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Thursday, 21 November, 2024
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कैसे सिर्फ 7 सालों के अंदर आंध्र प्रदेश में कांग्रेस एकदम अप्रासंगिक हो गई?

कांग्रेस की आंध्र प्रदेश इकाई सालों से एकजुटता की कमी और नेतृत्व को लेकर आंतरिक संघर्ष जैसे मुद्दों से जूझ रही है, जो यहां इसके पतन की वजह रही है.

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हैदराबाद: 2009 में संयुक्त आंध्र प्रदेश के कुल 42 लोकसभा सदस्यों में से 33 कांग्रेस के थे, जो अब तक इस राज्य से संसद पहुंचने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों की सबसे अधिक संख्या रही है.

हालांकि, आंध्र प्रदेश के विभाजन के सात साल बाद इस समय में राज्य में पार्टी का एक भी निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं है, न विधानसभा में और न ही लोकसभा में आंध्र के विभाजन के बाद बने राज्य तेलंगाना में मात्र छह विधायकों और तीन सांसदों के साथ स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है.

2014 के बाद से कांग्रेस को दोनों तेलुगु भाषी राज्यों, खासकर आंध्र प्रदेश में राजनीतिक हार का सामना करना पड़ा है.

कांग्रेस की आंध्र प्रदेश इकाई कई सालों से एकजुटता की कमी और नेतृत्व को लेकर आंतरिक खींचतान जैसे मुद्दों से जूझ रही है और पार्टी के अपने कार्यकर्ताओं का ही कहना है कि यही इसके पतन की वजह रही है.

कागजों पर तो राज्य में कांग्रेस के पास लगभग 700 सदस्य हैं, जिनमें जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के अलावा मंडल, जिला और राज्य स्तर के नेता शामिल हैं. हालांकि, अपना नाम न छापने की शर्त पर कुछ पार्टी नेताओं ने दिप्रिंट को बताया कि उनमें से बमुश्किल 25 फीसदी ही सक्रिय हैं. यहां तक कि पार्टी कार्यकताओं के अभाव में आंध्र रत्न भवन—विजयवाड़ा स्थित मुख्यालय—के आसपास भी सन्नाटा ही पसरा रहता है.

कई नेताओं ने बताया कि हाल तो यह हो गया है कि पार्टी कार्यकर्ताओं, दो कार्यकारी अध्यक्षों एन. तुलसी रेड्डी और शेख मस्तान वली और नए पीसीसी प्रमुख साके शैलजानाथ के बीच संवाद में बेहद कमी आ गई है.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने अपना नाम न देने की शर्त पर कहा, ‘पार्टी में दो कार्यकारी अध्यक्ष हैं जो काफी हद तक अपने जिलों तक ही सीमित रहते हैं, हर महीने वाली कोऑर्डिनेशन मीटिंग नहीं होती हैं, नए पीसीसी प्रमुख नियमित रूप से कार्यालय नहीं आते हैं और जिला स्तर के नेताओं के साथ शायद ही कोई बातचीत होती हो, जो वैसे तो हर महीने होनी चाहिए.’

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘उन्होंने एक ‘स्लिप सिस्टम’ शुरू कर दिया है, जिसमें अगर कोई पार्टी कार्यकर्ता उनसे मिलना चाहता है तो उसे पहले से अप्वाइंटमेंट लेना होगा और नाम पर्ची पर लिखकर भेजा जाएगा. फिर अगर वह तैयार हुए तो कार्यकर्ता उनसे मिल पाएगा.’

एक अन्य नेता ने जमीनी स्तर पर पार्टी की मौजूदगी के अभाव का हवाला दिया. उन्होंने कहा, ‘हम पूरी तरह से जमीनी स्तर से कट गए हैं. और अपने कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर सक्रिय करने को लेकर एक बार हुई जूम मीटिंग में नए पीसीसी प्रमुख का कहना था कि प्रमुख विपक्षी दल टीडीपी (तेलुगुदेशम पार्टी) जमीनी स्तर पर गायब है इसलिए हमें ज्यादा तनाव नहीं लेना चाहिए.’

एक दलित नेता शैलजानाथ ने जनवरी में पार्टी की कमान संभाली थी. वह किरण कुमार रेड्डी की सरकार में कैबिनेट मंत्री थे और 2014 से पहले संयुक्त आंध्र प्रदेश में एक मुखर आवाज हुआ करते थे. हालांकि, 2014 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद से ही उन्होंने खुद को लो प्रोफाइल बना रखा है.

शैलजानाथ ने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे पता है कि ज्यादा संवाद नहीं होने को लेकर कार्यकर्ताओं में कुछ असंतोष है, लेकिन यह बदलने वाला है. अगले छह महीनों में हम अपना कैडर मजबूत करने और खुद को जमीनी स्तर पर सक्रिय दिखाने जा रहे हैं, इसलिए जनवरी तक यह कठिन समय जारी रहेगा.’

पीसीसी अध्यक्ष के तौर पर दलित नेता

शैलजानाथ से पहले पीसीसी प्रमुख रहे और अनंतपुर जिले के पूर्व मंत्री एन. रघुवीरा रेड्डी ने 2019 के चुनावों में पार्टी की हार के बाद इस्तीफा दे दिया था.

उसके बाद करीब आठ महीने तक पद खाली रहा और कोई यह जिम्मेदार संभलने को तैयार नहीं था, जो बताता है कि पार्टी का मनोबल किस हद तक गिर चुका है.

हालांकि, शैलजानाथ की नियुक्ति के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के अनुसार, जातिगत समीकरण भी बिगड़ गए हैं क्योंकि तमाम लोग किसी दलित नेता का ‘आदेश मानने’ को तैयार नहीं हैं.


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इसके अलावा, शैलजानाथ राज्य में कोई जाना-माना चेहरा भी नहीं है. यद्यपि वह पूर्व में कैबिनेट मंत्री रहे हैं और दो बार के विधायक भी हैं, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पीसीसी प्रमुख के पास व्यापक जनाधार का अभाव है.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक भंडारू श्रीनिवास राव ने दिप्रिंट से कहा, ‘(मैं) इस बात सहमत हूं कि रघुवीरा रेड्डी और शैलजानाथ दोनों पूर्व में मंत्री पदों पर रह चुके हैं और वे चर्चित चेहरे भी हैं, लेकिन क्या जिलों में जमीनी स्तर पर उनका कोई जनाधार है? ऐसा नहीं है.’

दरअसल, आंध्र प्रदेश कांग्रेस के पास बमुश्किल कुछ ही जाने-माने चेहरे हैं और अब भी व्यापक जनाधार रखने वाले कुछ नेता तो परिदृश्य से ही नदारत हैं. उदाहरण के तौर पर, पूर्व मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी पार्टी की राज्य कोर कमेटी के सदस्य हैं, लेकिन राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय नहीं रहे हैं.

कांग्रेस की छात्र इकाई, नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया के सदस्यों ने आरोप लगाया है कि पार्टी युवा पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए कोई ‘प्रशिक्षण कार्यक्रम’ तक आयोजित नहीं करती है.

उनका कहना है कि जिला स्तर पर नेतृत्व की निष्क्रियता अक्सर युवा कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर कुछ करने से रोकती है, जिससे मनोबल और ज्यादा गिरा है.

एनएसयूआई के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा, ‘भारतीय जनता पार्टी को देखिए, वे अपने कार्यकर्ताओं के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करते हैं और उन्हें अपनी विचारधारा से अवगत कराते हैं, यहां ऐसा कुछ नहीं होता. आधे लोगों को तो यह भी नहीं पता कि कांग्रेस की विचारधारा क्या है.’

उन्होंने कहा, ‘पैसा भी एक बड़ा मुद्दा है, भाजपा के पास फुल-टाइम और पार्ट-टाइम कार्यकर्ता हैं. कम से कम पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को पार्टी से सामाजिक सुरक्षा मिलती है, कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं है, तो कार्यकर्ताओं को काम करने या यात्रा करने के लिए कैसे प्रेरित किया जाए?’

टीडीपी के विपरीत कांग्रेस राज्य में कई प्रमुख मुद्दों पर विपक्ष के तौर पर अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रही है, जिसमें ‘विशेष श्रेणी के दर्जे’ की मांग और विशाखापत्तन स्टील प्लांट के निजीकरण के विरोध में विरोध प्रदर्शन शामिल हैं.

यहां तक कि यहां शायद ही कोई उपस्थिति रखने वाली भाजपा भी राज्य में मंदिर पर हमलों के मुद्दे को उठाकर सुर्खियों में छाई रहने में कामयाब रही है.

2014 के विभाजन का नतीजा

यद्यपि केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग को पूरा किया, लेकिन पार्टी इसे भुनाने में नाकाम रही.

इसके बजाये इस कदम का श्रेय के. चंद्रशेखर राव ने ले लिया, जिसने उन्हें 2014 में सीएम की कुर्सी भी दिला दी. इस बीच, आंध्र प्रदेश में पार्टी को विभाजन की राह पर आगे बढ़ने के लिए तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा था.

राव ने कहा, ‘तेलुगु में एक कहावत है ‘रेंतिकी चेड़ा रेवाड़ी’, जिसका अर्थ है ‘न यहां के रहे न वहां के.’ पार्टी का हाल कुछ ऐसा ही हो गया है और वह तेलंगाना और आंध्र प्रदेश दोनों में मौकों (विभाजन के कारण उपजे) का फायदा नहीं उठा पाई.’

उन्होंने कहा, ‘विभाजन विरोधी भावना के कारण उन्हें बेहद अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा जो पहले कभी नहीं हुआ था, और लोगों में पार्टी के प्रति नाराजगी इसलिए थी कि वह विभाजन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहे थे. इस तरह यह दांव उस पर उल्टा पड़ गया.’

विभाजन के नतीजों के अलावा मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी के पक्ष में निष्ठाएं बदल जाना कांग्रेस के लिए एक और बड़ा झटका था.

उनके पिता स्वर्गीय वाई.एस. राजशेखर रेड्डी, जो आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री भी थे, राज्य में कांग्रेस का एक सशक्त चेहरा थे.

हालांकि, 2009 में एक हेलीकॉप्टर हादसे में इस नेता की आकस्मिक मौत पार्टी के लिए पहला बड़ा झटका था, जिसके कारण उसका ग्राफ नीचे की ओर चला गया.

भारी चुनावी नुकसान

2014 के बाद से कांग्रेस को मिल रही चुनावी हार भी इस क्षेत्र में पार्टी के पतन का संकेत देती है.

2014 में टीडीपी-भाजपा गठबंधन ने सीमांध्र क्षेत्र—मौजूदा आंध्र प्रदेश को विभाजन से पहले में इसी नाम से जाना जाता था—की 25 में से 17 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी और वाईएसआरसीपी ने लगभग 8 सीटें जीती थीं. हालांकि, कांग्रेस के खाते में कोई सीट नहीं आई थी.

उसी वर्ष विधानसभा चुनावों के दौरान पार्टी को कुल 175 में से 150 निर्वाचन क्षेत्रों में हार का सामना करना पड़ा.

तेलंगाना में कांग्रेस ने सभी 17 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन उनमें से केवल दो को ही बरकरार रख पाई.

विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कुल 119 सीटों में से 21 सीटों पर जीत हासिल की थी.

हालांकि, चुनाव संयुक्त आंध्र प्रदेश में हुए थे, लेकिन पार्टियों ने 2 जून 2014 को आधिकारिक विभाजन के बाद अलग सरकारें बनाईं.

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, आंध्र प्रदेश में पार्टी का वोट शेयर भी 2009 में 38.95 फीसदी की तुलना में 2014 में गिरकर 11.5 फीसदी रह गया.

यह सिलसिला बाद के चुनावों में भी जारी रहा. 2019 के विधानसभा या आम चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली.

चुनाव आयोग के अनुसार, पार्टी को राज्य में केवल 1.17 प्रतिशत वोट मिले, जो विधानसभा चुनावों में नोटा के 1.28 प्रतिशत से भी कम रहे हैं.

लोकसभा चुनावों में यह नोटा के 1.49 प्रतिशत वोटों के मुकाबले 1.29 प्रतिशत वोट शेयर ही हासिल कर पाई.

उधर, तेलंगाना में पार्टी ने 2018 के चुनावों में केवल 19 विधानसभा सीटें जीतीं, लेकिन उसके 12 विधायक सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) में चले गए, जिससे यह एकदम धरातल पर आ गई.

राज्य के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता मैरी शशिधर रेड्डी ने कहा, ‘पार्टी हर चुनाव के बाद जरूरी सुधार करने में नाकाम रही है. उन्हें पीछे पलटकर यह तो देखना चाहिए था कि कम से कम उन निर्वाचन क्षेत्रों में उसे क्यों और कैसे हार का सामना करना पड़ा जो उसका गढ़ रही हैं.’

हालांकि, तेलंगाना में नए पीसीसी प्रमुख के रूप में रेवंत रेड्डी की नियुक्ति के साथ पार्टी कैडर में उम्मीद फिर से जगी है.

माना जा रहा है कि केसीआर के कट्टर आलोचक 53 वर्षीय नेता रेड्डी के नेतृत्व में पार्टी को खुद को फिर से खड़ा करने का एक अच्छा मौका मिला है जो कि राज्य में खात्मे के कगार पर पहुंच चुकी है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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