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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतमोदी और इमरान-पाकिस्तानी सेना के बीच सहमति, शांति की संभावना को मनमोहन-वाजपेयी दौर के मुक़ाबले बढ़ाती है

मोदी और इमरान-पाकिस्तानी सेना के बीच सहमति, शांति की संभावना को मनमोहन-वाजपेयी दौर के मुक़ाबले बढ़ाती है

भारत के साथ शांति के मुद्दे पर पाकिस्तान इस बार पीछे नहीं हटेगा, क्योंकि उसके पास पीछे हटने का विकल्प नहीं है.

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ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के आह्वान पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है. पाकिस्तान दिवस की शुभकामनाएं देते हुए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को भेजे पत्र में मोदी ने लिखा, ‘एक पड़ोसी देश के रूप में भारत पाकिस्तान के लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध की इच्छा रखता है. इसके लिए विश्वास का माहौल और आतंक और शत्रुता रहित परिवेश अनिवार्य है.’ मोदी का संदेश वैचारिक रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि पाकिस्तान दिवस 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान के निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने हेतु प्रस्ताव पारित करने की याद में मनाया जाता है.

पर्दे के पीछे वार्ताओं की प्रक्रिया से जुड़े व्यक्तियों के अलावा अधिकांश लोगों के लिए भारत और पाकिस्तान के सैन्य संचालन महानिदेशकों का 25 फरवरी का संयुक्त बयान चौंकाने वाला था. बयान के ज़रिए लंबे समय से भुलाए गए 2003 के संघर्षविराम समझौते में फिर से जान फूंका गया था और पांच साल से ठंडे बस्ते में पड़ी कूटनीति को झाड़-पोंछ कर बाहर निकाला गया था.

तीन हफ्ते बाद 18 मार्च को, पाकिस्तान के सर्वशक्तिमान सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने इस्लामाबाद सुरक्षा संवाद में अपने वक्तव्य से कहीं अधिक चौंकाने का काम किया. उन्होंने पाकिस्तान को राष्ट्रीय सुरक्षा के सैन्य पहलुओं पर जुनून की हद तक ज़ोर देने वाले ‘राष्ट्रीय सुरक्षा राष्ट्र‘ से आर्थिक सुरक्षा और जनकल्याण पर ध्यान केंद्रित वाले राष्ट्र के रूप में तब्दील करने की वकालत की. इस परिकल्पना को पूरा करने के लिए पाकिस्तान को आंतरिक और बाह्य शांति तथा भारत के साथ स्थिर संबंधों की दरकार है. कश्मीर विवाद के समाधान की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए, बाजवा ने शांति प्रक्रिया आगे बढ़ाने के लिए ‘अनुकूल वातावरण’ के अलावा और किसी पूर्व शर्त की बात नहीं की. इसके एक दिन पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी मिलते-जुलते विचार सामने रखे थे.


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क्या कहा जनरल बाजवा ने?

जनरल बाजवा ने पाकिस्तान की परिकल्पना आंतरिक स्थायित्व और अपने पड़ोसियों, विशेष रूप से भारत और अफगानिस्तान के साथ शांतिपूर्ण संबंधों वाले देश के रूप में की, जो मध्य, पश्चिम, दक्षिण और पूर्वी एशिया की अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ने वाली क्षेत्रीय आर्थिक धुरी के रूप में उभर सकता है. इसके लिए उन्होंने क्षेत्रीय सहयोग संगठन सार्क को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत पर भी बल दिया.

पाकिस्तान की भू-राजनीतिक परिकल्पना चार मुख्य स्तंभों पर आधारित है—’आंतरिक और बाह्य स्तरों पर टिकाऊ और स्थायी शांति की दिशा में बढ़ना; पड़ोस और क्षेत्र के देशों के आंतरिक मामलों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना; अंतर-क्षेत्रीय व्यापार और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देना; और क्षेत्र के भीतर निवेश और आर्थिक केंद्रों की स्थापना कर सतत विकास और समृद्धि सुनिश्चित करना.’

भारत-पाकिस्तान संबंधों पर बाजवा ने कहा, ‘स्थिर भारत-पाकिस्तान संबंध पूर्व और पश्चिम एशिया के बीच कनेक्टिविटी सुनिश्चित कर दक्षिण एवं मध्य एशिया की अप्रयुक्त क्षमता के दोहन के लिए महत्वपूर्ण है…. यह समझना महत्वपूर्ण है कि शांतिपूर्ण उपायों से कश्मीर विवाद के समाधान के अभाव में राजनीति प्रेरित संघर्षप्रियता से उपमहाद्वीपीय मेल-जोल की प्रक्रिया के बेपटरी होने का खतरा हमेशा बना रहेगा. हालांकि, हमें लगता है कि यह अतीत को दफन करने और आगे बढ़ने का अवसर है. लेकिन शांति प्रक्रिया या सार्थक वार्ताओं को दोबारा शुरू करने के लिए हमारे पड़ोसी को, खासकर भारत अधिकृत कश्मीर में, अनुकूल वातावरण तैयार करना होगा.’

जनरल बाजवा ने ज़ोर देकर कहा कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपेक) पाकिस्तान की आर्थिक परिवर्तन की योजना के केंद्र में, और ऊपर वर्णित परिकल्पना के मूल में है.

क्या है इन सब के पीछे?

क्षेत्रीय आर्थिक धुरी बनने की पाकिस्तान की नई परिकल्पना सीपेक की सफलता पर निर्भर करती है, जो कि चीन की प्रमुख बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) है. इस प्रकार चीनी अर्थव्यवस्था पश्चिम, मध्य और दक्षिण एशिया से भी जुड़ जाती है. सीपेक गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरता है, जो कि पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला भारतीय क्षेत्र है. इस क्षेत्र में संघर्ष से सीपेक खतरे में पड़ जाएगा.

संक्षेप में, पाकिस्तान का आर्थिक भविष्य भारत के साथ मेल-जोल पर निर्भर करता है और इसमें चीन की भूमिका स्पष्ट है. दरअसल, चीन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच वुहान और महाबलीपुरम के शिखर सम्मेलनों के दौरान तीनों देशों के बीच त्रिपक्षीय आर्थिक सहयोग की वकालत की थी. पूर्वी लद्दाख में चीन की एकतरफा कार्रवाइयों के संभावित राजनीतिक उद्देश्यों में से एक है एक सतत मौजूद खतरे से सीपेक की सुरक्षा सुनिश्चित करना और भारत पर पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए दबाव बनाना.

परमाणु हथियार पाकिस्तान को अस्तित्वगत खतरे से बचाते हैं. लेकिन भारत की सैन्य श्रेष्ठता के खिलाफ एक न्यूनतम पारंपरिक रक्षा क्षमता कायम रखना भी उसकी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ता है. पाकिस्तान की जम्मू कश्मीर पर जबरन कब्जा करने की सैन्य हैसियत नहीं है. जम्मू कश्मीर के लिए उसके द्वारा अपनाई गई चौथी पीढ़ी की युद्धनीति को भारतीय सेना ने बेअसर कर दिया है. उसके द्वारा आतंकवाद के सरकारी प्रायोजन से आंतरिक खतरे पैदा हुए हैं और अस्थिरता की स्थिति बनी है जो विदेशी निवेश को हतोत्साहित करती है. फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) के प्रतिबंधों और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की कड़ी शर्तों के कारण अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव की स्थिति बन गई है.

उपरोक्त परिस्थितियों के मद्देनज़र, भारत के साथ शांति स्थापित करना उसके लिए कोई पसंद का मामला नहीं बल्कि एक रणनीतिक/आर्थिक मजबूरी है. पाकिस्तान के लिए धार्मिक राष्ट्रवाद के नशे में डूबी अपनी जनता को नई वास्तविकताओं से अवगत कराना और खुद अपने ही द्वारा निर्मित आतंकवादी नेटवर्क पर लगाम लगाना एक बड़ी चुनौती होगी.

आगे की राह

पाकिस्तान के पास परमाणु हथियारों की मौजूदगी के कारण भारत पारंपरिक सैन्य ताक़त में अपनी श्रेष्ठता के सहारे उस पर बाध्यकारी दबाव नहीं डाल सकता है. और अब एक साथ दो मोर्चे पर युद्ध के खतरे के वास्तविकता बनने के साथ यह विकल्प बेमानी हो गया है. परमाणु संघर्ष से बचते हुए एक प्रभावी दंडात्मक कार्रवाई करने के लिए, भारत के पास जरूरी तकनीकी सैन्य क्षमता नहीं है. दूसरी ओर, पाकिस्तान के पास किसी भी युद्ध/संघर्ष में गतिरोध की स्थिति बनाने के लिए पर्याप्त सैन्य क्षमता है. विडंबना ये है कि पाकिस्तान की स्थिति वैसी ही है जैसा कि चीन के खिलाफ भारत की है.

ये गौर करने वाली बात है कि हालिया घटनाक्रम 2003 से 2008 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी-मनमोहन सिंह-परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर के शांति प्रयासों का प्रतिबिंब नज़र आता है, जिसने चार सूत्रीय समाधान प्रस्तुत किया था. हालांकि, मुशर्रफ को 18 अगस्त 2008 को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किए जाने के बाद पाकिस्तानी सेना ने उस योजना से अपना समर्थन वापस ले लिया और मुंबई में 26/11 हमले के साथ ही उसके द्वारा समर्थित आतंकवादियों ने शांति प्रक्रिया को पटरी से उतार दिया. पाकिस्तान की सेना ने 2014 से 2015 तक वहां की चुनी हुई सरकार के साथ प्रधानमंत्री मोदी की दोस्ताना पहल के मामले में भी यही काम किया. जनरल बाजवा ने कोर कमांडरों को भरोसे में लिए बिना कदम आगे नहीं बढ़ाया होगा. पाकिस्तानी सेना के आम सैनिक हमारे सैनिकों के समान ही पेशेवर हैं और उनमें मतभेद की संभावना नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी अपनी लोकप्रियता और राजनीतिक कौशल के सहारे राष्ट्र को एकजुट कर सकते हैं. ऐसा ही पाकिस्तान सेना भी कर सकती है.

जहां तक जम्मू-कश्मीर में ‘अनुकूल माहौल’ का सवाल है, यह शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए पाकिस्तान की सांकेतिक पूर्व शर्त होने के साथ-साथ हमारी राजनीतिक मजबूरी भी है. मेरे विचार में, राज्य के दर्जे की बहाली, सभी हितधारकों के साथ सहभागिता और एक निर्वाचित सरकार इसके लिए पर्याप्त होंगी. जनरल बाजवा पहले ही प्रधानमंत्री मोदी की तीन शर्तों—’विश्वास का माहौल तथा आतंक और शत्रुता रहित परिवेश’ —को पूरा करने की प्रतिबद्धता जता चुके हैं लेकिन उन्हें ये सब करके दिखाना होगा. जम्मू कश्मीर में मारे गए/सक्रिय पाकिस्तानी आतंकवादियों की संख्या में भारी गिरावट पाकिस्तान की मंशा का एक संभावित संकेत हो सकती है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि दोनों देश ये भलीभांति समझते हैं कि सीमाएं दोबारा खींची नहीं जा सकती हैं लेकिन आर्थिक सहयोग निश्चय ही उन्हें अप्रासंगिक कर सकता है. हमारे सामने यूरोपीय संघ का उदाहरण मौजूद है जहां कि खून में सने अतीत को काफी पहले भुलाया जा चुका है. पाकिस्तान के खिलाफ बाध्यकारी कार्रवाई संबंधी हमारी खुद की रणनीतिक सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, अर्थव्यवस्था केंद्रित शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में कोई बुराई नहीं है. मेरे आकलन से, पाकिस्तान का भविष्य दांव पर है और वह पीछे नहीं हटेगा, क्योंकि उसके पास पीछे हटने का विकल्प नहीं है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुराग चौबे द्वारा संपादित)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)


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