प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मंत्रिमंडल में किये गए महाबदलाव के बारे में काफी खबरें आईं. लेकिन, एक ऐसी घटना जिसके बारे में अपेक्षाकृत काफी कम बातें हुईं, वह थी – स्मृति ईरानी से एक मंत्रालय का छीना जाना. यह विषय इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि यह इस सरकार में स्मृति ईरानी के करियर का वो ट्राजेक्ट्री ग्राफ है जो इस बात की ओर इशारा करता है कि मोदी के मानव संसाधन प्रबंधन की कौशलता में क्या गलत है.
अमेठी की इस सांसद, जो पहले कपड़ा और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय दोनों संभालती थी, के पास अब केवल बाद वाला मंत्रालय (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय) ही बचा है. यह निर्णय इस नजरिये से भी आश्चर्यजनक दिखता है क्योंकि स्मृति ईरानी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को अमेठी जैसी सीट से बड़ी जीत दिलाई थी और यह उम्मीद की जा रही थी कि इसके लिए उन्हें ‘खासमखास’ विभागों के साथ पुरस्कृत किया जाएगा. संभवतः पहली मोदी सरकार में एक मंत्री के रूप में उनका निराशाजनक प्रदर्शन ही उनके वर्तमान विभागों – जिसे सत्ता के गलियारों में ‘कम महत्वपूर्ण’ माना जाता है – के आवंटन के आशय को समझा सकता है.
लेकिन मौजूदा कार्यकाल में अपना सिर शांति के साथ नीचे रखने और किसी भी तरह के विवाद को आमंत्रित न करने के कारण, स्मृति ईरानी, यदि पदोन्नति के लायक नहीं हैं, तो किसी भी तरह से एक मंत्रालय से वंचित किये जाने के लायक भी नहीं थीं. यह ज़रूर हो सकता है कि ईरानी ने पिछले दो सालों में अपने मंत्रालयों में कोई शानदार काम न किया हो, लेकिन इस सरकार में शामिल कई अन्य मंत्रियों ने भी कुछ खास कमाल नहीं किया है.
जब ईरानी एक अनुभवहीन प्रशासक थीं और उनके पाले में किसी तरह की कोई वास्तविक राजनीतिक सफलता भी नहीं थी, तब उन्हें प्रतिष्ठित समझे जाने वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय (जो अब शिक्षा मंत्रालय है) और बाद में सूचना और प्रसारण मंत्रालय जैसे कठिन मंत्रालय दे कर भरोसा किया गया था. लेकिन अब जब इस 45 वर्षीया नेत्री ने कुछ राजनीतिक कद और प्रशासन का अनुभव हासिल कर लिया है, तो लगता है कि उनके साथ उचित व्यव्हार नहीं हो रहा है.
उनका करियर ग्राफ बराबर नहीं बैठता और न ही यह मानव संसाधन से सम्बंधित योजना निर्माण के मामले में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के आलाकमान की शक्ति से बारे में किसी भी तरह की निपुणता को ही दर्शाता है.
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तेजी के साथ पतन से पहले का उत्थान
जब 2014 में नरेंद्र मोदी पहली बार केंद्र में सत्ता में आए थे तो उनके मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पदों को भरने के लिए नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली जैसे कुछ अनुभवी नेता थे. लेकिन मोदी के साथ बहुत से कच्चे लोग भी थे, ऐसे चेहरों के साथ जिन्हें ज्यादा प्रशासनिक अनुभव नहीं था. उनकी सरकार में व्यापत मानव संसाधन संकट के बारे में अक्सर बात की जाती रही है.
स्मृति ईरानी बाद की श्रेणी में शामिल नेताओं में से थीं और मोदी ने उन्हें शिक्षा मंत्रालय जैसा विभाग सौंपकर आश्चर्यचकित कर दिया था. और उसके बाद, जैसा कि सब कहते हैं, बाकी तो इतिहास है. ईरानी एक विवाद से दूसरे विवाद में गिरती-उलझती रहीं और अक्सर अकेले ही सरकार के बारे में बुरी खबरों को न्योता देती रहीं.
‘फर्जी डिग्री’ विवाद से लेकर उनकी येल यूनिवर्सिटी के बारे में टिप्पणी तक, केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने और स्कूलों को 25 दिसंबर को ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का निर्देश देने से लेकर रोहित वेमुला की घटना तक – ईरानी हमेशा गलत बातों के लिए चर्चा में बनी रहीं थीं.
इससे पता चलता है कि उस समय स्मृति ईरानी ऐसी नाजुक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए – जिनके लिए अच्छा संतुलन साधने की जरूरत होती है- कुछ हद तक तैयार नहीं थीं. वरिष्ठ नौकरशाहों और मीडिया के साथ उनका सख्त बर्ताव किसी को भी बहुत जल्द और बहुत अधिक दिए जाने का एक सटीक मामला था.
स्मृति ईरानी का उदय काफी तेजी से हुआ था. नरेंद्र मोदी का सार्वजनिक रूप से विरोध करने और 2002 के गुजरात दंगों पर मीडिया में उनके खिलाफ टिप्पणी करने से लेकर भाजपा की महिला प्रशाखा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने, गुजरात से राज्यसभा सांसद चुने जाने और फिर केंद्रीय मंत्री बनने तक का रास्ता काफी तेजी से तय किया था. लेकिन उनका पतन भी उतनी ही तेजी से हुआ था.
2016 के मध्य में उन्हें मानव संसाधन मंत्रालय से हटा दिया गया था और 2017 के मध्य में उनका सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी के साथ उनकी प्रतिष्ठा लौटाई और फिर एक-के-बाद-एक गलितयों की शृंखला के बाद उन्हें उस मंत्रालय से भी हटा दिया गया था.
यह स्पष्ट था कि मोदी ने इस तेज तर्रार नेता को इतनी जल्दी इतनी बड़ी जिम्मेदारियां देकर गलती की थी.
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दूसरी पारी
जब तक भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू की, तब तक ईरानी को लगभग भुला सा दिया गया. आखिरकार, उन्होंने अभी तक कोई चुनाव नहीं जीता था (भले ही उन्होंने चांदनी चौक और अमेठी जैसी सीटों में जोशपूर्ण लड़ाइयां लड़ी थीं) और सरकार में रहते हुए सिर्फ एक प्रकार की बोझ (लाइबलिटी) ही साबित हुई थीं.
लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव ने सब कुछ बदल कर रख दिया. अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ उस एक जीत के साथ, ईरानी ‘जायन्ट किलर’ बन गईं, अब वह एक ऐसी जोशीली परिसंपत्ति थीं जिसकी भाजपा को जरूरत थी. इस जीत का मतलब था कि इस अभिनेत्री-से-नेत्री बनीं ईरानी ने पार्टी में अपना महत्व स्थापित कर लिया था और आगे चलकर मोदी और अमित शाह के लिए उन्हें नजर अंदाज करना मुश्किल होगा. वास्तव में, जब भी भाजपा को राहुल गांधी के खिलाफ हमला करने की जरूरत होती है, तो वह तुरंत उन्हें आगे कर देती थी.
इसलिए मोदी 2.0 में, ईरानी को अधिक महत्वपूर्ण विभागों के रूप में देखे जाने वाले मंत्रालयों के साथ पुरस्कृत किये जाने की उम्मीद थी. बेशक, सभी मंत्रालय महत्वपूर्ण होते हैं और कुछ को महत्वहीन कहना अनुचित है, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ विभाग दूसरों की तुलना में अधिक प्रतिष्ठा रखते हैं और ‘पदोन्नति’ से भी सम्बंधित होते हैं.
स्मृति ईरानी पिछले दो वर्षों से एक ही रट लगाए जा रही हैं कि – उन्होंने भाजपा को ऐसी बड़ी जीत दिलाई जिसे भाजपा आने वाले दशकों तक गर्व से प्रदर्शित कर सकती है, चुपचाप और काफी विवेकपूर्ण ढंग से काम किया है और विवादों या अनावश्यक ध्यान खींचने से भी बची रही है. यह महत्वपूर्ण बात है, खासकर तब जब कि मोदी सरकार के बहुत से मंत्रियों ने खुद को विवादों में घिरा पाया है – निर्मला सीतारमण की अर्थव्यवस्था को संभालने की उत्साहहीन क्षमता और उनके कटाक्ष – ‘मैं प्याज नहीं खाती’– से लेकर अनुराग ठाकुर की निंदनीय नारेबाजी – ‘गोली मारो सालों को’ – तक तथा रविशंकर प्रसाद के ट्विटर युद्ध और बहुत कुछ तक. हालांकि उनमें से कुछ को बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया है, पर कई अन्य को पुरस्कृत किया गया है. अनुराग ठाकुर एक ऐसा ही नाम हैं.
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अनुचित व्यवहार
इस सब के बीच, स्मृति ईरानी का एक विभाग से वंचित होना परेशान करने वाला मामला लगता है. खासकर तब जब भाजपा नई मंत्रीपरिषद में कुल 11 महिला मंत्रियों – पिछले 17 साल में सबसे ज्यादा– को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है. लेकिन, वित्त मंत्रालय को छोड़कर, महिलाओं को प्रमुख विभागों से वंचित किया जाना हमें दूसरी ही बात बताता है, और स्मृति ईरानी का मामला हमें और भी कुछ कहता है.
कुछ लोग पूछते हैं – उनकी योग्यता क्या है? खैर, हर्षवर्धन एक डॉक्टर हैं, और स्वास्थ्य मंत्रालय और महामारी से निपटने के उनके तरीके हमें इस बारे में पर्याप्त रूप से बताते हैं कि योग्यताएं क्यों वास्तव में सुशासन में तब्दील नहीं होती है.
हां यह सही है कि ईरानी को राजनीतिक मामलों की महत्वपूर्ण कैबिनेट कमेटी में शामिल किया गया है. लेकिन क्या यह उस मंत्री के लिए काफी है जिसे अब सरकार में शामिल हुए 7 साल का वक्त हो चुका है, जिसने एक भारी-भरकम राजनीतिक जीत हासिल की है, और जो आपके सबसे लोकप्रिय महिला चेहरों में से एक है?
राजनीति उस कृत्य को पुरस्कृत करने के बारे में है जो कोई आपके लिए करता है. कांग्रेस से आयातित होने के बाद भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को नागरिक उड्डयन जैसा प्रमुख मंत्रालय दिया गया है, एक ऐसे समय में जब एयर इंडिया के विनिवेश का मुद्दा सरकार की प्राथमिकता है, क्योंकि उन्होंने आपके लिए एक पूरे राज्य को वापस जीत लिया. इसी तर्क के आधार पर ईरानी ने अमेठी विजय के साथ पहले कभी न मिलने वाली जीत दिलाई. स्मृति ईरानी ने मोदी के पहले कार्यकाल में भले ही मुश्किलें खड़ी की हों, लेकिन अगर पीएम सिंधिया के ऊपर विश्वास दिखा सकते हैं – जिनकी प्रशासनिक क्षमताओं के बारे में हम केवल संप्रग सरकार में राज्य मंत्री के रूप में उनके पहले के कार्यकाल के माध्यम से जानते हैं – तो निश्चित रूप से अमेठी के सांसद को एक और मौका मिलना चाहिए था.
भाजपा नेतृत्व ने 2014 में ईरानी को उनकी योग्यता की तुलना में कहीं अधिक जिम्मेदारियां सौंपी, जिन्होंने उन्हें लगभग विफलता के कगार पर ला दिया और अब जब उनके पास प्रमुख पदों पर रहकर चीजों में बदलाव लाने का अच्छा मौका था, तो उन्हें हासिये पर रखा जा रहा है.
स्मृति ईरानी का करियर ग्राफ एकदम गलत रहा है, कुछ हद तक उल्टा भी. उन्हें शासन प्रणाली के अपरिचित से क्षेत्र में धीरे-धीरे लाया जाना चाहिए था, और फिर उन्हें पदोन्नति अर्जित करने की अनुमति दी जानी चाहिए थी. यह सब दर्शाता है कि क्यों नरेंद्र मोदी कैबिनेट की खराब बेंच स्ट्रेंथ और उसका औसत दर्जे का प्रदर्शन शायद पीएम के योजना निर्माण से भी उतना ही जुड़ा है, जितना कि उनके सैनिकों की क्षमता से.
(यहां व्यक्त विचार निजी है)
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