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Thursday, 21 November, 2024
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भारत का स्कॉटलैंड यार्ड यानि मुंबई पुलिस- खाकी के गौरव और खादी की परछाई के बीच फंसी हुई है

मुंबई पुलिस ने अपनी विश्वसनीयता 1990 और 2000 के दशक के दौरान कमाई थी, पहले तो मुंबई धमाकों के बाद जांच प्रक्रिया की तेजी से और बाद में अंडरवर्ल्ड की कमर तोड़कर.

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नीति निर्माताओं से लेकर न्यायाधीशों और खुद आईपीएस अधिकारियों तक सबने मौके-बेमौके कई बातों के लिए मुंबई पुलिस को भारत का एक बेहतरीन बल मानते हुए इसकी सराहना की है. पिछले साल, बाम्बे हाई कोर्ट की एक बेंच ने तो यह तक घोषित कर दिया कि यह स्कॉटलैंड यार्ड के बाद दुनिया का सबसे अच्छा पुलिस बल है.

हालांकि, इस बेहतरीन बल ने नकारात्मक कारणों से सुर्खियों में रहने का भी रिकॉर्ड बनाया है- बात चाहे 1990 के दशक में तथाकथित अंडरवर्ल्ड के दिनों की घटनाओं से लेकर विवादास्पद मुठभेड़ों तक की हो, मुंबई में 26/11 हमले से निपटने के तरीकों को लेकर होने वाली आलोचना हो या फिर हाल में उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर एंटीलिया के बाहर विस्फोटक रखे जाने की घटना में कथित भूमिका को लेकर पुलिस के एक अधिकारी की गिरफ्तारी की हो.

सालों तक मुंबई पुलिस के अधिकारी ऐसे अंदाज में व्यवहार करते रहे हैं जैसे वे स्कॉटलैंड यार्ड के बाद दूसरे नंबर पर हैं. तब से लेकर अब जिस मुश्किल में वे खुद को घिरा पा रहे हैं, वहां तक निश्चित तौर पर एक लंबा सफर तय कर चुके हैं. विवादों में घिरे पुलिस अधिकारी वाजे ने पुलिस बल की छवि को खासा नुकसान पहुंचाया है. और यही वजह है कि मुंबई पुलिस इस बार दिप्रिंट के लिए न्यूज़मेकर ऑफ द वीक है.


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अदृश्य राजनीतिक असर

पिछले हफ्ते राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अंबानी के घर के बाहर विस्फोटक भरी कार मिलने के मामले में सहायक पुलिस निरीक्षक सचिन वाजे को गिरफ्तार किया था. उस कार के मालिक मनसुख हिरेन को उसकी जिलेटिन छड़ों से भरी कार की बरामदगी के करीब दस दिन बाद मृत पाया गया था. इस एसयूवी को लेकर मामला उस समय और उलझ गया जब हिरेन की पत्नी ने अपने पति की मौत में वाजे की भूमिका होने का आरोप लगा दिया.

वाजे की गिरफ्तारी से उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाडी (एमवीए) सरकार ही पूरी तरह हिल गई और उसे मुंबई के पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह का ट्रांसफर करने पर मजबूर होना पड़ा है- जाहिर है ये कदम जवाबदेही तय करने और डैमेज कंट्रोल को ध्यान में रखकर उठाया गया.

वाजे का बतौर पुलिस कर्मी विवादित अतीत है और कुछ समय के लिए उनका शिवसेना के साथ राजनीतिक जुड़ाव रहा है. 2004 में हिरासत में मौत के एक मामले में उन्हें पुलिस बल से निलंबित कर दिया गया था और परमबीर सिंह की अध्यक्षता वाली एक समिति ने उन्हें पिछले साल ही बहाल किया था. वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने उन्हें बेहद खास मानी जाने वाली क्राइम ब्रांच में तैनात किया था, जहां वाजे कई हाई-प्रोफाइल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील केस देख रहे थे.

मुंबई पुलिस और सुर्खियां

मुंबई में कानून-व्यवस्था की स्थिति हमेशा देशभर में सुर्खियों में रहती है, वजह चाहे अच्छी हो या बुरी.

1980 के दशक में जब मुंबई में अंडरवर्ल्ड दाऊद इब्राहिम, पठान गिरोह, बाबू रेशिम और करीम लाला जैसे तमाम गैंगस्टर के कारण फल-फूल रहे थे, तब मुंबई की एक आपराधिक छवि बन गई थी.

इसके बाद फिर मुंबई में सुपारी लेकर हत्याएं होने और एक-दूसरे के जानी दुश्मनी बने गैंगस्टर गुटों के बीच गैंगवार की खबरें सुर्खियों में रहीं जिसने शहर की बेबस पुलिसिंग व्यवस्था वाली स्थिति उजागर की.

यह दशक पुलिस बल में ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट्स’ के जड़ें जमाने वाले एक नया युग का गवाह भी बना. मुंबई पुलिस के कुछ लोगों और समाज के एक वर्ग ने अंडरवर्ल्ड के साथ ‘निपटने’ के लिए इन शार्पशूटर का खूब इस्तेमाल किया, वहीं कई वरिष्ठ अधिकारियों और एक्टिविस्ट ने उन पर न्यायिक सीमाओं से परे जाकर हत्याएं करने का आरोप भी लगाया.

शार्पशूटर का दौर 1990 के पूरे दशक में जारी रहा, जिसके बाद तत्कालीन पुलिस नेतृत्व ने इस बल को साफ-सुथरा करने का मन बनाया. इसके बाद ही दया नायक, प्रदीप शर्मा और यहां तक कि सचिन वाजे जैसे कई अधिकारियों को अंततः 2000 के दशक में किसी न किसी कारण से निलंबित कर दिया गया. हालांकि, वाजे की तरह कई अधिकारी फिर से सिस्टम में आने में सफल रहे.

मुंबई पुलिस ने 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में खासी विश्वसनीयता कायम कर ली थी, पहले तो मुंबई धमाकों के बाद जांच प्रक्रिया की तेजी लाकर और बाद में एक-एक करके अंडरवर्ल्ड की कमर तोड़कर.

महाराष्ट्र पुलिस ने महाराष्ट्र प्रिवेंशन ऑफ डेंजरस एक्टिविटीज एक्ट और महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट के तहत दाऊद इब्राहिम, अरुण गवली और छोटा राजन गिरोह के तमाम अपराधियों की नकेल कस दी.

हालांकि, यह प्रमुख पुलिस बल 26/11 के हमले से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर कड़ी निंदा का शिकार भी बना. आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे, अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अशोक काम्टे, पुलिस इंस्पेक्टर और इनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर और सहायक उपनिरीक्षक तुकाराम ओम्बले उन लोगों में शामिल हैं जो 26 नवंबर 2008 को हमले की रात गोलियों के शिकार बने. जब हमले का मामला थोड़ा ठंडा पड़ा तो पुलिस को तैयारियों और समन्वय में कमी और अफरा-तफरी मचने को लेकर जबर्दस्त नाराजगी का सामना करना पड़ा. उस समय इसका खामियाजा मुंबई पुलिस के तत्कालीन प्रमुख हसन गफूर ने भुगता और उन्हें एक लो-प्रोफाइल पोस्टिंग पर भेज दिया गया.


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खाकी पर और दाग लगे

पिछले एक साल के दौरान मुंबई पुलिस को किसी और दौर की तुलना में कहीं अधिक राजनीतिक विवादों का सामना करना पड़ा है. सबसे पहले तो यह अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में जांच को लेकर केंद्रीय जांच ब्यूरो और बिहार पुलिस के साथ टकराव को लेकर घिरी. विपक्ष दल भारतीय जनता पार्टी ने एमवीए शासन के अधीन शहर की पुलिस की क्षमताओं पर ही सवाल खड़े कर दिए.

रिपब्लिक टीवी के संस्थापक और संपादक अर्णब गोस्वामी, जिन्होंने राजपूत की मौत के मामले को लेकर कई बार पुलिस बल और इसके तत्कालीन मुखिया परमबीर सिंह को खरी-खोटी सुनाई थी, के खिलाफ एक तरह से अभियान ही छेड़ देने को लेकर भी पुलिस और महाराष्ट्र सरकार को खासी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. फिर मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी से जुड़े न्यूज चैनल की टीआरपी की कथित धोखाधड़ी के मामले की जांच शुरू की और चैनल और गोस्वामी के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज की.

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और राज्य सरकार की आलोचना के लिए समित ठक्कर और सुनैना होले जैसे नेटिजन की गिरफ्तारी और उनके खिलाफ कथित तौर पर अभद्र भाषा के इस्तेमाल पर भी मुंबई पुलिस की खूब आलोचना हुई.

पुलिस के लिए एक चुनौतीपूर्ण शहर

बहुत ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाला, जहां 50 फीसदी आबादी झुग्गियों में रहती है और कई प्रशासनिक एजेंसियों की व्यवस्था वाला मुंबई शहर पुलिस के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है.

करीब दो करोड़ की आबादी वाले शहर की व्यवस्था संभालने वाली मुंबई पुलिस के पास आधिकारिक तौर पर स्वीकृत क्षमता 40,000 से कुछ ही ज्यादा है. उस पर पुलिस बल के बेहतरीन सदस्यों का ज्यादातर समय राजनीतिक रैलियों, त्योहारों पर जुलूस आदि के मौके पर या फिर कोई अवैध निर्माण ढहाए जाने और गैरकानूनी रूप से रह रहे लोगों को किसी जगह से बेदखल करने के दौरान कानून-व्यवस्था बनाए रखने में ही बीतता है.

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की राय में मुंबई पुलिस, एक ऐसा बल है जो कठिन परिस्थितियों में और सीमित संसाधनों के साथ काम कर रहा है, की छवि उतनी ही अच्छी हो सकती है जितनी उसका नेतृत्व करने वालों की. इसका प्रभार संभालने वाले नेता ही जब पक्षपाती या विवादित हैं, तो बल भी उसी तरह के गुणों से भरा हुआ है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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