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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकेर्न, वोडाफोन, देवास मामले दिखाते हैं कि बाहरी कंपनियों के साथ अपने लोगों जैसा बर्ताव नहीं कर सकता भारत

केर्न, वोडाफोन, देवास मामले दिखाते हैं कि बाहरी कंपनियों के साथ अपने लोगों जैसा बर्ताव नहीं कर सकता भारत

अपने नागरिकों के साथ कैदियों वाला बर्ताव करने वाला सरकारी तंत्र बाहर की कंपनियों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करता है और उसे ऐसा जवाब मिलता है जैसा अक्सर घरेलू स्तर पर नहीं मिल पाता.

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भारतीय राज्यतंत्र अपने नागरिकों के साथ बंदियों वाला व्यवहार करने का आदी हो चुका है, जिनके साथ अधिकारीगण कोई भी मनमानी कर सकते हैं. केंद्र में या राज्य में सत्ता में कोई भी पार्टी हो, सरकारी तंत्र का परभक्षी वाला स्वभाव जस का तस बना रहता है. इसके लिए तीन सबूतों पर ही विचार करना काफी होगा.

पहला, भारत की जेलों में बंद दो तिहाई से ज्यादा कैदी ऐसे हैं जिन्हें किसी अपराध के लिए सज़ा नहीं सुनाई गई है. वे केवल अदालती मुकदमे का सामना कर रहे हैं, जो दशकों नहीं तो वर्षों तक तो चलता ही रहता है. कोई-कोई तो फैसले का इंतजार करते-करते चल बसते हैं, जैसे हाल में ही स्टेन स्वामी गुजर गए.

दूसरा, टैक्स अधिकारी विभिन्न हाई कोर्ट में टैक्स के 85 फीसदी मामले और सुप्रीम कोर्ट में 74 फीसदी मामले हार जाते हैं. क्या किसी को अदालतों का वक्त जाया करने और इसके कारण करदाताओं की परेशानी और आर्थिक नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है? शर्त लगा लीजिए, किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता.

और तीसरा सबूत यह है कि शेयर बाज़ार के रेगुलेटर वित्तीय जुर्माने के लिए जो नोटिस भेजते हैं उनमें से महज 1 फीसदी वसूल पाते हैं. ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ के मुताबिक, 2013 के बाद से 81,086 करोड़ रुपये के लिए नोटिस भेजे गए और भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) इसमें से मात्र 887 करोड़ रुपए वसूल पाया है.

ये तीनों उदाहरण राज्यतंत्र की मनमानी या बेमानी उत्साह को ही उजागर करते हैं, जिनमें भुक्तभोगी नागरिकों के बारे में कुछ सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती. उनके लिए तो पूरी प्रक्रिया ही अपने आप में सज़ा है. अगर आपने जेल में 20 साल बिता दिए या अदालती चक्कर में दिवालिया हो गए हैं, तब फिर आप मुकदमा जीते या हारे, क्या फर्क पड़ता है?


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जब बाहरी खिलाड़ी मैदान में उतरते हैं

हमारे खोटे लोकतंत्र में व्यवस्था जिस तरह काम करती है उसके मद्देनज़र इसे देश के अंदर हताशा में स्वीकार किया जाना चाहिए था. लेकिन जब राज्यतंत्र बाहरी खिलाड़ियों के साथ वैसा ही व्यवहार करता है तब उसे ऐसा जवाब मिलता है जैसा घरेलू स्तर पर आम तौर पर नहीं मिलता. हमारे सामने तीन ताजा उदाहरण हैं- केर्न, वोडाफोन, और देवास मल्टीमीडिया के.

पहले दो मामले पिछली तारीख से टैक्स थोपने के हैं. भारत अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में अपने मामले हार चुका है, सर्वसम्मति से. इनके खिलाफ अपील की प्रक्रिया चल रही है. लेकिन केर्न ने कई देशों में भारत की संपत्तियों को- जमीन-जायदाद, संभवतः सरकारी बैंकों के पैसे और एअर इंडिया का विमान जब्त कर लिया. देवास मल्टीमीडिया ने करार को मनमाने तरीके से रद्द करने का मामला एंट्रिक्स कोर्पोरेशन (‘इसरो’ की सहायक) से जीत लिया है. अब वह केर्न की तरह कार्रवाई करके हमें और शर्मसार कर सकती है.

विडंबना यह है कि सभी तीनों मामले मनमोहन सिंह के राज में शुरू हुए, जिनमें से दो में पिछली तारीख से टैक्स थोपने की शर्त 2012 के बजट में जोड़ी गई. यह भारत में कोई अनूठी बात नहीं है. विशेष हालात में दूसरे देशों में भी, जहां की प्रक्रियाएं विख्यात हैं, वहां भी ऐसा होता आया है. लेकिन भारत जिसे अपनी संप्रभुता के दायरे में टैक्स का मामला बना दिया गया और इसे द्विपक्षीय निवेश गारंटी संधियों का उल्लंघन माना गया. मोदी सरकार ने अब ऐसी 50 संधियों को रद्द कर दिया है.

देवास-एंट्रिक्स डील को मनमोहन सरकार ने कई आधारों पर रद्द कर दिया और इसरो के एक पूर्व अध्यक्ष को सार्वजनिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया. देवास ने अमेरिकी अदालत में तर्क रखा कि नौ मध्यस्थों, तीन अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनलों ने डील रद्द किए जाने को गैरकानूनी ठहराया है. इनमें से हरेक मामला एक अरब डॉलर से ज्यादा का था.

भाजपा ने 2014 के चुनाव में ‘टैक्स के आतंक’ को मुद्दा बनाया था और उसने इसरो के उस अध्यक्ष को अपना सदस्य बनाकर उनका पुनर्वास कर दिया था. लेकिन सात साल बाद उसके ‘आतंकवाद’ ने उसकी सरकार के मुंह पर कालिख मल दिया है. टैक्स के घरेलू मामलों में अदालतों में हारने के बावजूद सरकार भले यह सोच रही हो कि उसका मामला बनता है. लेकिन एक फर्क है. घरेलू स्तर पर सरकार प्रक्रिया को सजा बनाने के लिए जुर्माना नहीं भरती. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैसला जब आपके खिलाफ जाता है तब सरकार को अपने किए का नतीजा भुगतना पड़ता है.

अगर ये झटके सरकार को अलग तरह का व्यवहार करने के लिए मजबूर करते हैं तो उसे डिजिटल मीडिया के लिए अपने नये नियमों पर भी पुनर्विचार करना चाहिए, जो मूल कानून के दायरे को भी तोड़ते हैं और मनमानेपन के लिए जमीन तैयार करते हैं.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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