बजट 2021-22 का फोकस महामारी के प्रभाव को कम करने पर होगा. कुछ अपेक्षित उपाय वो हो सकते हैं, जो समाज के उन तबक़ों को सहायता पहुंचाएंगे, जिनके घरों की आय महामारी के दौरान तेज़ी से कम हुई.
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने लॉकडाउन के दौरान, ‘आत्मनिर्भर’ भारत पैकेज के अंश के तौर पर, इस दिशा में कुछ क़दमों का ऐलान किया था, लेकिन वो उन अनिश्चितताओं में घिरे हुए थे, जो उस समय अर्थव्यस्था में व्याप्त थी. अब आकर, अर्थव्यवस्था और सरकार के वित्तीय संसाधनों की स्थिति स्पष्ट हो गई है, और बेहतर लक्ष्य वाले अतिरिक्त उपाय, घोषित किए जा सकते हैं.
महामारी के आर्थिक प्रभावों का विस्तार और उनकी गहराई, शुरुआती अपेक्षाओं से कहीं अधिक रहे हैं. ऐसे उपाय जिनसे ग़रीबों के खातों में सीधे पैसा डाला जा सके, उपभोक्ता मांग को उठाने में मदद कर सकते हैं, और ऐसे घर वालों को राहत पहुंचा सकते हैं, जो एक साल से मुसीबत झेल रहे हैं.
इसी तरह, करों में कटौती, चाहे आय कर में हो या अप्रत्यक्ष करों में, घर वालों की जेब में पैसा डाल सकती है. इससे न केवल मध्यम वर्ग के लोगों को राहत मिलेगी, जिनके पारिवारिक धंधों और आमदनी के साधनों पर बुरा असर पड़ा है, बल्कि उपभोक्ता मांग को भी बढ़ाया जा सकता है, और ऐसी व्यवस्थाओं को सीधे तौर पर ईंधन मिलेगा, जिनके ज़रिए अर्थव्यवस्था को फिर से, पटरी पर लाया जा सकता है.
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इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश पर बल
दूसरी थीम जिसकी बजट में अपेक्षा की जा रही है, वो है इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश पर बल. ये एक तरीक़ा है जिससे सरकार, अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों में, विकास को बढ़ावा दे सकती है. 2020 में भारतीय अर्थव्यवस्था, क़रीब 7 से 8 प्रतिशत सिकुड़ गई; अगले साल इसके लगभग 11 से 12 प्रतिशत विकसित होने की उम्मीद है, जिससे दो-एक सालों में ये कोविड से पहले के, जीडीपी स्तरों पर आ जाएगी.
कोई विकास वित्त संस्थान (डीएफआई) या कोई विकास बैंक, जो ढांचागत परियोजनाओं को ऋण दे सके, उस पर हाल ही में काफी चर्चा हुई है, और ख़बरों से संकेत मिलता है कि सरकार इस विचार को लेकर उत्सुक है. इस विचार से लघु-अवधि फंड्स, और दीर्घकालिक निवेश के बीच, बेमेल परिवक्वता की समस्या से भी निपटा जा सकता है.
इसके अलावा, सरकार से ये भी अपेक्षा है कि वो निर्माण के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के उपाय करेगी. रोज़गार बढ़ाने के उपायों में, ऐसे श्रम प्रधान उद्योगों को संरक्षण भी शामिल किया जा सकता है, जिनमें चीन से भारी आयात हुआ है. इस समय दुनिया भर में ये संदेश जाना ज़रूरी है कि सरकारें रोज़गार सृजन का समर्थन करती हैं.
हालांकि सभी अर्थशास्त्री घरेलू उद्योग को दिए जा रहे संरक्षण के बढ़ने की आलोचना करते हैं, ख़ासकर जब उससे अंतिम और मध्यवर्ती उत्पाद के बीच अंतर पैदा हो, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लगता है कि सरकार घरेलू उद्योग को संरक्षण देने में संकोच नहीं कर रही है. कोविड के बाद रोज़गार के भारी नुक़सान और अर्थव्यवस्था में दबाव के चलते, कुछ क़दमों की अपेक्षा की जा सकती है.
अधिक ख़र्च और कम टैक्स से सरकार की ऋण की ज़रूरत बढ़ जाएगी. करों में कमी और कोविड ख़र्च में बढ़ोतरी से, अपेक्षा की जा रही है कि 2020-21 में भारत का वित्तीय घाटा, जीडीपी के 6 से 7 प्रतिशत के बीच हो सकता है. इसकी आंशिक भरपाई उन बजटीय आवंटनों से की जा सकती है, जो महामारी की वजह से मंत्रालयों में ख़र्च नहीं हो पाए.
अर्थव्यवस्था महामारी के असर से लड़खड़ा रही है, इसलिए ऐसे में सरकार को एक बड़े वित्तीय घाटे से संकोच करने की ज़रूरत नहीं है. घाटे के ऊंचा रहने की अपेक्षा है, लेकिन ये एकल अंक में ही बना रह सकता है, जिससे वित्तीय एकीकरण का रास्ता तैयार हो सकता है.
वित्तीय क्षेत्र में संस्थागत व क़ानूनी बदलाव
वित्तमंत्री के लिए, बजट वो समय भी होता है जब वो, विशेष रूप से वित्तीय क्षेत्र में, संस्थागत व क़ानूनी बदलावों का ऐलान कर सकता है. 2013 में वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग ने, एक वित्तीय निवारण एजेंसी के गठन की सिफारिश की थी.
मौजूदा नियामक फ्रेमवर्क में, हर नियामक का एक अलग फोरम है, जहां उपभोक्ता जा सकते हैं, अगर उन्हें उसके द्वारा विनियमित, किसी वित्तीय संस्थान से कोई शिकायत हो. उदाहरण के तौर पर, किसी बैंक के खिलाफ शिकायत के लिए, आरबीआई ने बैंकिंग ओंबुड्समैन की स्थापना की हुई है.
अक्सर होता ये है कि वित्तीय क्षेत्र के उत्पादों में बढ़ती विशेषज्ञता और कई कई नियामकों के ओवरलैप्स से उपभोक्ताओं को पता नहीं चल पाता कि उसे किसके पास जाना है या वो अदालतों में नहीं जाना चाहते, जहां न्यायिक देरी में लंबा समय लग सकता है. मसलन, किसी बैंक द्वारा बेचे गए बीमा उत्पाद के लिए, उपभोक्ता भ्रमित रहता है कि उसे किसके पास जाना है.
वो उपभोक्ता जो प्रांतों की राजधानियों में नहीं रहते, जहां निवारण तंत्र एजेंसियां स्थित होती हैं, उन्हें न्याय नहीं मिल पाता. एक उपयुक्त व्यवस्था ये होगी कि केवल एक निवारण एजेंसी हो, जहां वित्तीय क्षेत्र के सभी उपभोक्ता जा सकें. ये एजेंसी ऑनलाइन ढंग से काम कर सकती है, ऑनलाइन निवेदन ले सकती है और ऑनलाइन सुनवाई भी कर सकती है.
ये प्रस्ताव काफी समय से है, लेकिन हो सकता है कि महामारी के बाद जिसमें अदालतों को ऑनलाइन काम करते हुए देखा गया, इसे ज़्यादा स्वीकार्यता हासिल हुई है. ख़बरों से अंदाज़ा होता है कि इस बजट में, वित्तीय निवारण एजेंसी के गठन की संभावना हो सकती है.
इसी तरह, एक बड़े वित्तीय घाटे के साथ, पब्लिक डेट मैनेजमेंट एजेंसी (पीडीएमए) या राजकोषीय परिषद जैसे संस्थान, दीर्घ-काल में वित्तीय अनुशासन के प्रति, सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शा सकते हैं.
2021-22 बजट ऐसे समय पेश किया जाएगा, जो अर्थव्यवस्था के लिए हाल के दशकों में, सबसे कठिन समय है, और उसे तैयार करना वित्तमंत्री के लिए, एक बहुत बड़ी चुनौती है. लेकिन वो संस्थागत बदलाव, जिनमें बड़ा ख़र्च नहीं है और जो सुधारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, निर्मला सीतारमण के बजट में एक मज़बूत सकारात्मक संकेत हो सकते हैं, और उनके बजट का एक अहम तत्व होने चाहिए.
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(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं व्यक्त विचार निजी हैं)
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