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Thursday, 21 November, 2024
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क्या हैं CT स्कैन्स, इनसे रेडिएशन के जोखिम और क्या इनसे कैंसर होता है

जहां कुछ स्टडीज़ कहती हैं कि सीटी स्कैन्स से रेडिएशन का बहुत जोखिम रहता है, वहीं कुछ दूसरी स्टडीज़ इससे इनकार करती हैं. लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि सीटी स्कैन्स का अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं होना चाहिए.

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बेंगलुरू: महामारी की दूसरी लहर ने स्वास्थ्य इनफ्रास्ट्रक्चर और संसाधनों पर अत्याधिक दबाव बना दिया है जिसमें टेस्टिंग और मरीज़ों के ठीक होने की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है. इस बीच बहुत से पेशेवर चिकित्सकों ने संदिग्ध कोविड मरीज़ों से छाती का सीटी स्कैन कराने के लिए कहना शुरू कर दिया है ताकि पता चल सके कि फेफड़े किस हद तक प्रभावित हुए हैं.

सीटी स्कैन या कंप्यूटेड टोमोग्राफी, चिकित्सा में इस्तेमाल की जाने वाली एक इमेजिंग तकनीक है जिसमें एक्सरेज़ की मदद से शरीर के अंदर की विस्तृत तस्वीरें ली जा सकती हैं. इस प्रक्रिया में कोई चीरफाड़ नहीं होती और विभिन्न कोणों से अलग-अलग एक्सरे माप लेकर उन्हें रीकंस्ट्रक्शन एल्गॉरिद्म से गुज़ारा जाता है ताकि शरीर या शरीर के हिस्से की प्रतिनिध्यात्मक या टोमोग्राफिक तस्वीर हासिल की जा सकें.

मेग्नेटिक रिसोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) के विपरीत सीटी का इस्तेमाल उन मरीज़ों में भी किया जा सकता है जिनके अंदर रॉड्स या मेटल के इंप्लांट्स या पेस मेकर्स फिट होते हैं. सीटी स्कैन ने कई तरह से मेडिकल इमेजिंग में बदलाव किए हैं, जिससे रोग निदान में क्रांतिकारी सफलताएं हासिल हुई हैं.

1970 में साउथ अफ्रीकन-अमेरिकन फिज़िसिस्ट एलन एम कोरमैक और ब्रिटिश इलेक्ट्रिकल इंजीनियर गॉडफ्रे एन हॉन्सफील्ड को कंप्यूटर असिस्टेड टोमोग्राफी की तकनीक विकसित करने के लिए फीज़ियॉलजी या मेडिसिन के लिए संयुक्त रूप से नोबल पुरस्कार दिया गया.

लेकिन सीटी तकनीक में इस्तेमाल होने वाला रेडिएशन, संभावित रूप से इंसानी सेल्स और डीएनए को नुकसान पहुंचा सकता है और लंबे समय तक ऐसे रेडिएशन के संपर्क में रहने से कैंसर होने का खतरा रहता है. इसकी वजह से चिकित्सा समुदाय में मौजूदा प्रकोप के दौरान कोविड के निदान के लिए सीटी स्कैनिंग के अंधाधुंध और अनावश्यक इस्तेमाल पर चिंता व्यक्त की जा रही है.


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सीटी में रेडिएशन का इस्तेमाल कैसे होता है?

टोमोग्राफी शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘टोम’ मतलब टुकड़ा और ‘ग्राफीन’ मतलब लिखना.

सीटी मशीन में एक एक्स-रे जेनरेटर होता है, जो तस्वीर लिए जाने वाले व्यक्ति के चारों ओर घूमता है. एक्स-रे डिटेक्टर्स जेनरेटर्स के सामने लगे होते हैं. जब ये किरणें किसी व्यक्ति के शरीर से गुज़रती हैं तो बाहर आते समय टिशूज़, मसल्स और हड्डियों के प्रकार के हिसाब से उनकी शक्ति में बदलाव हो जाते हैं जिससे एक्स-रे हासिल होता है.

जब एक्स-रे जेनरेटर घूमता है तो अलग-अलग कोण से एक ही जगह के एक्सरेज़ के बहुत सारे ‘टुकड़े’ लिए जाते हैं. इन रॉ तस्वीरों को साइनोग्राम कहा जाता है. फिर इन सबको एक जगह जोड़ा जाता है, ताकि शरीर के उस हिस्से को पूरी तरह समझा जा सके, जिसकी तस्वीर ली जा रही है.

कभी-कभी ब्लड वैसेल्स के अंदर इंजेक्शन से कोई केमिकल या मीडियम छोड़ा जाता है. ऐसे मीडियम को ‘रेडियोकंट्रास्ट’ कहा जाता है और ये अमूमन आयोडीन से बना मिश्रण होता है. इसका इस्तेमाल ज़रूरी जानकारी जुटाने के लिए किया जाता है कि सेल्स और टिशू कैसे काम कर रहे हैं.

रेडिएशन डोज़ से ये नापा जाता है कि रेडिएशन से संपर्क कितना है. ये तीन प्रकार के होते हैं: एक सोखा हुआ डोज़ इनर्जी की वो मात्रा होती है, जो शरीर का खुला हुआ हिस्सा सोखता है, बराबर डोज़ का अलग-अलग अंगों के लिए हिसाब लगाया जाता है और कारगर डोज़ पूरे शरीर के तमाम बराबर डोज़ का कुल जोड़ होता है.

रेडिएशन डोज़ अमूमन एसआई यूनिट में बताए जाते हैं, जिसे ग्रे या सीवर्ट कहा जाता है. हर डोज़ उसी अनुपात में होता है जिसमें शरीर का खुला हुआ हिस्सा रेडिएशन की मात्रा को सोखता है. इनर्जी जितनी अधिक होगी और संपर्क की अवधि जितनी लंबी होगी, नुकसान उतना ही ज़्यादा होगा. सोखे गए डोज़ को मिलीग्रेज़ (एमजीवाई) में मापा जाता है जबकि बराबर और कारगर डोज़ मिलीसीवर्ट्स (एमएसवी) में होते हैं.

कारगर डोज़ ही आमतौर से वो डोज़ होता है, जिससे किसी व्यक्ति के लिए रेडिएशन संपर्क से होने वाले सामान्य जोखिम का पता चलता है. जैसा कि सभी तरह के रेडिएशन में होता है, लेड वो मुख्य पदार्थ होता है जिसका इस्तेमाल रेडियोग्राफर्स बिखरी हुई एक्सरेज़ से सुरक्षा और बचाव के लिए करते हैं.

कोविड मरीज़ों में सीटी स्कैन्स कुछ परिदृश्यों में सहायक साबित हो सकते हैं. ऐसे मरीज़ में पल्मोनरी एम्बोलिज्म की संभावना खारिज की जा सकती है, जो खून को पतला करने वाली दवाएं और स्टिरॉयड्स लेता है और ठीक नहीं हो रहा है और न्यूमोमीडियास्टिनम, जिसमें वक्ष गुहा के अंदर, जहां ह्रदय और हृदयवाहिकाएं होती हैं, गैस या हवा की असामान्य मौजूदगी नज़र आ सकती है. कभी-कभी इनके लिए उस स्थिति में कहा जाता है, जब आरटी-पीसीआर निगेटिव आता है या व्यक्ति का बाद में निगेटिव टेस्ट आया है लेकिन उसे सांस लेने में परेशानी बनी हुई है.

सीटी स्कैन्स म्यूकोरमाइकोसिस या ब्लैक फंगस का पता लगाने में भी उपयोगी साबित हो सकते हैं, जिसके मामले अब भारत में सामने आ रहे हैं, जिसका कारण स्टिरॉयड्स का व्यापक इस्तेमाल और डायबिटीज़ को बताया जा रहा है.


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कितना रेडिएशन खतरनाक होता है?

आमतौर से एक ही प्रकार के स्कैन्स और तकनीकों के लिए रेडिएशन डोज़ में व्यापक अंतर हो जाता है.

जब खतरों की बात आती है तो आयनकारी विकिरण का संपर्क बढ़ने के साथ ही भविष्य में कैंसर विकसित हो जाने की संभावना भी बढ़ जाती है. आयनकारी विकिरण वो होता है जिसमें उप-परमाणविक कणों या विद्युतचुंबकीय तरंगों के अंदर इतनी ऊर्जा होती है कि वो इलेक्ट्रॉन्स या चार्ज को प्राप्त कर सकते हैं या उन्हें खो सकते हैं. अधिक ऊर्जा वाले रेडिएशन जैसे गामा रेज़, एक्स-रेज़ और यूवी रेज़ बहुत अधिक आयनकारी होते हैं जबकि लंबी वेवलेंथ्स जैसे रेडियोवेव्ज़, माइक्रोवेव्ज़, इनफ्रारेड और विज़िबल लाइट गैर-आयनकारी होती हैं.

आजकल ऐसा माना जाता है कि 5.5 प्रति सीवर्ट के कारगर रेडिएशन डोज़ से कैंसर का जोखिम रैखिक रूप से बढ़ जाता है.

किसी टूटी हुई हड्डी के एक सामान्य एक्सरे में 0.01 से 0.15 एमजीवाई का रेडिएशन डोज़ हो सकता है. लेकिन आम सीटी स्कैन में विशेष अंगों के लिए 10-20 एमजीवाई का डोज़ हो सकता है और कुछ विशेष स्कैन्स में ये 80-100 एमजीवाई तक भी जा सकता है.

विश्व आबादी का रेडिएशन से संपर्क का औसत डोज़- जो परमाणु जांच और देर तक रहने वाले स्रोतों का परिणाम होता है- 2.4 एमजीवाई प्रति वर्ष के बराबर माना जाता है.

आमतौर से ये माना जाता है कि मस्तिष्क के सीटी स्कैन का रेडिएशन डोज़ 7 महीने के बैकग्राउंड रेडिएशन एक्सपोज़र के बराबर होता है, छाती का सीटी स्कैन 2 साल के बैकग्राउंड रेडिएशन एक्सपोज़र के बराबर होता है, पेट का 2.6 साल के और रीढ़ तथा दिल का सीटी स्कैन 3 साल के बैकग्राउंड रेडिएशन एक्सपोज़र के बराबर होता है.

अक्सर, रेडिएशन डोज़ की तुलना गैर-बराबरी के पैमानों पर की जाती है, जैसे कि चेस्ट एक्स-रे तकनीक के सबसे निचले डोज़ की तुलना, चेस्ट सीटी तकनीकों के सबसे ऊंचे डोज़ से की जाती है.

हाल ही में, एम्स के डायरेक्टर डॉ रणदीप गुलेरिया ने सीटी स्कैन्स के खिलाफ चेतावनी जारी करते हुए कहा कि एक सीटी स्कैन का रेडिएशन डोज़ 300-400 चेस्ट एक्सरेज़ के बराबर होता है. बाद में इंडियन रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन (आईआरआईए) ने उनकी इस तुलना का खंडन किया और स्पष्ट किया है कि ज़्यादातर आधुनिक स्कैनर्स, अल्ट्रा डोज़ सीटी इस्तेमाल करते हैं और अलारा सिद्धांत (उचित रूप से जितना कम से कम हो सके) का पालन करते हैं.

लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि देश भर में कितनी सुविधाएं, फिलहाल कम डोज़ वाले आधुनिक सीटी स्कैनर्स से लैस हैं.

रेडिएशन रिसर्च में रेडिएशन एक्सपोज़र से होने वाले नुकसान के शुरूआती अनुमान, परमाणु बम धमाकों के दौरान एक अकेले तात्कालिक घातक संपर्क और उन अनुभवों पर आधारित हैं, जो परमाणु उद्योग में लगे लोगों ने महसूस किए. इसी कारण से वैज्ञानिक समुदाय में नतीज़ों को लेकर खासा विवाद है और स्टडीज़ की सत्यता तथा सीटी संपर्क के जोखिम के स्तर को लेकर भी मतभेद हैं.

कुछ स्टडीज़ में पता चला है कि मेडिकल इमेजिंग टेकनीक्स के इस्तेमाल के साथ ही कैंसर का खतरा भी बढ़ता है जबकि कुछ दूसरी स्टडीज़ में इशारा किया गया है कि ऐसी स्टडीज़ में अक्सर उतनी मेहनत नहीं की गई होती, जिससे उस स्तर के जोखिम को स्थापित किया जा सके जिसका वो दावा करते हैं.

कैंसर का खतरा किस हद तक बढ़ जाता है, इसके बिल्कुल सही अनुमान का पता नहीं है और माना जाता है कि मेडिकल इमेजिंग के साथ ये आमतौर से बढ़ जाता है लेकिन सभी विशेषज्ञ इसपर एकमत हैं कि फिज़ीशियंस को सीटी के इस्तेमाल में सावधानी बरतनी चाहिए और किसी भी तरह की अनावश्यक जांचों से बचना चाहिए.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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