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Friday, 22 November, 2024
होमदेशकाफी देरी से चल रही 110 किमी. लंबी सड़क भारत-म्यांमार कलादान प्रोजेक्ट के लिए है अंतिम चुनौती

काफी देरी से चल रही 110 किमी. लंबी सड़क भारत-म्यांमार कलादान प्रोजेक्ट के लिए है अंतिम चुनौती

2008 में स्वीकृत MEA की एक पहल, कलादान परियोजना का लक्ष्य, भारत के लिए दक्षिणपूर्व एशिया का मार्ग सुगम बनाना है, और साथ ही ज़मीन से घिरे उत्तरपूर्व, और शेष भारत के बीच, एक वैकल्पिक मार्ग भी मुहैया कराना है.

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ज़ोरिनपुई (मिज़ोरम) : दोपहर बीत चुकी है और भारत-म्यांमार सीमा से लगे ज़ोरिनपुई में, एक निर्माण स्थल पर दर्जनों मज़दूर मिज़ोरम की मध्यम धूप में मेहनत से काम पर लगे हैं. उनके ज़मीन गहराई से खोदने से, हवा में धूल के बादल छाए हुए हैं.

एक पहाड़ी इलाक़े में जहां कहीं हरियाली है, तो कहीं रेतीले, पथरीले प्राकृतिक नज़ारे हैं, मज़दूर एक पुल बना रहे हैं. एक भारी भरकम ढांचा जो टैंकों और दूसरे सैन्य उपकरणों का वज़न झेल सके.

ये ज़ोरिनपुई और लॉन्गतलाई के बीच बनाए जा रहे, आठ पुलों में से एक है, जो मिज़ोरम के काफी अंदर स्थित है. ये उन बहुत से निर्माणों में से एक है, जो मिलकर सामरिक महत्व की कलादान मल्टी-मोडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट का रूप लेंगे.

2008 में स्वीकृत MEA की पहल पर इस परियोजना का लक्ष्य भारत के लिए म्यांमार से होते हुए दक्षिण-पूर्व एशिया तक पहुंचना है और साथ ही ज़मीन से घिरे उत्तर-पूर्व और शेष भारत के बीच एक वैकल्पिक मार्ग भी मुहैया कराना है, जो काम फिलहाल केवल सिलिगुड़ी के संकरे कॉरिडोर से होता है. ये परियोजना ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ के तहत शुरू की गई थी, जो पीछे 1991 तक जाती है और जिसे मोदी सरकार ‘एक्ट ईस्ट’ के तहत आगे बढ़ा रही है, जो उसी पॉलिसी का इसका नया रूप है.

कलादान परियोजना पश्चिम बंगाल से शुरू होती है और 500 किलोमीटर का फासला तय करते हुए बंगाल की खाड़ी से होते हुए म्यांमार के सितवे पोर्ट तक जाती है, जहां ये कलादान नदी को चैनल करते हुए- जो म्यांमार से मिज़ोरम तक बहती है- उत्तर-पूर्व से जोड़ती है.

जैसा कि इसके नाम में निहित है, ये एक मल्टीमॉडल है जिसमें सड़कों और पुलों से लेकर तैरती हुई नौकाओं तक, तरह तरह के इनफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल किया गया है.

पिछले साल कोविड-19 की वजह से, एक साल तक स्थगित रहने के बाद परियोजना का काम कुछ महीने पहले ही फिर से शुरू हुआ है.

लेकिन, महामारी इस परियोजना में देरी की सिर्फ एक ताज़ा वजह है, जो अपनी पहली समय सीमा के सात साल बीत जाने के बाद भी अधूरी है. इन देरियों तथा भूमि अधिग्रहण के ख़र्च ने, इसके बजट को छह गुना बढ़ाकर, 3,200 करोड़ रुपए पहुंचा दिया है, जो 2008 में 536 करोड़ रुपए था.

कलादान परियोजना के सामने अब 2023 की एक नई समय सीमा है, लेकिन सरकारी अधिकारियों को आशंका है कि ये भी निकल जाएगी.

इसकी अधिकतर चिंता म्यांमार मार्ग के 110 किलोमीटर के हिस्से पर टिकी है, जिससे होकर गुज़रना विशेष रूप से कठिन साबित हुआ है और जिसमें बहुत सी बाधाओं ने- इनमें एक कंपनी का दिवालिया होना और म्यांमार का एक मिलिशिया समूह शामिल हैं- इसके निर्माण के साथ लुका-छिपी का खेल खेला है. म्यांमार में तख़्तापलट से भी, जिसके खिलाफ देशभर में ज़बर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुए हैं, हालात बेहतर नहीं हुए हैं.

एक्सपर्ट्स का कहना है कि नाज़ुक क्षेत्रीय समीकरण, इन निरंतर देरियों के बीच लटके हुए हैं. उनका ये भी कहना है कि भारत को, परियोजना पूरा करने की अपनी क्षमता को कड़ाई से आंकना होगा, कहीं ऐसा न हो कि चीन- जो तेज़ काम करने के लिए प्रतिष्ठित है- उससे आगे निकल जाए.


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परियोजना की क्या स्थिति है

भारत और म्यांमार के बीच कलादान परियोजना के लिए 2008 में समझौते पर दस्तख़त हुए थे.

परियोजना में पहले म्यांमार के सितवे पोर्ट को, बंगाल की खाड़ी से होते हुए पश्चिम बंगाल के हल्दिया से जोड़ा जाएगा (नक़्शे में देखिए). उसके बाद तैरती हुई नौकाओं से, पालेतवा तक पहुंचा जाएगा.

परियोजना का अगला हिस्सा, एक 110 किलोमीटर लंबी सड़क है, जो पालेतवा को सीमा पर ज़ोरिनपुई से जोड़ेगी. इस हिस्से का निर्माण दो टुकड़ों में किया जा रहा है- पालेतवा से कालेतवा तक 60.8 किलोमीटर, जिसमें कालेतवा में कलादान पर एक 280 मीटर लंबा पुल भी शामिल है, और कालेतवा से ज़ोरिनपुई तक 49.2 किलोमीटर.

उसके आगे ज़ोरिनपुई से लॉन्गत्लाई तक का 87.8 किलोमीटर का हिस्सा है, जिसमें आठ पुल हैं जिनका ऊपर उल्लेख है. प्रोजेक्ट में म्यांमार में 25 पुलों की कल्पना की गई है- जैसे भारत में बन रहे हैं.

परियोजना का निर्माण 2010 में शुरू हुआ था, और इसकी शुरुआती समय सीमा 2014 थी.

लेकिन उस साल तक परियोजना में कोई प्रगति नहीं हुई. इसके कारणों में सरकार के भीतर ही समन्वय के मुद्दे थे, चूंकि बिजली मंत्रालय ने कलादान की सहायक नदियों पर, पन बिजली परियोजनाएं बनाने के लिए, अपनी अलग योजना बना ली थी. समस्याएं इसलिए भी पैदा हुईं, क्योंकि म्यांमार में सड़क की लंबाई को कम आंका गया था.

2021 के अंत की एक और समय सीमा निर्धारित की गई. लेकिन, बहुत सारा काम अधूरा रहने की वजह से, इसे अब बदलकर 2023 कर दिया गया है.

परियोजना की ताज़ा स्थिति के रिकॉर्ड्स से पता चलता है कि सितवे पर समुद्री बंदरगाह का काम पूरा हो चुका है, जहां इस साल की पहली तिमाही में, संचालन शुरू होना निर्धारित है.

सितवे और पालेतवा के बीच कलादान के निकर्षण का काम भी पूरा हो चुका है. छह नौकाएं पहले ही मुहैया कराई जा चुकी हैं और पालेतवा में एक जेटी के निर्माण का काम भी पूरा कर लिया गया है.

भारत की ओर, ज़ोरिनपुई और लॉन्गत्लाई को जोड़ने वाली 87.8 किलोमीटर लंबी सड़क भी 80 प्रतिशत पूरी कर ली गई है. यहां का काम दो कंपनियां कर रही हैं, आरडीएस प्रोजेक्ट लिमिटेड और एआरएसएस.

One of the completed stretches of road between Zorinpui and Lawngtlai | Amrita Nayak Dutta | ThePrint
ज़ोरिनपुई और लॉन्गतलाई के बीच सड़क के पूरा किए गए हिस्सों में से एक | फोटो- अमृता नायक दत्ता, दिप्रंट

आठ में से पहला पुल- जो ज़ोरिनपुई जाते हुए लॉन्गत्लाई से क़रीब 15 किलोमीटर दूर स्थित है, निर्माण के शुरुआती चरण में है, चूंकि ये आख़िरी है. बाक़ी पुल लगभग तैयार हैं.

निर्माण स्थल पर मौजूद कंपनी अधिकारियों का कहना है कि परियोजना फिर से पटरी पर लौट आई है.

मौक़े पर मौजूद कंपनी के एक एग्ज़िक्यूटिव ने दिप्रिंट से कहा, ‘महामारी के कारण काम बीच में रुक गया था. अराकन सेना (म्यांमार स्थित एक बाग़ी मिलीशिया) की वजह से भी एक डर पैदा हो गया था, लेकिन अब काम सुचारू रूप से चल रहा है’.

पिछले महीने, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा, कि परियोजना अब अपने अंतिम चरण में है.


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बहुत सी बाधाएं

लेकिन पिछले कुछ सालों में, म्यांमार के भीतर सड़क निर्माण के काम में काफी बाधाएं आई हैं.

अपने पहले कार्यकाल के शुरू में, मोदी सरकार ने सरकारी स्वामित्व की इरकॉन इनफ्रास्ट्रक्चर (इंडियन रेलवे कंस्ट्रक्शन) को, परियोजना के सलाहकार के तौर पर साथ लिया. अक्टूबर 2015 में उसने परियोजना की संशोधित लागत को मंज़ूरी दी और जून 2017 में एक ठेकेदार का चयन कर लिया गया.

2017 में ईपीआईएल और सीएंडसी कंस्ट्रक्शंस के एक संयुक्त उपक्रम ने, सड़क के पहले हिस्से पर काम शुरू किया, लेकिन 2019 में सीएंडसी के दिवालिया घोषित होने के बाद निर्माण कार्य रोक दिया गया.

उसके बाद, ईपीआईएल-सीएंडसी कंस्ट्रक्शंस के संयुक्त उपक्रम ने, कालेतवा और ज़ोरिनपुई के बीच 49.2 किमी लंबे दूसरे हिस्से का निर्माण कार्य, एक दूसरे संयुक्त उपक्रम आरके-आरपीपी को ठेके पर दे दिया.

आरके-आरपीपी का एक एग्ज़िक्यूटिव ने, जो मौक़े पर मौजूद था, दिप्रिंट को बताया कि कंपनी ने मार्च 2020 में काम मिलने के साथ ही, इस हिस्से पर निर्माण शुरू कर दिया था लेकिन लॉकडाउन की वजह से उन्हें निर्माण कार्य स्थगित करना पड़ा.

कंपनी के प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेटर टीएस नेगी ने कहा, ‘पांच किलोमीटर लंबी सड़क बनाई जा चुकी है (म्यांमार के अंदर), हालांकि उस पर अभी काली परत नहीं बिछाई गई है. सड़क के लिए 20 किलोमीटर तक के जंगल साफ कर दिए गए हैं, और 10 किलोमीटर सड़क का सर्वे हो चुका है’.

इस बीच, सड़क के पहले हिस्से का काम अभी रुका हुआ है.

रक्षा सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि महामारी के अलावा कुछ दूसरे कारण भी हैं, जिनकी वजह से पिछले कुछ सालों में काम प्रभावित हुआ है. इन कारणों में पहाड़ी इलाक़ा, छह महीने का सालाना मॉनसून सीज़न और लालफीता शाही शामिल हैं- क्योंकि दोनों ओर से इस काम में कई सरकारी एजेंसियां लगी हुई हैं.

एक अन्य फैक्टर है आतंक, जो म्यांमार स्थित जातीय मिलिशिया समूह अराकन सेना और देश की सेना के बीच, बार-बार हुई गोलीबारी से पैदा हुआ है.

नवंबर 2019 में, इस ग्रुप ने आरके-आरपीपी की एक टीम को, उस समय अग़वा कर लिया, जब वो पालेतवा से कालेतवा और ज़ोरिनपुई के बीच के इलाक़े की रेकी कर रही थी. अराकन सेना के कैम्प में रखे जाने के दौरान, कंपनी के एक इंजीनियर की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई.

दो और घटनाएं हुईं, जिनमें जून और अगस्त 2019 के बीच एक बार गोलियां चलीं और एक माइन ब्लास्ट हुआ.

बाग़ी ग्रुप की कथित धमकी के कारण ही दूसरे चरण की निर्माण योजना को वापस ले लिया गया.

मौक़े पर मौजूद अधिकारियों ने कहा कि सड़क निर्माण पहले पालेतवा से ज़ोरिनपुई (दक्षिण से उत्तर) की ओर शुरू होना था, लेकिन अब आरके-आरपीपी इसे ज़ोरिनपुई से पालेतवा (उत्तर से दक्षिण) की ओर से बना रहे हैं.

माना जा रहा था कि चीन इस ग्रुप का वित्तपोषण कर रहा था, इसलिए तख़्तापलट के बाद म्यांमार सेना ने, इसे एक आतंकी समूह बताते हुए सूची से हटा दिया. लेकिन इसी हफ्ते इसने सैनिक तख़्तापलट तथा उसके बाद प्रदर्शनकारियों पर हुई हिंसक कार्रवाई की निंदा की.

परियोजना को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए असम रायफल्स ने ज़ोरिनपुई में एक कंपनी तैनात की है. साथ ही म्यांमार सेना ने भी एक बटालियन, इसकी सुरक्षा को समर्पित की है.

अधिकारियों का कहना है कि हाल के दिनों में, अराकन सेना की ओर से कोई बाधा सामने नहीं आई है. नेगी ने कहा, ‘असम रायफल्स की भारी सहायता के साथ, हम ज़ोरिनपुई की ओर से सड़क निर्माण का काम शुरू करने में कामयाब हो गए हैं’.

मिज़ोरम में असम रायफल्स के कमांडर, ब्रिगेडियर दिग्विजय सिंह ने दिप्रिंट से कहा कि अराकन सेना की ओर से कोई व्यवधान न होने के कारण, कलादान परियोजना का काम तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. उन्होंने कहा, ‘इसका समाज पर गहरा असर पड़ेगा, आर्थिक भी और दक्षिण मिज़ोरम के विकास पर भी’.

मौक़े पर मौजूद एनजीओ सेंट्रल यंग लाइ एसोसिएशन के सचिव, जोज़फ लालमिंग्थांगा भी इससे सहमत थे. उन्होंने कहा, ‘ये परियोजना यहां के स्थानीय लोगों के लिए नए अवसर खोलेगी’. उन्होंने आगे कहा कि स्थानीय लोगों के असम रायफल्स के साथ अच्छे रिश्ते हैं, जो इलाक़े के युवाओं को भर्ती से पहले की ट्रेंनिंग मुहैया करा रही है.

अधिकारियों को उम्मीद है कि ज़ोरिनपुई पर आठवां पुल चालू होने के साथ ही सीमा के उस पार भी निर्माण कार्य में तेज़ी लाई जा सकेगी, क्योंकि भारी मशीनरी को लाना ले जाना सुविधाजनक हो जाएगा.

लेकिन मामले के जानकार सरकारी अधिकारियों को लगता है कि परियोजना 2023 की समय सीमा तक भी पूरी नहीं हो पाएगी.

एक सरकारी अधिकारी ने कहा, ‘कठिन इलाक़े तथा रसद से जुड़ी समस्याओं के अलावा, मॉनसून भी परियोजना की राह में एक बड़ी बाधा हैं’. अधिकारी ने कहा कि इस इलाके में, मॉनसून अप्रैल के अंत में शुरू होंगे और सितंबर-अक्टूबर तक चलेंगे, जिसके दौरान निर्माण कार्य पूरी तरह रुक जाता है’.

चीन का सवाल

विशेषज्ञों के अनुसार, म्यांमार में अराकन सेना और दूसरे विद्रोही मिलीशिया को समर्थन और वित्तीय सहायता देने के अलावा, चीन यहां की ढांचागत परियोजनाओं में भी भारी निवेश कर रहा है.

इसकी एक मिसाल है चाइना-म्यांमार इकॉनॉमिक कॉरिडोर (सीएमईसी), जो चीन में यूनान प्रांत के कुनमिंग को, म्यांमार के मंडालय से होते हुए बंगाली की खाड़ी पर स्थित क्यॉकप्यू से जोड़ेगा, जहां एक गहरा समुद्री बंदरगाह निर्मित किया जा रहा है. एक्सपर्ट्स का कहना है भारत को इसे ध्यान में रखना होगा.

दिप्रिंट से बात करते हुए पूर्व विदेश सचिव श्याम सरण ने कहा कि म्यांमार के साथ कनेक्टिविटी सुधारने के लिए, भारत ने कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं शुरू की हैं, जिनमें भारत-म्यांमार-थाइलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग और कलादान ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर शामिल हैं.

म्यांमार में भारत के राजदूत के तौर पर काम कर चुके सरण ने कहा, ‘लेकिन ये परियोजनाएं अभी तक अधूरी हैं, और इनमें काफी देरी हुई है. दूसरी ओर चीन ने अपनी प्रतिबद्धताओं को, तेज़ी से पूरा करने में अपना नाम कमाया है, न केवल म्यांमार बल्कि दूसरे देशों में भी’.

उन्होंने कहा, ‘हमें अपनी परियोजनाओं को समय पर पूरा करने की क्षमता पर गहराई और सावधानी से नज़र डालने, और उसमें सुधार करने की ज़रूरत है’. उन्होंने आगे कहा कि इसके लिए विदेश मंत्रालय की निगरानी में, एक स्वायत्त विकास सहयोग एजेंसी का गठन किया जा सकता है.

मुम्बई स्थित एक विदेश नीति थिंक-टैंक गेटवे हाउस के डिस्टिंग्विश्ड फेलो, और म्यांमार में भारत के पूर्व राजदूत राजीव भाटिया के अनुसार, सैन्य तख्तापलट से कलादान परियोजना, और त्रिपक्षीय राजमार्ग दोनों में देरी हो सकती है, क्योंकि वहां एक अंदरूनी संकट है और पहली प्राथमिकता देश को स्थिर करना है.

सड़क के म्यांमार हिस्से के बारे में बात करते हुए, भाटिया ने ये भी कहा कि जिस तरह कलादान परियोजना को, म्यांमार के लोगों के सामने पेश किया गया, वो भी समस्या का एक कारण है. उन्होंने कहा, ‘कलादान को हमेशा एक ऐसा विकास कार्य बताया गया, जो भारत के ट्रांज़िट रूट को कम करेगा ऐसा नहीं जो म्यांमार को भी बराबर का फायदा पहुंचाएगा’.

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के एक पूर्व सदस्य, जयदेव रानाडे ने दिप्रिंट से कहा कि चीन, देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए, सेना का समर्थन करके अपनी स्थिति को और मज़बूत कर सकता है.

भाटिया ने आगे कहा कि जहां तक म्यांमार में चीनी प्रभाव की बात है, तो वो आजकल मुश्किल में हैं, क्योंकि ‘उनके बीच आपसी विश्वास का अभाव है, चूंकि वो विभिन्न बाग़ी गुटों को वित्तीय सहायता देता रहा है’.

उन्होंने कहा, ‘साथ ही साथ म्यांमार में चीन-विरोधी भावना भी बढ़ रही है. लेकिन अगर सेना टिकी रही तो बीजिंग, उसके साथ समीकरण बिठाने का कोई न कोई रास्ता निकाल लेगा’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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