बृहन्मुंबई नगर निगम के कमिश्नर इकबाल सिंह चहल ने कोविड महामारी से लड़ने में जो भूमिका निभाई है उसे देखकर एक ही कहावत याद आती है— ‘हर संकट में एक-न-एक संकटमोचक उभर आता है ’. मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज पूरे भारत में ऐसे कई संकटमोचक अपनी भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन, मीडिया ये खबरें भी दे रहा है कि स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की बदहाली से ग्रस्त कई छोटे शहरों और गांवों में कोविड महामारी से जिस तरह निपटना चाहिए था वैसा नहीं हो रहा है.
सेना का हर लीडर संकट से निपटने के लिए सक्षम होता है. उसके पास युद्धभूमि में कोई विकल्प नहीं होता. उसे किसी भी कीमत पर अपने मिशन को पूरा ही करना होता है. जिसके लिए ऑर्गेनाइजेशन, को-ऑर्डिनेशन औऱ मिनट-दर-मिनट मैनेजमेंट की जरूरत होती है. 15-20 साल का अनुभव हासिल कर चुके कमांडिंग अफसर के कमान में 500 से 800 सैनिक और पर्याप्त परिवहन सुविधा उपलब्ध होती है. आपदा के दौरान सिविल अथॉरिटीज़ को मदद करने के लिए वे आदर्श संकटमोचक होते हैं. उन्हें और अधिक अनुभवी ब्रिगेड और डिवीजन कमांडरों का सहारा हासिल होता है.
प्रबंधन की यह क्षमता, डिसीप्लीन्ड और मोटिवेटेड सैनिक परिवहन साधन और करीब 100 फील्ड अस्पताल तैयार करने की सेना की क्षमता ग्रामीण क्षेत्रों में पैर फैला रही महामारी का मुकाबला करने में काम आ सकती है. ग्रामीण इलाकों में 734 में से 516 जिलों में कोविड संक्रमण की पॉज़िटिविटी रेट 10 प्रतिशत से ऊपर है, जबकि टेस्टिंग रेट काफी कम है.
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क्या सेना का सही इस्तेमाल किया जा रहा है?
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत ने 10 मई को ‘इंडिया टुडे ’ को दिए इंटरव्यू में बताया है कि महामारी से निपटने में सेना का क्या योगदान रहा है. उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि आपदा प्रबंधन एक्ट 2005 सरकार को पूरा अधिकार देता है कि वह सेना का उपयोग नागरिक प्रशासन की मदद करने में कर सकती है.
आर्म्ड फोर्सेज मेडिकल सर्विसेज के महानिदेशक की सलाह पर रक्षा मंत्री रक्षा सचिव के माध्यम से और अधिकार प्राप्त कमिटियों, विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों से मिली जानकारियों के आधार पर सेना के संसाधनों के उपयोग का समन्वय कर रहे हैं. नागरिक प्रशासन भी ‘अंडर एड टु सिविल ऑथरिटीज’ व्यवस्था के तहत सेना की सहायता ले रहा है. जरूरी अतिरिक्त मेडिकल साजसामान हासिल करने के लिए संबंधित मिलिटरी कमांडरों को आपातकालीन वित्तीय अधिकार दिए गए हैं.
सेना का स्पष्ट योगदान वायुसेना तथा नौसेना द्वारा मेडिकल ऑक्सीज़न तथा संबंधित उपकरण विदेश से लाने और देश के अंदर तमाम जगहों पर पहुंचाने के रूप में हुआ है. सेना विभिन्न शहरों में आउटसोर्सिंग से बनाए गए डीआरडीओ अस्पतालों को भी संभाल रही है. वह विभिन्न राज्यों में नागरिक प्रशासन की मदद कर रही है, खासकर शहरी इलाकों में जरूरत के मुताबिक फील्ड अस्पताल बनाकर और मौजूदा सुविधाओं को मदद देकर.
सेना फिलहाल कुछ बड़े शहरों में डीआरडीओ की मदद से 100 से लेकर 1000 बेड वाले अस्पतालों को तैयार करने पर ज़ोर दे रही है. इन्हें सेना के मेडिकल कर्मचारी संभाल रहे हैं. इनमें से अधिकतर अस्पतालों में आईसीयू की सुविधा नहीं है और इनमें मुख्यतः कोविड के कम गंभीर मरीजों का इलाज किया जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में सेना का कोई उपयोग नहीं किया गया है.
इसमें शक नहीं है कि इन सुविधाओं ने शहरों में सरकार के प्रयासों को ताकत दी है लेकिन इनमें ज़्यादातर सेना के डॉक्टरों और मेडिकल कर्मचारियों का अस्थायी उपयोग (स्थिति सामान्य होने तक) ही हो रहा है. संसाधन भी सेना की फील्ड व्यवस्था से लाए गए हैं, जिसके चलते सेना के फील्ड अस्पताल तैयार करने की उसकी क्षमता प्रभावित हुई है. खबर है कि दबावग्रस्त मेडिकल स्टाफ की मदद के लिए फील्ड यूनिटों के युद्ध क्षेत्र के नर्सिंग सहायकों को और यहां तक कि रिमाउंट ऐंड वेटरिनरी कोर के कर्मचारियों को भी तैनात किया गया. सेवानिवृत्त हो चुके 400 डॉक्टरों को भी फिर से बहाल किया गया.
आम तौर पर नियम तो यह होना चाहिए कि सेना के मेडिकल स्टाफ को राज्य या शहर के संसाधन के साथ मिलाकर स्थापित किया जाए ताकि उन्हें युद्ध या दूसरे आपात क्षेत्र में वापस तैनात किया जा सके. ज्यादा-से-ज्यादा उन्हें तब तक के लिए कामचलाऊ उपाय के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए जब तक कि राज्य सरकार आपात अधिकारों का प्रयोग करके निजी डॉक्टरों तथा अन्य मेडिकल स्टाफ की तैनाती करके संसाधन का निर्माण नहीं कर लेती. यह नियम डीआरडीओ द्वारा निर्मित 100 से 1000 तक बेड वाले अस्पतालों और सेना पर लागू होना चाहिए था. अभी भी देर नहीं हुई है और सेना के मेडिकल स्टाफ को संकटग्रस्त ग्रामीण इलाकों में कोविड की लहर को काबू करने के लिए मुक्त किया जा सकता है.
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एक कार्य योजना
कोविड संक्रमण ग्रामीण इलाकों में तेजी से फैल रहा है. मीडिया में उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में कोविड के संक्रमण के फैलाव और गंगा नदी में बहते या उसके किनारे दफन किए गए (संभवतः कोविड के शिकार हुओं के) शवों की भयावह खबरें भरी पड़ी हैं. कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि जल्द ही ऐसी खबरें देश के तमाम गांवों और कस्बों से आ सकती हैं.
ग्रामीण इलाकों में मेडिकल सुविधाओं की जर्जर व्यवस्था की खबरें भी मीडिया में आ रही हैं. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने टिप्पणी की है कि यूपी की ‘पूरी मेडिकल व्यवस्था’ जिसमें ‘छोटे शहरों और गांवों को भी शामिल किया जा सकता है, राम भरोसे ही है.’ अधिकतर दूसरे राज्यों की स्थिति भी कोई भिन्न नहीं है. केंद्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड से निपटने के लिए एक आदर्श किस्म की विस्तृत निर्देशिका जारी की है.
मेरे विचार से, अब तक का जो अनुभव रहा है उसके मुताबिक राज्यों के लिए इस निर्देशिका को सेना की मदद के बिना लागू करना मुश्किल है. इसका एक उदाहरण मेरा अपना ही जिला फतेहगढ़ साहिब है, जहां गांवों में कोविड के मामले बढ़ रहे हैं और जिले के आठ अस्पतालों में एक भी वेंटिलेटर नहीं है. मरीजों को शहरों के पहले से ही मरीजों से भरे अस्पतालों में भेजा जा रहा है. ज़्यादातर ग्रामीण सरपंचों को कोविड से निपटने के प्रारंभिक उपाय भी नहीं मालूम हैं.
मैं निम्नलिखित कार्य योजना प्रस्तुत कर रहा हूं-
1. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन एक्ट, सिविल डिफेंस एक्ट, यूनियन वॉर बुक, डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट, एपिडेमिक डिजीजेज़ एक्ट, आदि कानूनों के तहत आपातकालीन अधिकारों का प्रयोग करें. इससे न केवल डॉक्टरों, नर्सों और सिविल डिफेंस स्वयंसेवकों आदि की सेवाएं लेने बल्कि परिवहन, भवन निर्माण, आवश्यक सेवाओं तथा सुविधाओं आदि के इस्तेमाल की गुंजाइश बनेगी. बड़े आकार के अस्थायी अस्पतालों में तैनात सेना के कर्मचारियों को वहां से मुक्त करें ताकि उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में भेजा जा सके.
2. प्रभावित जिलों को ब्रिगेड/बटालियन कमांडर के अधीन किया जाए ताकि वे कोविड से लड़ाई की कमान थामे. ग्रामीण जिले/शहर के कोविड वॉर रूम/कमान पोस्ट उसके अधीन ही किया जाए.
3. फील्ड अस्पतालों को चालू करने के लिए सेना तंबू/तैयार शेल्टरों/हासिल किए गए भवनों का इस्तेमाल करे. एक बार जब सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो जाए तब उन्हें दूसरी जगह भेजा जाए.
4. सेना को कोविड टेस्टिंग, मरीजों के स्थानांतरण, अस्पताल के बेड, मेडिकल ऑक्सीजन और टीकाकरण कार्यक्रम आदि के प्रबंधन के काम के लिए तैनात किया जाए.
5. हमारे लोग सम्मानजनक अंतिम विदाई के हकदार हैं. सेना पहले भी यह काम कर चुकी है, अब भी कर सकती है.
समय तेजी से भाग रहा है. सेना को शहरों की जगह अब गांवों में तैनात करने पर ध्यान देने के लिए सरकार और सेना को अपनी रणनीति की समीक्षा करनी चाहिए. ग्रामीण तथा मुफस्सिल शहरों में कोविड के खिलाफ जंग में सेना की प्रबंधन क्षमता और उसकी मेडिकल, परिवहन की विशाल सुविधाओं और कार्यदल का उपयोग करने की जरूरत है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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