नरेंद्र मोदी सरकार ने भारत की मुद्रास्फीति दर 4 प्रतिशत पर रखने का लक्ष्य तय किया है जिसमें, अगले पांच साल में यानी मार्च 2026 के अंत में 2 प्रतिशत की वृद्धि या कमी हो सकती है. यह फैसला स्वागत योग्य है.
पिछले स्तंभ में हमने कहा था कि इस समय मुद्रास्फीति के लक्ष्य में फेरबदल करने से इसको लेकर अपेक्षाओं को संभालना मुश्किल हो जाएगा.
वर्तमान अनिश्चित आर्थिक परिदृश्य में मुद्रास्फीति के लक्ष्य को स्थिर रखने से मजबूती आएगी और रिजर्व बैंक की मुद्रा नीति समिति (एमपीसी) को मुद्रास्फीति को लेकर अपेक्षाओं को संभालने और आर्थिक वृद्धि के लक्ष्य को लेकर संतुलन बनाने में भी मदद मिलेगी.
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चालू सीमा के पक्ष-विपक्ष में तर्क
भारत ने 2016 में मुद्रास्फीति लक्ष्य का लचीला ढांचा अपनाया. 2016 के वित्त एक्ट के तहत संशोधित रिजर्व बैंक एक्ट, 1934 ने आधुनिक मुद्रा नीति का ढांचा तैयार किया, जिसका स्पष्ट लक्ष्य था आर्थिक वृद्धि के लक्ष्य का ख्याल रखते हुए कीमतों की स्थिरता हासिल करना.
मुद्रास्फीति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए पॉलिसी रेट तय करने के लिए छह सदस्यीय एमपीसी का गठन किया गया, जिसमें तीन सदस्य अंदर के थे और तीन बाहर के. सरकार ने मुद्रास्फीति का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित लक्ष्य 4 प्रतिशत रखा जिसमें अगस्त 2016 से मार्च 2021 के बीच 2 प्रतिशत की वृद्धि या कमी हो सकती है.
संशोधित कानून की एक धारा कहती है कि मुद्रास्फीति दर के लक्ष्य की हर पांच साल पर समीक्षा की जाएगी. इसके मुताबिक, केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक को मार्च 2021 में लक्ष्य की समीक्षा करनी थी.
हाल के महीनों में यह बहस छिड़ी रही कि मुद्रास्फीति के लक्ष्य में संशोधन किया जाए ताकि केंद्रीय बैंक को ब्याज दरों में कटौती करने और महामारी से परेशान अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने का मौका मिले. कई टिप्पणीकारों ने सुझाव दिया है कि लक्ष्य में संशोधन के साथ ही मुद्रास्फीति के लक्ष्य तय करने के ढांचे में सुधार किया जाए. इसे रद्द करने के सुझाव भी दिए गए हैं.
आर्थिक सर्वेक्षण ने मुद्रास्फीति के पैमाने को ‘हेडलाइन इनफ्लेशन’ से बदलकर ’कोर इनफ्लेशन’ करने की बात की है, इस तरह, खाद्य सामग्री और ईंधन की कीमतों को शामिल न करने का सुझाव दिया है, जो बदलती रहती हैं और मुख्यतः सप्लाई पर निर्भर होती हैं जिसे मुद्रा नीति प्रभावित नहीं करती.
लेकिन रिजर्व बैंक ने विभिन्न प्रकाशनों के जरिए यह कहा है कि मुद्रास्फीति का लक्ष्य 4 प्रतिशत ही रखा जाए, जिसमें 2 प्रतिशत ऊपर-नीचे होने की गुंजाइश हो. मुद्रा और वित्त पर रिजर्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि फिलहाल जो लक्ष्य रखा गया है वह मुद्रास्फीति के लक्ष्य के मामले में संतुलन बनाए रखते हुए लचीलेपन की गुंजाइश छोड़ता है.
मुद्रास्फीति के लक्ष्य से छेड़छाड़ से इसको लेकर अपेक्षाओं को संभालने का काम कठिन बना सकता है. मुद्रास्फीति को लेकर अपेक्षाएं उसके लक्ष्य तय करने से पहले के स्तर से कम होती हैं तो वे वास्तविक मुद्रास्फीति से काफी ऊंची होती हैं. मुद्रास्फीति को लेकर अपेक्षाओं को मजबूत आधार देने के लिए जरूरी है कि मुद्रास्फीति के लक्ष्य को 4 प्रतिशत पर बनाए रखा जाए. इसके अलावा, 4 प्रतिशत के लक्ष्य को मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति के तालमेल में माना जाता है, जो कि 2015 के बाद से गिर कर 4 से 4.2 प्रतिशत के आसपास है.
2 प्रतिशत की ऊंच-नीच की गुंजाइश के बारे में रिपोर्ट कहती है कि 6 प्रतिशत से ऊपर की गुंजाइश की सीमा उलटे नुकसान पहुंचाएगी क्योंकि यह आर्थिक वृद्धि को बाधित करेगी, जबकि 2 प्रतिशत की निचली सीमा भी उपयुक्त है क्योंकि मुद्रास्फीति को 2 प्रतिशत से नीचे ले जाने पर उत्पादन के लिए प्रोत्साहन घटेगा, फर्म्स बढ़ी हुई लागत को अंतिम उपभोक्ता पर नहीं डाल पाएंगी.
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आर्थिक वृद्धि और मुद्रास्फीति में रिश्ता
मुद्रास्फीति के लक्ष्य के ढांचे को ही तोड़ देने की वकालत करने वालों का कहना है कि जब से इसे लागू किया गया है तब से रिजर्व बैंक को दरों में कटौती करने में मुश्किल होने लगी है और इसके कारण आर्थिक वृद्धि बाधित हुई है.
आलोचकों का कहना है कि आर्थिक वृद्धि पर ज़ोर देने के लिए ऊंची मुद्रास्फीति को बर्दाश्त करना पड़ेगा. यह तर्क इस धारणा पर आधारित है कि आर्थिक वृद्धि और मुद्रास्फीति के बीच ऐसा रिश्ता है कि एक बढ़ता है तो दूसरा घटता है. लेकिन मध्य अवधि से दीर्घ अवधि के बीच अर्थी वृद्धि और मुद्रास्फीति के बीच ऐसा समीकरण नहीं रह जाता, इसलिए वृद्धि पर ज़ोर घटाने से इसकी संभावना कमजोर हो सकती है.
दूसरा, भारत ने मुद्रास्फीति को जिस तरह लक्ष्य बनाया है उससे रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखते हुए आर्थिक वृद्धि पर ज़ोर देने की गुंजाइश बनी रहती है. कोविड-19 संकट के बाद और उससे पहले भी रिजर्व बैंक आर्थिक वृद्धि पर ज़ोर देता रहा है, ब्याज दरों में कटौतियां की है, गुंजाइश बनाए रखने की कोशिश की है और जब तक जरूरी है तब तक आर्थिक वृद्धि पर ज़ोर देती रही है, भले ही सप्लाई की बाधाओं के कारण मुद्रास्फीति बढ़ी हो.
हाल के दौर में, कई देशों ने मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने के अपने ढांचे की समीक्षा की है ताकि अस्थिर आर्थिक स्थितियों को संभालने के लिए लचीला रुख अपनाया जा सके. विकसित देश नीची मुद्रास्फीति और नीची ब्याज दरों से बने हालात का सामना कर रहे हैं इसलिए उन्होंने मुद्रास्फीति को बेहतर बनाने के लिए अपनी रणनीति बदली है.
उदाहरण के लिए, अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने घोषणा की है कि वह मुद्रास्फीति को औसत स्तर पर रखने की कोशिश करेगा. इसका नतीजा यह होगा कि वह कुछ समय के लिए मुद्रास्फीति की 2 फीसदी की दर हासिल कर पाएगा, जबकि मुद्रास्फीति 2 फीसदी के लक्ष्य से नीचे रही है. जापान भी ऐसी ही रणनीति अपना रहा है ताकि आर्थिक वृद्धि को मजबूत करने के लिए मुद्रास्फीति 2 फीसदी के लक्ष्य से ऊपर रहे.
विकासशील देश भी अपने लक्ष्यों की समीक्षा करते रहे हैं ताकि मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं को बेहतर आधार दिया जा सके, साथ में आर्थिक वृद्धि के लिए भी उनके ढांचे को लचीला बनाया जा सके. उदाहरण के लिए, थाईलैंड ने ‘कोर’ मुद्रास्फीति की जगह ‘हेडलाइन’ मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनया है और 1.5 फीसदी से ऊपर-नीचे होने वाले 2.5 फीसदी के ‘पॉइंट टार्गेट’ की जगह 1 से 3 फीसदी के ‘रेंज टार्गेट’ को अपनाया है. थाई सेंट्रल बैंक का कहना है कि ‘रेंज टार्गेट’ अपनाने से आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने की गुंजाइश बढ़ जाती है.
(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री हैं और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं राधिका पाण्डेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(श्रेयस शर्मा द्वारा संपादित)
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