है. इस गीत में भी एक दर्शन है जिसे वॉकर साहब पर्दे पर फिल्माते हैं-

नौकर हो या मालिक
लीडर हो या पब्लिक
अपने आगे सभी झुके हैं
क्या राजा, क्या सैनिक
सुन सुन सुन, अरे राजा सुन
इस चम्पी में बड़े-बड़े गुण
लाख दुखों की एक दवा है
क्यूँ ना आजमाये
काहे घबराये, काहे घबराये

गुरु दत्त की जब मौत हुई उस वक्त वो बहारें फिर भी आएंगी  फिल्म बना रहे थे. इस फिल्म में जॉनी वॉकर एक प्रेस फोटोग्राफर की भूमिका निभाते हैं. इस फिल्म का एक गीत बेहद दिलचस्प है जिसे रफी साहब ने आवाज दी है.

हे सुनो सुनो
मिस चटर्जी
मेरे दिल का मेटर जी
कलकत्ते वाली
रूठ गयी क्यों
बात नहीं ये बेटर जी
बी इ टी टी इ र बेटर
बी इ टी टी इ र बेटर

जॉनी वॉकर कॉमेडी की दुनिया का एक ऐसा नाम है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. आनंद के डॉयलग (आनंद मरा नहीं, आनंद कभी मरते नहीं) की तरह ही हम कह सकते हैं कि जॉनी वॉकर मरे नहीं, जॉनी वॉकर मरते नहीं.


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