सोशल मीडिया के प्रभुत्व वाले इस वक्त में ‘टूलकिट’ कोई अजूबा नहीं है. उसमें किसी मुद्दे की, जो किसी आंदोलन का भी हो सकता है, जानकारी देने के लिए या उससे जुड़े कदम उठाने के विस्तृत सुझाव लिये-दिये जाते हैं. इतना ही नहीं, किसी बड़े अभियान या आंदोलन के दौरान उसमें हिस्सा लेने वाले लोगों को इसमें दिशानिर्देश भी दिये जाते हैं. इस रूप में वह दुनिया भर में आंदोलनों का अभिन्न अंग बन चुकी है.
फिर भी राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को कथित विदेशी साजिश से जोड़ने के लिए दिल्ली पुलिस ने यकीनन अपने ‘राजनीतिक आकाओं के कहने पर’ टूलकिट को लेकर इस तरह का तूमार बांधना शुरू किया, जैसे वह कोई बम हो, तो इससे नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर ढेर सारे अंदेशों को हवा मिलनी ही थी.
बीते चार फरवरी को उसने किसान आंदोलन से जुड़ी एक टूलकिट को एडिट कर उसमें कुछ चीजें जोड़ने व आगे भेजने को लेकर एक केस दर्ज किया तो ये अंदेशे सवालों में बदल गए. फिर चौदह फरवरी को उसकी स्पेशल सेल ने इसी केस में 22 साल की क्लाइमेट एक्टिविस्ट दिशा रवि को, जो फ्राइडे फॉर फ्यूचर कैम्पेन के संस्थापकों में से एक हैं, कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरू जाकर गिरफ्तार कर लिया, ट्रांजिट रिमांड समेत कई न्यायिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन कर दिल्ली ले आई और अदालत में पेशकर राजद्रोह का आरोप लगाकर जेल भिजवा दिया, तो ये सवाल ज्यादा तेजी से जवाब की मांग करने लगे थे.
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आंदोलनकारी और जनता के नागरिक अधिकार?
इन सवालों में सबसे बड़ा यह था कि जब वक्त इतना परिवर्तित हो चुका है कि आंदोलनों को संचालित करने के लिए टूलकिटों की जरूरत पड़ती ही है, न सिर्फ आंदोलनकारी संगठन बल्कि राजनीतिक पार्टियां भी उनका इस्तेमाल करती हैं क्योंकि इससे आंदोलन के समर्थन में कैम्पेन चलाने, नये स्लोगन व नारे आदि गढ़ने और आंदोलन को जनता के बीच पहुंचाने की रणनीति बनाने में सुभीता होती है, उन्हें बनाने या उनको एडिट करने व आगे बढ़ाने को देश के विरुद्ध साजिश करार दिया जाने लगा तो आंदोलनकारियों या जनता के नागरिक अधिकारों का क्या होगा?
शुक्र है कि दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने थोड़ी देर से ही सही, एक लाख रुपये के निजी मुचलके पर दिशा की जमानत मंजूर करते हुए न सिर्फ इस और इससे जुड़े कई दूसरे महत्वपूर्ण सवालों के तर्कसंगत जवाब दिये बल्कि अल्प व अधूरे सबूतों के आधार पर दिशा की, जिसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है, गिरफ्तारी के लिए दिल्ली पुलिस की आलोचना भी की.
अपने आदेश में उन्होंने साफ कर दिया कि कोई व्हाट्सएप ग्रुप बनाना या किसी हानि रहित टूलकिट का संपादक होना कोई अपराध नहीं है और पुलिस द्वारा पेश किये गये अल्प एवं अधूरे साक्ष्यों के मद्देनज़र 22 वर्षीय दिशा को जमानत न देने का कोई ठोस कारण नहीं है. खासकर जब उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है और प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आता, जो इस बारे में संकेत दे कि उसने किसी अलगाववादी विचार का समर्थन किया है.
पुलिस दिशा और प्रतिबंधित संगठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ के बीच प्रत्यक्ष तौर पर कोई संबंध भी स्थापित नहीं कर पाई है. फिर किसी संदिग्ध व्यक्ति से संपर्क में आना अपने आप में तब तक कोई अपराध नहीं है, जब तक संपर्क करने वाला उसकी असली मंशा से अंजान है और उसके किये में भागीदारी नहीं करता.
नागरिकों की स्वतंत्रता व अधिकारों के लिहाज से उनकी यह टिप्पणी तो और भी महत्वपूर्ण है कि नागरिक सरकार की अंतरात्मा जगाने वाले होते हैं और उन्हें केवल इसलिए जेल नहीं भेजा जा सकता, क्योंकि वे सरकार की नीतियों से असहमत हैं. किसी जांच एजेंसी को अनुकूल पूर्वानुमानों के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को और प्रतिबंधित करने की अनुमति भी नहीं दी जा सकती.
उन्होंने यह भी लिखा कि कानून के दायरे में रहकर शांतिपूर्वक दुनिया भर में अपनी बात फैलाना कोई अपराध नहीं है क्योंकि संवाद को भौगोलिक सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता. विडंबना यह है कि मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस के पास इस साधारण से सवाल का भी जवाब नहीं था कि जब उसने आंदोलित किसानों को 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड निकालने की इजाजत दे रखी थी तो दिशा का टूलकिट की मार्फत उसमें शामिल होने की अपील करना राजद्रोह क्योंकर हो सकता है?
इस तथ्य के मद्देनज़र और भी कि लाल किले पर हुई हिंसा में गिरफ्तार एक भी अभियुक्त ने यह नहीं कहा कि वह दिशा की टूलकिट से प्रेरित हुआ था. लेकिन कोई पूछे कि क्या दिल्ली पुलिस अपनी इस निरुत्तरता के आईने में खुद को देखेगी और दिशा की नाहक गिरफ्तारी के लिए खेद जतायेगी तो जवाब नकारात्मक ही होगा.
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मोदी सरकार का ‘भ्रम’
नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले छह-सात सालों में बढ़ते गये उसके राजनीतिक व सांप्रदायिक दुरुपयोग ने उसे न सिर्फ बुरी तरह डिमॉरलाइज किया है बल्कि उसके प्रोफेशनलिज्म को भी बहुत धक्का पहुंचाया है.
प्रोफेशनलिज्म की कमी के ही कारण उसने पिछले साल राजधानी में हुए दंगों के दौरान अपनी शिथिलताओं व पक्षपाती कार्रवाइयों से अमनपसंद नागरिकों को बहुत निराश किया था. उन दंगों के साल भर बाद भी अनेक दंगा पीड़ितों के जख्म हरे के हरे हैं और उनका इंसाफ का इंतजार लंबा होता जा रहा है तो भी इसीलिए कि इस पुलिस के लिए सत्ताधीशों का इंगित अपने कर्तव्यपालन से ज्यादा महत्वपूर्ण बना हुआ है.
ऐसे में वह सत्ताधीशों के किसान आंदोलन को बदनाम करने के अभियान की उपकरण बनने से क्यों मना कर सकती है?
जाहिर है कि दिशा को जमानत के आदेश के साथ कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियां न सिर्फ दिल्ली पुलिस बल्कि समूची नरेंद्र मोदी सरकार के लिए ‘लज्जा’ का विषय होनी चाहिए. उस मुहिम के लिए भी जिसके तहत यह सरकार अपनी रीति-नीति के विरुद्ध आंदोलनों में उतरने वालों और उनके समर्थकों की सुनने के बजाय उन पर राजद्रोह जैसे कानून की मार्फत शिकंजे कसने के फेर में रहती आई है. लेकिन वह ‘लज्जा’ का विषय तभी हो सकती है, जब सरकार में थोड़ी बहुत ‘लोकलाज’ बची हो.
यहां तो हालत यह है कि इस सरकार को लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों द्वारा सरकार पर नज़र रखने की परंपरा भी रास नहीं आती. वह अपने से असहमत लोगों को देशद्रोही करार देकर चुप कराने में लग जाने में कोई हेठी महसूस नहीं करती और राजद्रोह या देशद्रोह के कानून का चाबुक की तरह इस्तेमाल करती हुई छाती चौड़ी कर लेती है.
उसे यह महसूस करना भी गवारा नहीं होता कि राजद्रोह का कानून उपनिवेशवाद के दौर का अवशेष है और दूसरे कई निष्प्रयोज्य कानूनों की तरह उन्मूलन या लोकतांत्रिक विवेक से सम्पन्न बनाये जाने की मांग करता है.
गुलामी के दौर में विदेशी हुक्मरान इस कानून का क्रांतिकारियों व स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ जैसा बेशर्म इस्तेमाल किया करते थे, आजादी मिली तो उम्मीद की जाती थी कि उससे सबक लेकर इस कानून को खत्म कर दिया जायेगा. लेकिन दुर्भाग्य से पिछली सरकारों ने समय रहते ऐसा नहीं किया और अब मोदी सरकार उसकी सबसे बड़ी लाभार्थी बनी हुई है. लेकिन वह समझती है कि इस रास्ते चलकर देश की नागरिक चेतना का विकास रोक देगी तो इसे उसका भ्रम ही सिद्ध होना है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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