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Wednesday, 20 November, 2024
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कोरोना से आई तबाही के लिए क्या मोदी सरकार की स्वास्थ्य नीति जिम्मेदार है

135 करोड़ भारतीयों की चिंता किए बगैर नरेंद्र मोदी वैक्सीन विदेश भेज रहे थे. मार्च में संक्रमण बढ़ रहा था लेकिन मोदी सरकार बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त थी.

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कोरोना से होने वाली मौतों का मंजर फिलहाल कुछ थमा जरूर है लेकिन अभी खत्म नहीं हुआ है. ऑक्सीजन, वेंटीलेटर और रेमडेसिविर के लिए अब इतनी मारामारी नहीं है. लेकिन अप्रैल और मई में हुई बदहाली के लिए मोदी की स्वास्थ्य नीतियां जिम्मेदार हैं.

पुरानी स्वास्थ्य नीति को बदलते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन आयुष विभाग को 9 नवंबर 2014 को मंत्रालय में तब्दील कर दिया गया. खासकर योग और आयुर्वेद को बढ़ावा देने के लिए गठित आयुष मंत्रालय को स्वास्थ्य मंत्रालय की अपेक्षा ज्यादा तवज्जो दी जा रही है. कोरोना संकट के बीच जनवरी 2021 में स्वास्थ्य मंत्रालय का बजट केवल 7 फीसदी बढ़ाया गया, जबकि आयुष मंत्रालय का बजट 2970 करोड़ कर दिया गया, जो पिछले वर्ष के 1784 करोड़ से 66% अधिक है.

1857 लाख रुपए के बजट के साथ शुरू हुए आयुष मंत्रालय द्वारा शोध, औषधि और अस्पताल बनाने की अपेक्षा बजट का ज्यादा उपयोग इसके प्रचार पर किया गया. अपने अतीत पर मुग्ध दक्षिणपंथी मोदी सरकार के इस प्रचार का सीधा फायदा बाबा से व्यवसाई बने रामदेव को हुआ. रामदेव योग और आयुर्वेद के आचार्य कम विक्रेता ज्यादा हैं.

योग की अंतरराष्ट्रीय ब्रांडिंग की गई. यूएनओ ने 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया. जाहिर है योग से शहरी अमीर और उच्च मध्य वर्गीय खाए-पिए-अघाए लोगों के मोटापे, मधुमेह, बीपी या हृदय की बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है. लेकिन देश की 68% आबादी गांवों में रहती है. शारीरिक श्रम करने वाले गरीबों को अव्वल तो ये बीमारियां नहीं होतीं. लेकिन टीबी, बुखार, कालाजार जैसी बीमारियों के लिए गांव और गरीब के लिए सरकारी अस्पताल बेहद कम हैं. अस्पताल है तो डॉक्टर और दवाई नहीं है.


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‘सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मौलिक अधिकार हैं’

मोदी सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है. एक अध्ययन के मुताबिक भारत सरकार का सार्वजनिक क्षेत्र में व्यय तीसरी दुनिया के देशों में सबसे कम है. गरीब और मध्यवर्ग के लिए महंगे अस्पतालों में इलाज कराना मुश्किल है. इलाज पर होने वाले खर्च से परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है. ( स्त्रोत: आर्थिक सुधार और सामाजिक अपवर्जन- भारत में उपेक्षित समूहों पर उदारीकरण का प्रभाव / के एस चलम)

आर. श्रीनिवास ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के दस्तावेजों का अध्ययन (सितंबर 2007) करते हुए पाया कि ‘अस्पताल में भर्ती भारतीय अपने कुल वार्षिक व्यय का औसतन 58 फीसद खर्च करते हैं. अस्पताल में भर्ती 40 फीसद से अधिक भारतीय खर्च को पूरा करने के लिए भारी उधार लेते हैं या संपत्ति बेचते हैं. अस्पताल में भर्ती 25 फीसद भारतीय अस्पताल के खर्चों के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं.’ (आर्थिक सुधार और सामाजिक अपवर्जन- भारत में उपेक्षित समूहों पर उदारीकरण का प्रभाव / के एस चलम)

सार्वजनिक क्षेत्र पर व्यय की कसौटी हमारा संविधान भी है. संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 47 में स्पष्ट रूप से लोगों के पोषण में सुधार और जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए सरकार को निर्देशित किया गया है. इसके अतिरिक्त मौलिक अधिकार का अनुच्छेद 21 भारतीय नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है. सुप्रीम कोर्ट ने जीने के अधिकार की व्यापक व्याख्या की है. आपदा में दवाई और स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना, लोगों का मौलिक अधिकार है. इसलिए कोरोना से हुई मौतों और बदहाली के लिए मोदी सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार है.

मार्च 2017 में मोदी सरकार ने नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति जारी की. इसमें टीबी, दृष्टिहीनता, कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों को दूर करने के साथ-साथ कैंसर, मधुमेह और हृदय रोग जैसी तेजी से बढ़ रही बीमारियों की रोकथाम के दावे किए गए. लेकिन कोराना संकट काल में कैंसर मरीजों का डायलिसिस नहीं हो पा रहा है. मधुमेह और हृदय रोग मरीजों को नियमित जांच की सुविधा नहीं मिल रही है. इस दौरान यह पाया गया है कि कोरोना से ऐसे मरीजों की मौतें ज्यादा हुई हैं जिन्हें पहले से ही कोई गंभीर बीमारी थी. फिर भी सरकार ने कैंसर, हृदयरोग बीमारों की नियमित जांच और इलाज के लिए कोई समुचित व्यवस्था नहीं की.

नई स्वास्थ्य नीति के तहत बहुत जोर शोर से ‘आयुष्मान भारत योजना ‘ शुरू की गई थी. इस योजना में दावा किया गया कि ‘सरकारी अस्पतालों में दवा और जांच की मुफ्त व्यवस्था’ होगी. इस पर जीडीपी का 2.5% खर्च होगा. आयुष्मान कार्ड से पांच लाख तक का मुफ्त इलाज होगा. इसके अंतर्गत आर्थिक रूप से कमजोर 40 फीसदी लोगों को कवर किया जाएगा. 15 करोड़ 88 लाख कार्ड बनाए गए. लेकिन कोरोना काल में इस पर होने वाले खर्च से पता चलता है कि आयुष्मान योजना का क्रियान्वयन असफल रहा. 17 मई 2021 तक कोविड जैसी महामारी पर केवल 12 करोड़ रुपए खर्च किए गए.

कोराना संकट को देखते हुए जनवरी 2021 में ‘आत्मनिर्भर स्वास्थ्य योजना‘ जारी की गई. स्वास्थ्य बजट में 135 फीसदी की वृद्धि करते हुए इसे 1.94 लाख करोड़ से बढ़ाकर 2.38 लाख करोड़ कर दिया गया. दावा किया गया कि सरकार अगले 6 सालों में करीब 61 हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी. प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाएगा. इसमें अन्य नई बीमारियों को भी जोड़ा गया. इसके तहत 75 हजार हेल्थ सेंटर, सभी जिलों में जांच केंद्र, 602 जिलों में क्रिटिकल केयर हॉस्पिटल खोलने का लक्ष्य निर्धारित किया गया. नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ वर्ल्ड हेल्थ, 9 बायोलैब और 4 इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी बनाए जाने की अनुशंसा की गई. लेकिन कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी के बावजूद मोदी सरकार बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां आयोजित करके संकट को आमंत्रित करती रही.

आखिर इस योजना पर त्वरित गति से कार्य क्यों नहीं किया गया?


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सवालों के घेरे में ‘वैक्सीन नीति’

मोदी की वैक्सीन नीति भी सवालों के घेरे में है. मोदी ने ‘कोरोना मैत्री’ कूटनीति के तहत 20 जनवरी 2021 से कई देशों को वैक्सीन भेजी. लोकसभा में विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन ने एक लिखित उत्तर में बताया कि 21 मार्च तक 6.45 करोड़ खुराक 76 देशों को भेजी गईं. इनमें 1.05 करोड़ खुराक अनुदान के तहत, 3.58 करोड़ व्यवसायिक समझौते के रूप में तथा 1.82 करोड़ कोवैक्स व्यवस्था के तहत दी गईं.

28 जनवरी को वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की दावोस बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े गर्व के साथ ऐलान किया कि ‘भारत ने कोरोना से जंग जीत ली है. उसने दुनिया को बड़ी त्रासदी से बचाया है. अब वह दुनिया को रास्ता दिखा रहा है.’

135 करोड़ भारतीयों की चिंता किए बगैर नरेंद्र मोदी वैक्सीन विदेश भेज रहे थे. मार्च में संक्रमण बढ़ रहा था लेकिन मोदी सरकार बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त थी. इवेंट के मास्टर मोदी ने 11 से 14 अप्रैल यानि चार दिन का टीका उत्सव  मनाने का ऐलान किया. इस समय 45 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका दिया जाना था. लेकिन उस समय सरकारी टीकाकरण की रफ्तार बहुत धीमी थी. जब संक्रमण प्रतिदिन चार लाख पहुंच गया और तीन से चार हजार मौतें होने लगीं तो आनन फानन में सरकार ने 1 मई से 18-44 साल की उम्र के लोगों के टीकाकरण का ऐलान कर दिया.

हालांकि सरकार के पास पर्याप्त टीके उपलब्ध नहीं थे. इसी समय दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने एक पोस्टर जारी किया- ‘मोदी जी, हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दी?’ तो वैक्सीन नीति दुरुस्त करने के बजाय पोस्टर लगाने वाले मजदूरों के खिलाफ एफआईआर करके मुकदमे दायर कर दिए गए.

मोदी की अदूरदर्शिता का नतीजा यह है कि मुफ्त और सस्ती दरों पर करोड़ों टीके विदेश भेजने वाला भारत अब महंगे दाम पर वैक्सीन खरीद रहा है. वैक्सीन के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. एक सवाल यह भी है कि वैक्सीनेशन के पश्चात दिए जाने वाले प्रमाण पत्र पर मोदी का फोटो क्यों है?

बहरहाल, 3 जून को वैक्सीन नीति पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को फटकार लगाई. जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली स्पेशल बेंच ने पूछा कि कोरोना से निपटने के लिए आम बजट में 35 हजार करोड़ रुपए का ऐलान किया गया था, उसका इस्तेमाल वैक्सीनेशन पर क्यों नहीं हो रहा है?

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को वैक्सीन नीति का पूरा हिसाब किताब देने का आदेश दिया. कोर्ट की इस फटकार के बाद 7 जून को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने 21 जून से 18 साल और इससे अधिक उम्र के लोगों को फ्री वैक्सीन देने का ऐलान किया.

अब केंद्र सरकार राज्यों को वैक्सीन उपलब्ध कराएगी. लेकिन एक सवाल अभी है कि प्राइवेट अस्पतालों को सर्विस चार्ज लेने की छूट मोदी सरकार क्यों दे रही है? क्या वैक्सीनेशन के लिए पूरे देश में एक ही नीति नहीं हो सकती?

अच्छे दिन ‘ का वादा करके सत्ता में आई मोदी सरकार की स्वास्थ्य नीतियां लोकहितकारी साबित नहीं हुई हैं. योजनाओं का क्रियान्वयन बहुत सुस्त रहा है. हां, योग और आयुर्वेद को जरूर बढ़ावा मिला है. लेकिन कोरोना संकट के बावजूद आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया गया.

पिछले एक साल में कोरोना संकट से निपटने के लिए जो अतिरिक्त बजट का आवंटन किया गया, उसका ना तो ठीक से इस्तेमाल किया गया और ना ही त्वरित गति से उन योजनाओं को क्रियान्वित किया गया. यही कारण है कि कोरोना की दूसरी लहर बेकाबू हो गई. इसलिए कोरोना महामारी में हुई मौतों और अव्यवस्था के लिए सीधे तौर पर मोदी सरकार जिम्मेदार है.

(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असिसटेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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