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Saturday, 9 November, 2024
होममत-विमतअफगानिस्तान से अमेरिका तो निकल रहा है लेकिन चीन वहां घुसने में कोई जल्दबाजी नहीं करेगा

अफगानिस्तान से अमेरिका तो निकल रहा है लेकिन चीन वहां घुसने में कोई जल्दबाजी नहीं करेगा

अगर चीन इस क्षेत्र में स्थिरता चाहता है तो उसे रावलपिंडी को समझाना पड़ेगा कि वो अफगानिस्तान में इस्लामी ताकतों को शह देने की नीति बंद करे.

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अमेरिका जबकि अफगानिस्तान से अपनी वापसी की तैयारी कर रहा है, मुझे एक और ऐतिहासिक मौके- शीतयुद्ध की समाप्ति की याद आ रही है. ऐसे मौकों पर लोग साज़िशों की तरह-तरह की कहानियां कहा करते हैं. अमेरिका की वापसी अप्रत्याशित लग रही है क्योंकि कई लोग इसके बारे में सोचना नहीं चाहते थे. इससे एक तरह का राजनीतिक, भू-राजनीतिक और भावनात्मक असंतुलन पैदा हो जाएगा, जिसे कई लोग इस क्षेत्र के लिए एक नये भविष्य की कल्पना करके दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं.

एक विचार यह है कि अफगानिस्तान का भविष्य अब चीन तय करेगा. चीन के पास बेशक इतनी क्षमता है कि अमेरिका या यूरोपीय संघ से मुकाबला कर सके लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह युद्धग्रस्त देश में अपनी संसाधन की बरसात कर दे या अमेरिका की नकल करे. वहां नकल में करने को तो कई काम हैं मगर ज्यादा संभावना यह है कि कुछ काम किए जाएंगे और कुछ छोड़ दिए जाएंगे. अंततः, जो अफगानिस्तान हमारे सामने होगा वह पश्चिमी प्रभावों से काफी मुक्त होगा.

चीन युद्धग्रस्त अफगानिस्तान की ज़िम्मेदारी उठाने की हड़बड़ी में नहीं दिखेगा, हालांकि आम धारणा यही है कि अफगानिस्तान इसी दिशा में चल पड़ेगा.


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चीन ‘बहुत गंभीर’ है

कई पत्रकार इस तरह की खबरें दे रहे हैं, जैसी हाल में ‘द डेली बीस्ट’ अखबार में छपी है. इस लेख में कहा गया है कि अफगानिस्तान में चीनी निवेश में वृद्धि की संभावनाएं हैं. खबर है कि चीन अफगानिस्तान में संसाधन विकसित करने में जुटा हुआ है.

अपनी ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल (बीआरआई) और चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर (सीपीईसी) योजना को मजबूत करने के लिए काबुल की सरकार और तालिबान से समर्थन हासिल करने की बीजिंग कोशिश कर रहा है. यह तर्क काफी आकर्षक लगता है, मगर यहां पर हेनरी किसिंगर के वे निर्देश याद आते हैं, जो उन्होंने 1972 में चीन का ऐतिहासिक दौरा करने जा रहे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को दिए थे. चीन-अमेरिका सुलह के मकसद से अपने कई गुप्त दौरों में अमेरिकी विदेश मंत्री किसिंगर ने जो कुछ देखा-समझा उसे 5 फरवरी 1972 को अपने राष्ट्रपति को भेजे ज्ञापन में संक्षेप में लिखकर दे दिया था. उन्होंने लिखा था-

‘चीन के सारे नेता काफी गंभीर किस्म के लोग हैं, वे अपने मत से ऐसी किसी चीज से नहीं डिग सकते जिसमें उन्हें मौकापरस्ती या लाभ उठाने की बू आती हो… यह इतिहास की उनकी समझ और आगे के उनके कदम की जरूरत के बीच दुविधा को प्रतिबिंबित करता है… वे दूर की सोचते हैं. वे मानते हैं की इतिहास उनके पक्ष में रहेगा.’


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चीन संकेतों का इंतजार करेगा

चीन अफगानिस्तान में दांव तो लगाएगा मगर इसमें हड़बड़ी नहीं करेगा. वह अमेरिकी राजनीतिक दलदल में कदम नहीं रखना चाहेगा. बल्कि वह वहां दांव लगाने वालों को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के संदेश पर गौर करने को कहेगा.

बाइडन का संदेश यह है कि अमेरिका अल्पकालिक वित्तीय सहायता देगा और काबुल में बनने वाली सरकार पर भी नज़र रखेगा लेकिन अंततः अफगानिस्तान को अब अपने पैरों पर खड़ा होना है और अपने सारे मसलों को खुद ही निhटाना है या वह इसमें क्षेत्रीय खिलाड़ियों की मदद ले सकता है, जिन्हें भौगोलिक बाध्यताओं के कारण अमेरिका के मुकाबले ज्यादा हासिल करना या गंवाना है.

जहां तक चीन की दीर्घकालिक योजनाओं का सवाल है, ऐसा लगता है कि उसने जो चाहा था वह उसे मिल गया है- अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से लौट गई है. चीन और पाकिस्तान, दोनों ही 9/11 के बाद से यह वापसी चाह रहे थे.

अफगानिस्तान पर गहरी नज़र रखने वाले सूत्रों ने बातचीत में मुझे बताया कि पाकिस्तान, रूस, ईरान की तरह चीन भी इस कोशिश में जुटे थे कि अमेरिका वहां जिस तरह की सरकार थोपने की कोशिश कर रहा था उसके खिलाफ तालिबान मजबूती से खड़ा हो. एक सूत्र ने बताया कि चीन भी उन तालिबान कमांडरों के प्रशिक्षण में शामिल था, जो अफगानिस्तान जाकर और ज्यादा लोगों को प्रशिक्षित करें ताकि वे अमेरिकी सेना का मुकाबला कर सकें और इस तरह अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहना और महंगा पड़े. लेकिन जो चीज एक बार शुरू की जा चुकी थी उसे आसानी से रोका नहीं जा सकता.


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धीरे चलो

हालांकि तालिबान, दूसरे गुटों और सरकारी शक्तियों जैसे स्थानीय अफगान दावेदारों के बीच लड़ाई जारी रहेगी लेकिन इससे वह स्थिरता नहीं आएगी जो निवेश के लिए जरूरी होती है. चीन इस झगड़े में उलझ कर किसी एक प्रतिद्वंदी की नज़र में चढ़ना नहीं चाहेगा. वह ‘अमेरिका से अलग’ दिखना चाहेगा क्योंकि वह जो दांव लगाएगा उससे कोई राजनीतिक शर्त नहीं जुड़ा होगा. अफगानिस्तान के विभिन्न सरकारी सूत्र यही संकेत देते हैं कि अपनी बेहतर छवि के बावजूद चीन निवेश करने में सावधानी और सुस्ती बरतता रहा है.

यह भी साफ दिखता है कि पाकिस्तान में निवेश करने के मामले में चीन कितनी सावधानी बरतता है और प्रमुख योजनाओं को किस तरह धीमी गति से आगे बढ़ाता रहा है. इसका इस बात से बहुत ताल्लुक नहीं है कि पाकिस्तान पश्चिमी देशों के प्रति किस तरह दोस्ताना रुख जताता रहा है. रिको दिक़ कॉपर खान इसका एल उदाहरण है. चीन इस परियोजना में सन 2000 से दिलचस्पी ले रहा है लेकिन इन खानों के विकास के संयुक्त उपक्रम में किए गए करारों का पालन न करने पर विश्व बैंक ने पाकिस्तान पर 5.8 अरब डॉलर का जो जुर्माना लगाया है उससे उसे राहत दिलाने में चीन कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा है. तांबे की नीची कीमत के बावजूद चीन को इसमें भी एक मौका दिख रहा है— उन संसाधनों के लिए ज्यादा पैसा क्यों दिया जाए जिसका दोहन अंततः कम लागत पर किया जा सकता है.

अफगानिस्तान में अस्थिरता पाकिस्तान के कॉर्पोरेट सेक्टर के आत्मविश्वास को जिस तरह कमजोर कर रही है और उसे वहां फिर हिंसा भड़कने की जो आशंका दिख रही है उसके मद्देनजर चीन को आगे चलकर काफी फायदा हो सकता है. पाकिस्तान और चीन अगर अपने प्राकृतिक संसाधनों से पैसे कमाना चाहते हैं तो वे चीन की ओर रुख कर सकते हैं.

अमेरिका को जब प्रतिरोध का सामना करना पड़ा उसके बाद चीन के बारे में जो अच्छी बातें कही जाने लगीं उससे उसे फायदा मिला. चीन के पाकिस्तानी साथी दुनिया से यह कहते नहीं थकते कि ऐतिहासिक रूप से चीन अमेरिका के मुकाबले कितना ज्यादा विश्वसनीय रहा है. कि वह साथ नहीं छोडता और राजनीतिक मांग नहीं करता. लेकिन चीन सावधान रहेगा कि उसके इलाके में उग्रवाद सिर न उठाए और मुस्लिम आबादी वाले इसके इलाकों को प्रभावित न करे. आखिर, ‘सीपीईसी’ का मकसद शिंजियांग का विकास करना और पाकिस्तान के रास्ते आर्थिक प्रोत्साहन देना है, जिससे उग्रवाद विरोधी प्रयासों को बल मिलेगा. चीन अपनी सीमा की फिक्र तो करेगा लेकिन अफगानिस्तान की अराजकता में दखल नहीं देना चाहेगा. यहां तक कि पाकिस्तान भी उसके लिए चिंता का कारण बन सकता है. खबरें हैं कि आतंकवादी गिलगिट-बाल्टीस्तान क्षेत्र में लौट रहे हैं और वहां हाल में एक तालिबान कमांडर तथा उसकी टीम को स्थानीय लोगों से बातचीत करते देखा गया.

फिलहाल चीन का आत्मविश्वास काफी कम समय के लिए है और वह दो बातों पर निर्भर है— पहली यह कि कोई भी आतंकवादी गुट इतना मजबूत नहीं है कि चीन के लिए वास्तविक खतरा बन सके. उनके अंदर ही इतनी कलह है कि वे बिखरे रहेंगे. अफगानिस्तान में डाएश की मौजूदगी कुछ समय के लिए तालिबान के लिए बाधा बन सकती है. इसके अलावा काबुल की सरकार और सेना भी तालिबान को भटका सकती है, जो इस क्षेत्र में अमेरिकी प्रभाव की याद दिलाता है. अफगान सेना भले सबसे मजबूत न हो मगर उसमें लड़ने का दमखम तो है ही.

दूसरी बात यह है कि चीन पाकिस्तान को माध्यम बनाकर काम और संवाद करता रहेगा. तालिबान की कामयाबी या नाकामी से सबसे ज्यादा नुकसान या फायदा उसी का होना है. इस्लामाबाद से तो यह संकेत मिल रहा है कि उसकी फौज तालिबान की मौजूदगी के कारण बहुत घबराई हुई है लेकिन रावलपिंडी के लिए अफगान उग्रवादी सबसे बड़ी थाती हैं.


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रावलपिंडी पर चीन का दबाव

अगर चीन इस क्षेत्र में स्थिरता चाहता है तो उसे इसके लिए अपने रणनीतिक सहयोगी रावलपिंडी को समझाना पड़ेगा, अफगानिस्तान में इस्लामी ताकतों को शह देने और स्थिर राजनीतिक ढांचे की कमी से लाभ उठाने की नीति को छोड़ना पड़ेगा.

बीते कई दशकों में पाकिस्तानी सत्तातंत्र ने इस्लामवाद से ज्यादा पश्तून राष्ट्रवाद के डर से तालिबान पर दांव लगाया. लेकिन तालिबान डूरंड रेखा को स्थायी सरहद बनाने के विचार का समर्थन नहीं करता. उदारवादी राष्ट्रवादियों से डर ज्यादा है. हालांकि पाकिस्तानी आईएसआई के पूर्व प्रमुख ले. जनरल (रिटा.) असद दुर्रानी समेत कई सूत्रों ने कहा है कि डूरंड रेखा को लेकर जो विवाद है उसका तकनीकी समाधान किया जा चुका है लेकिन मसला अभी भी बाकी है. दुर्रानी ने यह टिप्पणी काबुल में पाकिस्तान-अफगानिस्तान ट्रैक-2 बैठक में की थी, जिसमें यह लेखिका भी शामिल थी. इसके अलावा, हालांकि पश्तूनों ने पाकिस्तान में अच्छी जड़ जमा ली है लेकिन सीमापार के पश्तूनों से जुड़ाव का शक कायम है. दक्षिण एशिया में कुशासन और निरंकुशता का मेल उप-राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने का सटीक कारण है.

वैसे, पाकिस्तान को अफगान मिलिशिया के प्रति अपनी नीति बदलने के लिए राजी कर लेने से समस्या खत्म नहीं होती क्योंकि किसी को भी भरोसा नहीं है कि पाकिस्तान उनको काबू में रख पाएगा. पाकिस्तानी फौज और तालिबान के करीबी रिश्ते जगजाहिर हैं लेकिन इसे कबूलने में पाकिस्तानी सेना अध्यक्ष जनरल कमर बाजवा लड़खड़ा जाते हैं. मामला केवल पाकिस्तान की नकारात्मक छवि का नहीं है, असलियत यह है कि वे तालिबान की हर चाल पर नियंत्रण नहीं रख सकते इसलिए पाकिस्तान को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है. इन हालात में चीन केवल अल्पकालिक सामरिक दांव लगाने की सोच सकता है. फिलहाल तो अमेरिका की वापसी ही सबसे बड़ा रणनीतिक लाभ है.

(लेखिका एसओएएस, लंदन में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक, इनसाइड पाकिस्तान्स मिलिट्री इकोनॉमी’ नामक किताब लिखी है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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