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Friday, 22 November, 2024
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राम मंदिर की लड़ाई के दौरान क्या संदेश भेजा था बूटा सिंह ने अशोक सिंघल को

मुस्लिम पक्ष का दावा था कि सदियों से विवादित जमीन उनके कब्जे में रही है. ऐसे में परिसीमन कानून के तहत इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद हिंदू पक्षकार विवादित भूमि पर अपना हक नहीं जता सकते थे. तब गृहमंत्री बूटा सिंह ने अशोक सिंघल को संदेश भेजा था.

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साल 1528 में अयोध्या में एक ऐसी जगह पर मस्जिद का निर्माण किया गया, जिसे हिंदू भगवान श्रीराम का जन्म स्थान मानते हैं. कहा जाता है कि मस्जिद मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने बाबर के सम्मान में बनवाई थी, जिसकी वजह से इसे बाबरी मस्जिद कहा जाने लगा.

अयोध्या विवाद एक राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक विवाद तो कई सदियों से था जो नब्बे के दशक में सबसे ज्यादा उभार पर पहुंच चुका था.

इस विवाद का मूल मुद्दा राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद की स्थिति को लेकर रहा था. विवाद इस बात को लेकर था कि क्या हिंदू मंदिर को ध्वस्त कर वहां मस्जिद बनाया गया या मंदिर को मस्जिद के रूप में बदल दिया गया.

अयोध्या में जहां बाबरी मस्जिद का ढांचा था जिसे ढहा दिया गया राम मंदिर बनेगा यह चीफ जस्टिस रंजन गगोई की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पांच जजों ने सर्वसम्मति से फैसला दिया था.


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हिंदुओं की आस्था निर्विवादित है

चीफ जस्टिस ने कहा कि ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है और हिंदुओं की यह आस्था निर्विवादित है. इसके लिए तीन महीने के अंदर एक ट्रस्ट बनाया जाएगा, जो मंदिर बनाने के तौर-तरीके तय करेगी.

देश की सबसे बड़ी अदालत ने सबसे बड़े फैसले में अयोध्या की विवादित जमीन पर रामलला विराजमान का हक माना. जबकि मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया गया.

आधुनिक भारत के इतिहास में कोई मुक़दमा इतना लंबा और महत्वपूर्ण नहीं चला, जिसने देश की राजनीति, समाज और उसकी समग्र सोच पर गंभीर असर डाला हो. शताब्दियों से चल रहे राम जन्मभूमि–बाबरी मस्जिद विवाद का भारत के उच्चतम न्यायालय ने 9 नवंबर 2019 को चालीस दिन की लगातार सुनवाई के बाद फैसला सुनाया था.

प्रभाकर मिश्रा द्वारा लिखित और पेंगुइन हिंदी द्वारा प्रकाशित यह महत्वपूर्ण किताब ‘एक रुका हुआ फैसला’ सुप्रीम कोर्ट में चली उन्हीं चालीस दिनों की सुनवाई का आंखों देखा विवरण है. इस किताब में फैसला सुनाने वाले जजों, संबंधित वकीलों और पक्षकारों की पृष्ठभूमि, मुक़दमे में आए उतार-चढ़ाव और हमारी धर्मनिरपेक्ष न्याय प्रणाली को भी बिना किसी पूर्वाग्रह के प्रस्तुत किया गया है.

बीते डेढ़ दशक से सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्टिंग कर रहे प्रभाकर मिश्र अयोध्या विवाद पर आए फैसले से पहले मामले में हुई सुनवाई के चश्मदीद रहे हैं. कानून के छात्र रहे मिश्र ने मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का गहराई से अध्ययन कर उसके महत्वपूर्ण व रोचक पहलुओं को अपनी किताब में कहानी की तरह पेश करने की कोशिश की है.

अयोध्या मामला सुप्रीम कोर्ट में करीब दस साल तक सुनवाई का इंतजार करता रहा.

सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी से अयोध्या केस का क्या संबंध था?

जस्टिस रंजन गोगोई को क्यों कहना पड़ा कि नियत समय में अगर फैसला आ जाता है तो किसी चमत्कार से कम नहीं होगा और जस्टिस गोगोई ने इसे कैसे संभव किया ?

सुप्रीम कोर्ट को क्यों अनुच्छेद 142 के तहत दिए गए अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करना पड़ा?

‘एक रुका हुआ फैसला’ पढ़ने पर इन सभी सवालों का जवाब मिल जाता है. प्रभाकर मिश्रा के इस किताब में गहन शोध है, दृष्टांतों का संतुलन है और अदालती फैसले को आम जन की भाषा में समझाने का प्रयास किया गया है.

कोर्ट ने अपने फैसले में इसके लिए क्या तर्क दिए, यह जानना बहुत दिलचस्प है. पुस्तक में इस पर विस्तार से चर्चा की गई है. सुनवाई के दौरान कोर्ट में ‘हिंदू तालिबान’ की चर्चा क्यों हुई ?

अयोध्या मामले में फैसला सुनाने के पहले कोर्ट को एक और फैसला क्यों सुनाना पड़ा ?

अयोध्या के फैसले से लाहौर के मस्जिद का क्या सम्बंध है ?

लेखक ने ऐसी बहुत सारे ऐसी प्रश्नों को इस पुस्तक में समेटा है, जिससे अयोध्या विवाद को समझने में हमें मदद मिलती है. सुन्नी पक्ष तो शिया पक्ष के वकील की दलीलों को सुनने को ही तैयार नहीं था! हिंदू पक्षकारों में निर्मोही की दलीलें कई बार हिन्दू पक्ष के केस को कमज़ोर करती दिख रही थीं. किताब में ऐसे अनेक अंतर्विरोधों की गहन पड़ताल करती है.

इस पुस्तक में अखाड़ों का इतिहास, उनकी अंदरूनी राजनीति, अखाड़ों का झांसी की रानी से संबंध है. झांसी की रानी ने अपनी अंतिम सांस ग्वालियर स्थित निर्मोही अखाड़े गंगादास के मठ में ली थी और यहीं उनका अंतिम संस्कार हुआ था.

वहीं बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाशिम अंसारी व राम मंदिर के लिए कोर्ट में आने महंत रामचंद्र दास की मित्रता भी गजब थी दोनों अपने अपने धर्म की लड़ाई तो लड़ रहे थे लेकिन जब कोर्ट सुनवाई के लिए जाते तो दोनों एक ही रिक्शे में सवार होकर जाते थे.

साथ ही इस पुस्तक में निहंग सिख, गुरु नानक देव और गुरु गोविंद सिंह का अयोध्या से संबंध और लाहौर की एक मस्जिद और गुरुद्वारे वाले प्रसंग का भी वर्णन है जिसका दृष्टांत सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या केस में फैसला सुनाने वक्त दिया था.

सबसे अहम बात यह है कि यह किताब पाठकों को बताती है कि विवादित भूमि पर सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुओं के पक्ष को क्यों सही माना और कैसे मुस्लिम पक्ष मुस्लिम शासन काल में ही उस भूमि पर अपने कब्जे को सही तरीके से साबित नहीं कर पाया.

किताब का पृष्ठ

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बूटा सिंह की अशोक सिंघल को सलाह 

अयोध्या विवाद मामले में रामलला विराजमान को पक्षकार बनाने के पीछे पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता सरदार बूटा सिंह की अहम भूमिका थी.

तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह ने कांग्रेस की वरिष्ठ नेता शीला दीक्षित के जरिए विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल को संदेश भेजा था कि हिंदू पक्ष की ओर से दाखिल किसी मुकदमे में जमीन का मालिकाना हक नहीं मांगा गया है और ऐसे में उनका मुकदमा हारना लाजिमी है.

प्रभाकर ने इस घटना क्रम में बताया है कि कैसे बूटा सिंह की इस भविष्यवाणी के पीछे एक महत्वपूर्ण तर्क था कि मुस्लिम पक्ष का दावा था कि सदियों से विवादित जमीन उनके कब्जे में रही है. ऐसे में परिसीमन कानून के तहत इतना लंबा समय गुजर जाने के बाद हिंदू पक्षकार विवादित भूमि पर अपना हक नहीं जता सकते थे.

इस कानूनी अड़चन को दूर करने के लिए बूटा सिंह ने राम मंदिर आंदोलन से जुड़े लोगों को देश के पूर्व अटार्नी जनरल लाल नारायण सिन्हा से कानूनी मदद लेने की सलाह दी थी. आंदोलन से जुडे नेता देवकीनंदन अग्रवाल और कुछ लोगों को सिन्हा की राय लेने पटना भेजा गया.

इसी तरह कई अन्य रोचक तथ्यों व प्रसंगों का इस किताब में उल्लेख किया गया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के, के के मोहम्मद की उस रिपोर्ट को एक अहम सबूत माना गया है. 

इस पुस्तक में अयोध्या विवाद से जुड़ी कानूनी और सियासी अन्य पहलुओं पर भी विस्तार से चर्चा की गई है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान शिया – सुन्नी तो आमने सामने थे ही, हिंदू पक्षकारों में भी एक राय नहीं थी. कई मौकों पर इनका आपसी विरोध कोर्ट में दिखा.

पुस्तक के बीच में कुछ तस्वीरें हैं, जिनमें से एक तो उस दिन के अख़बारों के मुख्य पृष्ठों की है, जिस दिन राम जन्मभूमि की जमीन से सम्बंधित फैसला आया था. अदालतों से शीर्ष अदालत तक मुकदमे के तमाम महत्वपूर्ण पहलुओं और पक्षकारों का विवरण भी क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया गया है.


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सुनवाई के 40 दिन और फैसले में पैराग्राफ 786 

ये किताब सिर्फ उन चालीस दिनों के बारे में नहीं है जिन चालीस दिनों में सुनवाई लगातार चली.उससे इतर भी कई मुद्दों को किताब छूकर निकलती जाती है. उदाहरण के तौर पर आचार्य रामभद्राचार्य के दोहा शतक के जरिये तुलसीदास के लिखे को प्रमाण के रूप में पेश करने की कोशिश, जो अक्सर किसी सोशल मीडिया पोस्ट में दिखती है, उस मिथक को भी किताब तोड़ देती है.

जनम मंदिर जहाँ, लसत अवध के बीच।

तुलसी रची मसीत तहं, मीर बाकि खल नीच।।

किताब में यह काफी रोचक जिक्र है कि शीर्ष अदालत के फैसले में पैराग्राफ 786 में मुस्लिम पक्ष का विवादित स्थल पर कब्जे का दावा साबित नहीं होने का जिक्र है.

अयोध्या विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के सर्वसम्मत 929 पृष्ठों के फैसले में कुल 806 पैराग्राफ हैं जिनमें 786 वें पैराग्राफ में अदालत ने विवादित जमीन पर मुस्लिम पक्ष के कब्जा होने के दावे की विस्तार से समीक्षा की है और यही पैराग्राफ मामले में फैसले का मुख्य आधार है.  इसमें लिखा है कि मुस्लिम पक्ष का विवादित स्थल पर कब्ज़े का दावा साबित नहीं होता.

मुस्लिम पक्ष के लोग सुनवाई के दौरान मीडिया से कम या कहिये नहीं बात कर रहे थे. इस वजह से कभी- कभी लगता था कि सुनवाई को एकतरफा कवर किया जा रहा है. लेखक अपने किताब में गंभीरता से बताने की कोशिश की है.

हम जानते हैं कि, अयोध्या मामले में कुल 19 हजार दस्तावेज हैं. इन तमाम दस्तावेजों को इंग्लिश में ट्रांसलेट किया गया है. इस दौरान मुस्लिम पक्षकारों का स्टैंड भी अहम रहा है. क्योंकि जब सुनवाई शुरू हुई थी, तब उनकी ओर से पेश वकील कपिल सिब्बल ने ये दलील दी थी कि ये आम जमीन विवाद नहीं बल्कि बेहद अहम मामला है और भारतीय राजनीति पर असर रखता है.

बीजेपी के घोषणापत्र में अयोध्या में राम मंदिर बनवाने की बात प्रमुखता से थी. लेखक का कानूनी मसले को सरल भाषा में लिखना वाकई कबीले तारीफ है.

देश की शीर्ष अदालत ने करीब चार सौ नब्बे साल पुराने अयोध्या विवाद में बीते साल नौ नवंबर को अपने फैसले में कहा कि अदालत आस्था नहीं बल्कि सबूतों के आधार पर फैसले सुनाती है. मामला मंदिर-मस्जिद से जुड़ा था इसलिए सवाल आस्था का भी था, लेकिन अदालत ने 40 दिनों की नियमित सुनवाई के दौरान किस प्रकार इतने पुराने मामले में साक्ष्यों की जांच की और किस प्रकार सदियों पुराने विवाद का समाधान निकाला, इसे पत्रकार प्रभाकर मिश्र ने इतिहास के आईने में बड़ी रोचकता के साथ कहानी के अंदाज में अपनी किताब एक रूका हुआ फैसला में पेश किया है.

किताब का नाम: एक रुका हुआ फैसला
लेखक: प्रभाकर मिश्र
प्रकाशन: पेंगुइन – हिन्द पॉकेट बुक्स.
मूल्य: 250 रुपये

(समीक्षक आशुतोष कुमार ठाकुर बैंगलोर में रहते हैं. पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं.)


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