पूरी संभावना है कि चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में मिश्रित परिणाम सामने आएंगे और वे भारतीय राजनीति की भावी दिशा को प्रभावित करेंगे. किसी भी अन्य चुनाव की तरह इस बार भी माहौल उग्र है, खासकर पश्चिम बंगाल में.
खुलकर दिख रही तीखी प्रतिद्वंदिता के अलावा, बंगाल के चुनाव के बाकी— असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी से अलग होने के अन्य कारण भी हैं. पश्चिम बंगाल एकमात्र ऐसा राज्य है जहां सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), मुख्यमंत्री पद की पूर्वघोषित उम्मीदवार ममता बनर्जी के साथ मतदाताओं के बीच गई है, जोकि अपने तीसरे कार्यकाल के लिए वोट मांग रही हैं. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कड़ी टक्कर दे रही है लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए किसी का नाम आगे किए बिना.
साथ ही, अभी तक बंगाल ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भारी संख्या में नेताओं ने दलबदल किया है. टीएमसी के दर्जन भर से अधिक वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं. वैसे, ये कोई असामान्य बात नहीं है क्योंकि चुनाव के समय दलबदल के मामले आम होते हैं.
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बंगाल में धर्म और हिंसा
भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमलों की बढ़ती संख्या एक गंभीर बात है और इसके परिणामस्वरूप मिली सहानुभूति के कारण भाजपा का प्रभाव बढ़ सकता है. वास्तव में, वाम मोर्चे के शासन के दौरान खुद टीएमसी को अपने कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों पर होने वाले हमलों के परिणामस्वरूप मतदाताओं की सहानुभूति हासिल हुई थी. ममता बनर्जी ने एक ही समय में पीड़ित और लड़ाकू नेता होने की जुड़वां छवि को सफलतापूर्वक पेश किया था.
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस पार्टी भी उस समय वामपंथी हिंसा की शिकार थी और उसके पास बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे के रूप में एक मजबूत और लोकप्रिय नेता भी था. लेकिन पार्टी न तो सहानुभूति हासिल कर सकी और न ही ऐसे नेता को प्रोजेक्ट कर पाई, जिससे वामपंथियों की संगठित हिंसा से पीड़ित कैडर और आम मतदाता उम्मीद रख पाते.
यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार बंगाल में धार्मिक आधार पर वोटिंग का पैटर्न कैसा रहता है. वामपंथियों और टीएमसी के बीच मुकाबले में यह कारक उतना महत्वपूर्ण नहीं होता था. लेकिन बीते वर्षों में ममता बनर्जी ने मुस्लिम वोट बैंक के साथ काफी अच्छा तालमेल कर लिया है. धार्मिक आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की स्थिति में यह कुछ हद तक उनके काम आएगा. लेकिन रोजगार, गरीबी, सुरक्षा और इनसे भी बढ़कर भाषा ऐसे कारक हैं जो मतदाताओं को एकजुट करते हैं.
यही वजह है कि पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव में पांच सीटें जीतने वाली ऑल इंडिया मजलिस‑ए‑इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने बंगाल में चुनाव मैदान से बाहर रहना पसंद किया. ‘स्थानीय’ होने का कारक ममता बनर्जी को फायदा पहुंचा सकता है, जैसा कि 80 के दशक की शुरुआत में ‘मराठी अस्मिता’ की बात उठाना महाराष्ट्र में शिवसेना के लिए लाभदायक साबित हुआ था.
तमिलनाडु में सबके लिए मुश्किलें
उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु हाल के दिनों में इस प्रवृति से बाहर निकल आया दिखता है. भाजपा का तमिलनाडु में ज़्यादा कुछ दांव पर नहीं है जहां वह सिर्फ 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. अगर वो इनमें से पर्याप्त सीटों पर जीत हासिल करती है, तो ये अपने आप में उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी. तमिलनाडु में यह पहला विधानसभा चुनाव है जब दो मुख्य क्षेत्रीय दल अपने दिग्गज नेताओं की छत्रछाया के बिना चुनाव लड़ रहे हैं. इसके अलावा, फिल्म स्टार रजनीकांत के चुनावी राजनीति से दूर रहने के फैसले के कारण पहली बार राज्य में चुनाव बड़ी फिल्मी हस्तियों के असर से मुक्त है.
किसी दिग्गज नेता या बड़े चुनावी मुद्दे की अनुपस्थिति में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम (अन्नाद्रमुक) दोनों को ही अपनी छाप छोड़ने में मुश्किलें आ रही हैं. चुनावी परिदृश्य से वीके शशिकला का पीछे हटना शायद सीमित अवधि के लिए— एक रणनीतिक कदम नज़र आता है. अगर अन्नाद्रमुक को इससे फायदा होता है, तो शशिकला बेहतर प्रदर्शन में मददगार होने का दावा करेंगी और वह सुलह प्रक्रिया में सौदेबाज़ी के लिए इसका इस्तेमाल कर सकती हैं. यदि उनके भतीजे टीटीवी दिनाकरन की पार्टी अम्मा मक्कल मुनेत्र कडगम (एएमएमके) अन्नाद्रमुक के वोटों में सेंध लगाती है, तो शशिकला के पास अन्नाद्रमुक मुख्यालय पर धावा बोल इस नेताविहीन पार्टी पर कब्जा करने का पर्याप्त आधार होगा.
वैसे तो पुडुचेरी में केवल 30 सीटें हैं लेकिन भाजपा के लिए इसका महत्व कम नहीं है, जो वहां दलबदल के कई मामलों की सूत्रधार और कांग्रेस सरकार को गिराने में कामयाब रही है. विडंबना ये है कि कांग्रेस यहां भी अपनी सरकार गिराए जाने को लेकर सहानुभूति जुटाने में असमर्थ है. लेकिन अगर कांग्रेस के मतदाता द्रमुक की ओर मुड़ते हैं, तो यह भाजपा के लिए एक चुनौती होगी, जो एक बार फिर दलबदलुओं की व्यक्तिगत लोकप्रियता पर निर्भर दिखती है.
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परिदृश्य से गायब कांग्रेस
असम एक ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस अपने पुनरुत्थान के लिए आसानी से संगठित प्रयास कर सकती थी. लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने राज्य के लिए कुछ नहीं किया है. इससे असम में मुकाबला लगभग एकतरफा हो गया है. विडंबना ये है कि भाजपा भी मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को पार्टी के चेहरे के रूप में पेश नहीं कर रही है. न ही पार्टी अपनी सरकार के प्रदर्शन के आधार पर वोट मांगने का कोई विशेष प्रयास कर रही है. असम में भाजपा के लिए सबसे बड़ी पूंजी है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और करिश्मा तथा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रणनीतिक योजना.
केरल एक और ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस को अपनी जड़ें, कैडर और संभावनाओं को मजबूत करने का अवसर था. उसके पास ऐसे नेता हैं जिनकी अपने समुदायों में अच्छी पैठ है. चुनाव को त्रिकोणीय बनाकर कांग्रेस अपने लिए पर्याप्त सीटें हासिल कर सकती थीं. इस बार भाजपा विरोधी मतदाता शायद कांग्रेस को छोड़ वाम मोर्चे का रुख कर सकते हैं, जिससे यह चुनाव भाजपा और वाम दलों के बीच सीधा मुकाबला साबित हो सकता है. इसलिए, सीधे मुकाबले में भाजपा के दो अंकों की संख्या के साथ खाता खोलने की संभावना है.
असम महत्वपूर्ण लेकिन बंगाल अधिक मायने रखता है
भाजपा के लिए, असम में जीतना और वहां अपनी सत्ता कायम रखना बहुत महत्वपूर्ण है. और, राज्य से मिल रही खबरों से यही लगता है कि भाजपा के लिए असम में सत्ता में बने रहना आसान है. कांग्रेस के पास पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के रूप में एक प्रभावशाली नेता हुआ करता था, जिन्होंने भाजपा को सफलतापूर्वक सत्ता से बाहर रखा था. वास्तव में, एक नेता के रूप में उनका कद अपनी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के मुकाबले कहीं बड़ा था. कांग्रेस के पास उनकी तरह पूरे असम में लोकप्रिय कोई और नेता नहीं है. तरुण के सांसद बेटे गौरव गोगोई ने कथित तौर पर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार होने से इनकार कर दिया है. जो भी हो, उनकी अपील उनके दिवंगत पिता के बराबर तो नहीं ही है.
लेकिन केवल असम में सत्ता बचाए रखना ही भाजपा के लिए जश्न मनाने का पर्याप्त कारण नहीं होगा. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से सत्ता छीनना पार्टी की असल जीत होगी.
(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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