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Thursday, 21 November, 2024
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जयशंकर की जबान फिसली, लाव्रोव का पाकिस्तान दौरा- क्यों भारत-रूस के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है

ताजा घटनाक्रम यही संकेत देता है ‘वक्त की कसौटी पर खरा उतरा’ भारत-रूस संबंध सिकुड़ गया है और इसकी वजह यह है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे की भावनाओं की पर्याप्त परवाह नहीं कर रहे हैं.

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दिल्ली में पिछले सप्ताह रूसी विदेश मंत्री सर्गी लाव्रोव के साथ पत्रकारों से बात करते हुए भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर दोनों देशों के बीच वक्त की कसौटी पर खरे उतरे सदभावनापूर्ण संबंधों का जिक्र करते हुए ‘इंडिया-रशिया’ की जगह ‘इंडिया-यूएस’ बोल बैठे. अब कोई नासमझ या विद्वेषी ही होगा जो यह नहीं मानेगा कि उनकी जबान फिसल गई थी.

लाव्रोव के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई. भौतिक विज्ञान में गंभीर दिलचस्पी रखने वाले, 2004 से रूस के विदेश मंत्री लाव्रोव जानते हैं कि ऐसे ऊंचे पदों पर बैठे लोग किस तरह के दबाव में रहते हैं. लेकिन इस वाकये ने मुझे उस घटना की याद दिला दी जब 2011 में संयुक्त राष्ट्र की एक बैठक में तत्कालीन भारतीय विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने गलती से पुर्तगाली विदेश मंत्री का भाषण पढ़ दिया था, जिसकी प्रति उनकी मेज पर रखे कागजात में सबसे ऊपर रखी थी.

बहरहाल, गंभीर बात यह है कि लाव्रोव का दौरा कई वजहों से दिलचस्प रहा, इसलिए तो कतई नहीं कि दिल्ली से वे पाकिस्तान चले गए और इसे रूस की खराब नीति बताया गया. इस रिपोर्टर को दिए इंटरव्यू में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बेहद करीबी तथा विश्वासपात्र सहायक व्याशेस्लाव निकोनोव ने ज़ोर देकर कहा था कि भारत को पाकिस्तान के उनके दौरे को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि रूसी विदेश नीति के एजेंडा में पाकिस्तान का शायद ही कोई स्थान है. लेकिन निकोनोव ने कबूल किया था कि लाव्रोव का दौरा भारत को ‘एक संकेत’ है कि दुनिया का समीकरण किस तरह बदल रहा है और भारत अगर अपनी दोस्ती का दायरा बढ़ाना चाहता है, खासकर अमेरिका के साथ- जिसने पाकिस्तान से अपने संबंध का दर्जा घटाने से मना कर दिया था तो वह इस मामले में रूस से पूरी वफादारी की उम्मीद न करे.

इसीलिए जयशंकर के जबान का फिसलना अहमियत रखता है. यह न केवल यह बताता है कि भारत-रूस संबंध सिकुड़ गया है बल्कि यह भी बताता है कि ‘वक्त की कसौटी पर खरा उतरा’ यह संबंध इसलिए सिकुड़ रहा है क्योंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे की भावनाओं की पर्याप्त परवाह नहीं कर रहे हैं.


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क्या गलत हुआ

सबसे पहले, पाकिस्तान दौरे की बात करें.

लाव्रोव को ऐसे समय में पाकिस्तान जाने की शायद ही जरूरत थी जब भारत अफगानिस्तान के बड़े खेल में हुए नुकसान से उबर चुका था, जिस खेल को पाकिस्तान और उसके रहनुमा चीन ने हाल के वर्षों में रोक रखा था. लाव्रोव शायद दक्षिण एशिया मामलों के प्रभारी अपने ज्वाइंट सेक्रेटरी ज़मीर काबूलोव के प्रभाव में आ गए.

काबूलोव करीब एक दशक पहले अफगानिस्तान में रूस के राजदूत थे और उन्होंने रूस को पाकिस्तान के साथ करीबी रिश्ता बनाने के लिए राजी करने में पूरा ज़ोर लगा दिया था क्योंकि वह तालिबान पर खासा असर रखता है, इसके अलावा रूस में भी मुस्लिम आबादी अच्छी-खासी है. इस तरह के तर्क अमेरिका भी देता रहा है और शायद चीन भी. यह कि जिसका दबदबा है या जिसका पलड़ा भारी है- इस मामले में पाकिस्तान- उससे करीबी रिश्ता बनाकर रखो.

दूसरे, लाव्रोव दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं मिल पाए क्योंकि मोदी पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहे थे. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के दूत जॉन केरी अगले ही दिन मोदी से मिलने में सफल रहे. सवाल उठता है कि लाव्रोव को एक दिन बाद आने से या केरी की तरह एक दिन और रुक जाने से किसने रोका था? विदेश विभाग के राजनयिक प्रोटोकॉल का पालन करने पर जितना समय दिया करते हैं उसे देखते हुए यही लगता है कि या तो रूस ने लाव्रोव-मोदी मुलाकात के लिए ज़ोर नहीं दिया या भारतीयों ने इसकी परवाह नहीं की और मोदी के कार्यक्रम तय करने वालों को लाव्रोव से उनकी मुलाकात का समय तय करने को नहीं कहा या दूसरी तरफ से ऐसी कोशिश नहीं हुई.

तीसरे, यह धारणा तेजी से मजबूत हो रही है कि भारत अमेरिकी खेमे में जा रहा है. इन सबके अलावा, दौरे पर आए अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन से मोदी की अच्छी मुलाकात हुई. फिर, हाल में अमेरिकी नौसेना का मिसाइल संहारक सेवेंथ फ्लीट ‘यूएसएस जॉन पॉल जोन्स’ अवैध रूप से भारत (और मालदीव) के विशेष आर्थिक क्षेत्र में, बेशक जल मार्ग से गुजरा, वह भी भारतीय अधिकारियों को पर्याप्त सूचना दिए बिना. अमेरिका का कहना है कि वह समुद्र से संबंधित कानूनों के मामले में संयुक्त राष्ट्र के समझौते का पालन नहीं करता इसलिए उसने अपनी समुद्री गतिविधियों के बारे में भारत को सूचना देने की जरूरत नहीं समझी. भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस पर चिंता जाहिर करते हुए बयान जारी किया.

दुनिया कितनी बदल गई है. पचास साल पहले, 1971 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्व सोवियत संघ के साथ मैत्री एवं सहयोग संधि पर दस्तखत किया था, जब पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हालात बिगड़े थे और अमेरिकी सेवेंथ फ्लीट ने बंगाल की खाड़ी में घुसकर पाकिस्तान की ओर से अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की कोशिश की थी. 2021 में, भारत जबकि अमेरिकी नेतृत्व वाले गुट ‘क्वाड’ का हिस्सा बन चुका है, अमेरिकी सेवेंथ फ्लीट बिना इजाजत के ‘अनजाने में’ लक्षद्वीप के समुद्री क्षेत्र से गुजर जाता है.

चौथी बात यह है कि बारीकियों की समझ रखने वाले व्याशेस्लाव निकोनोव ने ‘क्वाड’ को रूस विरोधी गठबंधन कहा है, जो कि असामान्य बात है. वे कहते हैं कि अमेरिका ने रूस से अपनी दुश्मनी साफ कर दी है (जो बाइडन ने हाल में पुतिन को ‘हत्यारा‘ तक कह डाला) और भारत चूंकि अमेरिकी नेतृत्व वाले गुट का हिस्सा है, इसका मतलब यही है कि वह भी रूस विरोधी अमेरिकी साज़िशों में शामिल है.


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दिल्ली और मॉस्को में बढ़ती दूरी

जाहिर है, भारत और रूस के मध्यस्थों में गलतफहमी गहरे पैठ गई है और दोनों पक्ष अपने बीच की चौड़ी खाई को नहीं पाट पा रहे हैं या इसमें उनकी दिलचस्पी नहीं है. उदाहरण के लिए, जयशंकर ने लाव्रोव के साथ प्रेस वार्ता में दिए अपने बयान में कबूल किया कि ‘प्रतिरक्षा के मामले में हमारी जरूरतों‘ को पिछले साल तेजी से पूरा किया गया. बेशक वे उन सैन्य साजोसामान का जिक्र कर रहे थे जिनकी मांग भारत ने रूस से की थी ताकि लद्दाख के पहाड़ों पर चढ़ती आ रही चीनी सेना का वह मुकाबला कर सके. अब आपके मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि जयशंकर यह खुल कर क्यों नहीं कहते?

इस सवाल का सीधा-सा जवाब यह है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो कई दूसरे लोग नाराज हो जाएंगे. अगर यह खुलासा हो गया कि भारत चीनियों के खिलाफ रूसी हथियार इस्तेमाल कर रहा है, तब रूस-चीन रणनीतिक संबंध का क्या होगा जिसके बारे में निकोनोव बड़ी गर्मजोशी से बातें करते हैं? या इसी तरह भारत-अमेरिका के मजबूत होते रिश्ते का क्या होगा जबकि अमेरिका भारत को अपने हथियार आदि खरीदने को प्रोत्साहित कर रहा है?

बदलती विश्व व्यवस्था के बारे में लोग प्रायः यही चाहते हैं कि चीजें चाहें बदलें मगर किसी-न-किसी तरह यथास्थिति बनी रहे. उदाहरण के लिए, इंदिरा गांधी अपने शासन के शुरू में अमेरिका के दौरे पर गई थीं तो उनसे पूछा गया था कि भारत का झुकाव अमेरिका की तरफ है या सोवियत संघ की तरफ? मुस्कराते हुए उन्होंने जवाब दिया था, किसी भी तरफ नहीं! हम सीधे खड़े रहते हैं.

भारत में इन दिनों चल रहे हंगामी चुनावों के नतीजे 2 मई को जब सामने आ जाएंगे तब शायद प्रधानमंत्री मोदी ऐसे ही जज्बे का इजहार करेंगे.

(लेखिका कंसल्टिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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