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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतयूपी में BJP और योगी के लिए मुश्किल भरी हो सकती है राह, लस्त पस्त विपक्ष को पता चल गई हैं कमजोरियां

यूपी में BJP और योगी के लिए मुश्किल भरी हो सकती है राह, लस्त पस्त विपक्ष को पता चल गई हैं कमजोरियां

बीजेपी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बजाय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है, जिसका मतलब है कि उनका विकास नामधारी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण इस बार बहुत आगे जायेगा और आक्रामक रहेगा.

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उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त के बाद भारतीय जनता पार्टी की अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव की तैयारियों की कवायदें भी उलटी पड़ी हैं. इन कवायदों से उसने अब तक लस्त-पस्त दिख रहे विपक्ष को खुद अपनी कमजोरियों का पता दे दिया है. भले ही उसने कांग्रेस के कद्दावर नेता जितिन प्रसाद को अपनी ओर करके चौंकाने और जताने की कोशिश की है कि उसे कतई कमजोर नहीं समझा जा सकता.

इसके लिए भी उसे इस सवाल की ओर से मुंह फेरना पड़ा है कि जो जितिन प्रसाद कांग्रेस में रहते हुए स्वजातीय ब्राह्मणों का रुख उसकी ओर नहीं कर सके, भाजपा में आकर वे उसके पक्ष में उनके वोटों की बारिश क्यों कर करा देंगे, जबकि वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से खासे नाराज बताये जाते हैं. वह यह भी याद नहीं कर पा रही कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस में व्यापक तोड-़फोड़ करके भी वह अपना मंसूबा नहीं ही पूरा कर पाई.

विपक्ष उठा पाएगा चुनावी फायदा

इस लिहाज से अब यह देखना खासा दिलचस्प हो चला है कि विपक्ष उसके दिये पते का कितना चुनावी फायदा ले पायेगा? इस कारण और कि अभी तक भाजपा के समक्ष उसकी चुनौती का स्वरूप तक स्पष्ट नहीं है. यह भी नहीं कि वह किसी गठबंधन के बैनर पर एकजुट होकर उसके मुकाबले चुनाव मैदान में जायेगा या अलग-अलग खिचड़ियां पकायेगा? तिस पर उसकी अंदरूनी चुनौतियां भी हैं. कोई नहीं जानता कि समाजवादी पार्टी, जो प्रदेश में भाजपा की सबसे बड़ी और परम्परागत प्रतिद्वंद्वी है, अपने और मुलायम परिवार के बिखराव के पार कैसे जायेगी और कांग्रेस अपने मिशन यूपी को पालाबदल पर उतारू अपने नेताओं से कैसे बचा पायेगी?


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बहरहाल, सपा से ही बात शुरू करें तो गठबंधन को लेकर उसके सुप्रीमो अखिलेश यादव के संकेत अभी बहुत साफ नहीं हैं. अलबत्ता, कहते हैं कि कुछ छोटे दलों से उनकी बात चल रही है. इस बीच उनके चाचा शिवपाल यादव ने कहा है कि गठबंधन के लिए उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी की पहली पसन्द सपा ही है, लेकिन भाजपा न सिर्फ उन्हें बल्कि मुलायम की दूसरी बहू अपर्णा को भी अपना मोहरा बनाने के फेर में दिख रही है. दूसरी ओर भीम आर्मी के सुप्रीमो चन्द्रशेखर आजाद ने कहा है कि वे गठबंधन के लिए समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल से बातचाती करेंगे.

जहां तक बसपा सुप्रीमो मायावती की बात है, उन्होंने किसी से कोई गठबंधन न करने की घोषणा कर रखी है, लेकिन गत लोकसभा चुनाव में हार के बाद के उनके कार्यकलापों के मद्देनजर ज्यादातर प्रेक्षकों का मानना है कि विपक्ष की सबसे कमजोर कड़ी वही हैं और वे अभी से यह सवाल पूछ रहे हैं कि मायावती भाजपा की शुभचिन्तक हो गईं तो अपनी और विपक्ष की संभावनाओं पर कैसा असर डालेंगी? कांग्रेस की बात करें तो वह फिलहाल अपना घर संभालने में ही लगी हुई है और संभालकर नहीं रख पा रही.

पंचायत चुनाव परिवर्तन का झोंका

इन हालात में प्रदेश के पंचायत चुनावों में भाजपा को पछाड़कर समाजवादी पार्टी के सबसे आगे रहने को ज्यादातर प्रेक्षक परिवर्तन का झोंका तो मान रहे हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव के लिए निर्णायक संकेत नहीं. प्रसंगवश, उक्त चुनाव में जिला पंचायत सदस्यता की 3050 सीटों में सपा को 782, भाजपा को 580, बसपा को 361, कांग्रेस को 61 तथा अन्य दलों एवं निर्दलियों को 1267 सीटें मिली हैं, जिससे साफ है कि 2017 के मुकाबले गांवों के मतदाताओं का मिजाज बदला है. लेकिन प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों में 104 सीटें शहरी क्षेत्र की हैं और उनके मतदाताओं का ताजा मिजाज अभी तक अनदेखा है.

जाहिर है कि पंचायत चुनावों ने सपा को नम्बर वन भले ही सिद्ध किया है, उसके अकेले दम पर भाजपा को शिकस्त देने में सक्षम हो जाने की ताईद नहीं करते. इसके लिए उसे आधी से ज्यादा सीटें मिलनी चाहिए थीं, मगर वह इस लक्ष्य से बहुत दूर रह गई. उसकी अतीत की चुनावी उपलब्धियों पर जायें तो 2012 के विधानसभा चुनाव को छोड़, जब मायावती की सरकार से नाराज सवर्ण जातियां किसी अन्य विकल्प के अभाव में उसके पाले में आ गई थीं, वह अब तक कभी अकेले पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सकी है. उन दिनों भी नहीं जब उसके संस्थापक मुलायम सिंह यादव धरतीपुत्र, सामाजिक न्याय आन्दोलन और धर्मनिरपेक्षता के हीरो हुआ करते थे. साथ ही उनका एमवाई समीकरण बहुत मजबूत था.

1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने समाजवादी जनता पार्टी बनायी तो उत्तर प्रदेश में उसके कर्ताधर्ता मुलायम सिंह यादव ही थे. प्रदेश के 1991 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी ने 31 सीटें तथा 12.8 प्रतिशत मत प्राप्त किये थे. दिसम्बर, 1992 में मुलायम ने अलग समाजवादी पार्टी बना ली तथा बसपा से गठबंधन कर 1993 का विधानसभा चुनाव लड़ा, तो सपा को 109 सीटें तथा 17.82 प्रतिशत मत मिले. इस गठबंधन ने मुलायम के नेतृत्व में सरकार बनाई तो उसके दोनों घटक दलों के अंतर्विरोधों के कारण सरकार व गठबंधन दोनों की अकाल मौत हो गई. उसके बाद हुए 1996 के विधानसभा चुनाव में सपा को 110 सीटें तथा 22.38 प्रतिशत मत मिले, जबकि 2002 143 सीटें 25.18 प्रतिशत मत.

इसी बल के आधार पर जोड़तोड़ कर मुलायम फिर मुख्यमंत्री बन गये, लेकिन अगले चुनाव में बसपा ने उन्हें करारी शिकस्त देकर विधानसभा में अकेले दम पर बहुमत प्राप्त कर लिया. सपा 97 सीटों तथा 25.45 प्रतिशत मतों के साथ दूसरे स्थान पर आ गई. अलबत्ता, 2012 में उसने बसपा से हार का भरपूर बदला चुकाया. उसे विधानसभा की 224 सीटें तथा 29.95 प्रतिशत मत मिले. यही उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है, जिसके बाद अखिलेश मुख्यमंत्री बने और चाचा शिवपाल से वर्चस्व की लड़ाई के बाद कांग्रेस से गठबंधन कर चुनाव लड़ा. पर उन्हें 47 सीटें तथा 21.8 प्रतिशत मत ही मिल पाये. इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से गठबंधन करके भी वे भाजपा का विजय रथ नहीं रोक पाये.


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योगी ही चेहरा

अब पंचायत चुनावों का संकेत है कि सपा ने पहले के मुकाबले अपनी स्थिति बेहतर की है, लेकिन क्या यह बेहतरी इतनी है कि वह विधानसभा चुना में ज्यादातर निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा पर निर्णायक बढ़त ले सके? उसकी अतीत की चुनावी उपलब्धियां इसकी हामी नहीं भरतीं. इसलिए अगले साल विधानसभा चुनाव के नतीजे बहुत कुछ इस पर निर्भर करेंगे कि वे इस तर्क की गफलत में रह जाते हैं कि चुनाव अतीत के आंकड़ों से नहीं, हौसले से जीते जाते हैं या जमीनी हकीकत के मद्देनजर कोई गठबंधन करते हैं? करते हैं तो बसपा व कांग्रेस की उसमें क्या भूमिका रखते या उनका उससे क्या सलूक रहता है? दूसरे शब्दों में कहें तो सवाल है कि वे बिहार के गत विधानसभा चुनाव में राजद नेता तेजस्वी यादव द्वारा प्रदर्शित उस जीवट से कोई सबक सीखते हैं या नहीं, जिसके तहत उन्होंने कांग्रेस, भाकपा, माकपा व भाकपा (माले) आदि दलों को मिलाकर महागठबंधन बनाया तथा भाजपा व जदयू के गठबंधन को बड़ी चुनौती दी. भले ही उनसे सत्ता नहीं छीन पाये.

फिलहाल, प्रदेश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने का मुखिया होने के नाते विपक्षी गठबंधन हेतु पहल करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी अखिलेश की ही है. उनकी मुश्किल यह है कि वे चाचा शिवपाल से वर्चस्व की जंग में पार्टी पर कब्जा करने में भले ही सफल रहे हैं, उसके जनाधार में कुछ नया नहीं जोड़ पाये हैं, जबकि उसका एमवाई समीकरण भी संकट ग्रस्त हो चुका है. उनका व्यक्तित्व भी इतना करिश्माई ऐसा नहीं है कि वे उससे ममता बनर्जी जैसे चमत्कार की उम्मीद कर सकें. लेकिन वे सम्पूर्ण या ज्यदातर विपक्ष को साथ लेकर चल सकें तो कांग्रेस व बसपा न सही, राष्ट्रीय लोकदल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भाकपा (माले), अपना दल (कृष्णा पटेल गुट) जन अधिकार पार्टी, पीस पार्टी, निषाद पार्टी व आम आदमी पार्टी जैसे छोटे-छोटे दल उनका रास्ता हमवार कर सकते हैं, जिनका अलग-अलग क्षेत्रों या पाकेट्स में अच्छा प्रभाव है.

समूचे विपक्ष की बात करें तो उसके यह समझने का यही सबसे उपयुक्त समय है कि वह गठबंधन में जितनी देरी करेगा, उसकी संभावनाएं उतनी ही कम हो जायेंगी. अतीत के कई अनुभव गवाह हैं कि ऐसे गठबंधन ऐन चुनाव के वक्त किये जायें तो सिर्फ ऊपर के नेताओं का गठजोड़ होकर रह जाते हैं और जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में आपसी जुड़ाव संभव नहीं हो पाता. जानकार बताते हैं कि चुनाव की घोषणा से पहले हुए गठबंधन चुनाव की घोषणा के बाद हुए गठबंधनों से अधिक प्रभावशाली होते हैं. वे गठबंधन तो और, जो नीतियों व सिद्धांतों पर आधारित हों और जिनके घटक दलों में जिलों व विधानसभा क्षेत्र के स्तर पर भी समन्वय हो.

एक और काबिलेगौर बात यह है कि भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बजाय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है, जिसका मतलब है कि उसका विकास नामधारी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण इस बार पिछली बार के ‘कब्रिस्तान और श्मशान’ से बहुत आगे जायेगा और आक्रामक रहेगा.

समन्वय के बगैर विपक्ष के लिए उसको सिर्फ इस उम्मीद के सहारे निर्णायक चुनौती देना बहुत मुश्किल होगा कि वह पंचायत चुनाव हार गई है, उसकी योगी सरकार के प्रति ऐंटी इन्कम्बैंसी है, किसान संगठन उसके खिलाफ आन्दोलित हैं, उसकी सरकारें कोरोना से निपटने में विफल रही हैं, उसके महानायकों में खुन्नस है और वह अन्दर से कमजोर हो चली है. याद आता है, 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का ऐन चुनाव के वक्त गठबंधनकर अति आत्मविश्वास ग्रस्त हो जाना ही उनकी हार का कारण बना था.


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(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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