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Monday, 25 November, 2024
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20 वर्षों के विश्लेषण से हुआ ख़ुलासा, पेट्रोल और डीज़ल के बढ़े दामों से कभी भी इनकी खपत कम नहीं हुई है

दिप्रिंट ने 1999-2000 और 2019-20 के बीच, पेट्रोल और डीज़ल के दाम और खपत के आंकड़ों पर निगाह डाली, और उसे कोई स्पष्ट पैटर्न नज़र नहीं आया.

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नई दिल्ली: मार्च-अप्रैल में विधान सभा चुनावों के बाद से निरंतर वृद्धि के चलते, राष्ट्रीय राजधानी समेत देश के कई हिस्सों में, पेट्रोल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर के निशान को पार कर गए.

लेकिन, अगर क़ीमतें बढ़ रही हैं तो क्या ईंधन की खपत पर इसका असर नहीं होना चाहिए?

वित्त वर्ष 1999-2000 और 2019-20 के बीच, 20 वर्षों के अधिकारिक आंकड़ों पर नज़र डालने पर पता चलता है, कि पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों और उनकी मांग के बीच कोई रिश्ता नज़र नहीं आता. (महामारी की वजह से पिछले साल भारत में तेल की खपत घट गई थी, इसलिए वित्त वर्ष 2020-21 को रिपोर्ट के दायरे से बाहर रखा गया है.)

दिप्रिंट ने पेट्रोलियम पदार्थों की मासिक क़ीमतों की साल दर साल की वृद्धि पर नज़र डाली (महीने के अंत के आंकड़े लिए गए), और उनकी तुलना संबंधित महीनों की खपत से की.

पेट्रोलियम प्लानिंग एंड अनालसिस सेल (पीपीएसी) के डेटा से पता चलता है, कि ईंधन की क़ीमतें बढ़ने के नतीजे में खपत के पैटर्न में उम्मीद के मुताबिक बदलाव नहीं आता.

उदाहरण के तौर पर, सितंबर 2000 में जब पेट्रोल के दाम में 19.5 प्रतिशत की तेज़ी आई- सितंबर 1999 में 23.8 रुपए से बढ़कर सितंबर 2000 में 28.44 रुपए- तो उसकी खपत 22 प्रतिशत बढ़ गई (4,74,000 टन से बढ़कर 5,77,500 टन).

लेकिन, जून 2009 में जब पेट्रोल की क़ीमतों में पिछले साल के मुकाबले 37 प्रतिशत की वृद्धि हुई, तो उसकी खपत 20 प्रतिशत कम हो गई.

Graphic: Ramandeep Kaur | ThePrint
ग्राफिक्स: रमनदीप कौर/दिप्रिंट

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मूल्य-निर्पेक्ष ईंधन और फिलहाल के कारक

ईंधन की खपत पर क़ीमतों की प्रतिक्रिया नहीं होती, क्योंकि ये एक आवश्यक वस्तु है जिसका कोई विकल्प नहीं है. अल्प-काल में न तो उपभोक्ता के पास कोई दूसरा विकल्प है, न ही वो इसके इस्तेमाल को बंद करने या टालने की स्थिति में हैं.

अर्थशास्त्र में ऐसी वस्तुओं को ‘मूल्य-निर्पेक्ष वस्तुएं’ माना जाता है. आवश्यक वस्तुएं आमतौर से इसी श्रेणी में आती हैं.

अर्थशास्त्री और सार्वजनिक वित्त व नीति के राष्ट्रीय संस्थान की फेलो राधिका पाण्डेय का मानना है कि मांग का ‘बेलोच’ होना उन कारकों में से एक है, जिनकी वजह से केंद्र सरकार महामारी से हुए नुक़सान को झेल पाई है.

उन्होंने कहा, ‘महामारी ने भारत की वित्तीय स्थिति को नाज़ुक बना दिया है. प्रत्यक्ष कर संग्रह में भारी गिरावट आई है, और साथ ही सरकार को स्वास्थ्य देखभाल और अन्य कल्याणकारी स्कीमों के मद में होने वाले ख़र्च को बढ़ाना पड़ा है. राजस्व में लगातार वृद्धि के कोई आसार न होने से, ईंधन पर करों को बनाए रखना ही एक मात्र विकल्प बचता है’.

पाण्डे ने आगे कहा,‘ऐसे संकट के समय में मांग के बेलोच होने से, सरकार को दरअसल अपने नुक़सान की भरपाई करने में मदद मिल रही है’.

लेकिन, ऐसा नहीं है कि महंगाई बिल्कुल प्रासंगिक नहीं है. चुनावों के दौरान, जैसा कई बार देखा गया है, क़ीमतों को नियंत्रण में रखा जाता है.

देहरादून की यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज़ के अर्थशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर शुभम कुमार ने कहा, ‘पुराने सबूतों से इस दलील को बल मिलता है कि ईंधन की मांग मूल्य-निर्पेक्ष होती है. लेकिन, ये तर्क देना उचित नहीं होगा कि मूल्य-निर्पेक्षता ईंधन की क़ीमतें क़ाबू न करने की प्रेरणा बन जाए’.

उनका कहना है कि पेट्रोलियम क़ीमतें घटाने की नरेंद्र मोदी सरकार की मौजूदा अनिच्छा के पीछे, कई वैश्विक कारक काम कर रहे हैं.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘भारत ने 2014 में ईंधन क़ीमतों को नियंत्रण-मुक्त कर दिया था, जब वो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बहुत निचले स्तर पर थीं. एक के बाद एक सुधारों और कल्याणकारी योजनाओं के चलते, बजट को संभालने के लिए भारत ने कर बढ़ाने शुरू कर दिए. अब, कच्चे तेल की क़ीमतों में वृद्धि, और भारत में आर्थिक सुस्ती के चलते, ऊंचे दामों को घटाना मुश्किल हो गया है’.

कुमार ने ये भी समझाया कि कैसे सप्लायर्स के बीच मतभेद, भारत में तेल क़ीमतों को संभालने में बाधक साबित होते हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘पेट्रोलियम उत्पादन को लेकर यूएई और सऊदी अरब के मतभेदों ने, आपूर्ति की साइड में अनिश्चितताएं पैदा कर दी हैं. भारत ओपेक के बाहर से तेल ख़रीदना चाह रहा है. हो सकता है कि भारत अपने यहां दाम घटाने से पहले, अंतर्राष्ट्रीय क़ीमतों के घटने का इंतज़ार कर रहा हो- लेकिन अल्प-काल में करों में किसी कटौती की संभावना नज़र नहीं आती’.

मुद्रास्फीति पर विचार

लेकिन, कुमार ने कहा कि सरकार की भी एक सीमा है, जहां तक वो तेल क़ीमतों को बढ़ने दे सकती है.

पेट्रोलियम पदार्थ इनपुट वस्तुएं होती हैं, जिसका मतलब है कि उनकी क़ीमतों में वृद्धि से वस्तुओं और सेवाओं के दाम भी बढ़ते हैं. इसलिए, बेक़ाबू क़ीमतें मुद्रा स्फीति की दरों को बढ़ा सकती हैं.

इस साल मई में थोक मूल्य सूचकांक 10.49 प्रतिशत के अपने रिकॉर्ड स्तर को पहुंच गया, जिसमें काफी हद तक ईंधन और बिजली सूचकांक का योगदान था. मई में, खुदरा मुद्रास्फीति 6 प्रतिशत की सीमा को पार कर गई, जिसे भारतीय रिज़र्व बैंक ने निर्धारित किया हुआ है.

कुमार ने कहा, ‘ईंधन की क़ीमतों में उपभोक्ताओं पर भारी कर लगाए जाते हैं, इसलिए इससे मुद्रास्फीति में काफी इज़ाफा होता है. अगर ये रुझान चलते रहे, तो शायद ईंधन पर सब्सीडीज़ बहाल की जा सकती हैं, जिससे उपभोक्ताओं पर टैक्स का बोझ कम करके, उसे दूसरे हितधारकों की ओर शिफ्ट किया जा सके’.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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