केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान दिल्ली को घेरकर विरोध कर रहे हैं. विकट ठंड और कई तरह की कठिन परिस्थितियों के बीच लंबे समय तक बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी ने इस पूरे आंदोलन में उनकी भूमिका तय की है.
इस बात से मना नहीं किया जा सकता है कि कृषि कानूनों के लागू होने की स्थिति में सबसे ज़्यादा असर उन महिलाओं पर पड़ेगा जो खेतीबाड़ी से जुड़े काम करने के साथ-साथ अपनी घर-गृहस्थी भी संभालती हैं.
सवाल है कि जो महिलाएं अपने खेतों में बीज रोपने से लेकर फसल कटाई तक के कामों में शामिल होती हैं वह किसान आंदोलन से कैसे दूर रहें. लेकिन, पिछले दिनों यह सवाल पूछा गया कि किसान आंदोलन में महिलाएं दिल्ली के आसपास क्यों हैं.
इससे देश भर में यह बहस शुरू हुई कि खेतीबाड़ी के कामों से जुड़ी महिलाओं को आज तक वह दर्ज़ा, पहचान और सम्मान क्यों हासिल नहीं हो सका जिसकी वह हकदार हैं.
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बुनियादी समस्या
असल में भारत में महिलाओं के संकट को समझने से पहले हमें भारत की खेती की बुनियादी समस्या में जाना होगा.
यह बात सच है कि पंजाब और हरियाणा के किसान इस बात को लेकर सबसे ज़्यादा आशंकित हैं कि सरकार कहीं किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देना बंद तो नहीं कर देगी. लेकिन, देश भर के किसानों की स्थिति देखी जाए तो पूरी खेती कुल 9.4 करोड़ हैक्टेयर में बंटी हुई है. जबकि, इस पर 10.1 करोड़ किसान धारक (होल्डर) हैं. इस तरह, भारत में खेतों का औसत आकार एक हैक्टेयर से भी कम है. जिनके पास ज़मीन है उनमें लगभग 85 प्रतिशत के पास एक हैक्टेयर से कम ज़मीन है. ज़ाहिर है कि ज़्यादातर किसान परिवार ज़मीन के मामूली टुकड़े पर अपना गुज़ारा कर रहे है. इसके अलावा भी एक बड़ी आबादी उन खेत मज़दूर परिवारों की है जिनके पास खेती का पट्टा नहीं है. एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 40 प्रतिशत यानि 4 करोड़ खेत मज़दूर परिवार हैं.
सवाल है कि खेत के इतने छोटे टुकड़े होने की स्थिति में क्या ज़्यादातर छोटे किसान और खेत मज़दूर परिवारों को उनकी मेहनत की उपज का क्या उचित दाम मिलना संभव है?
इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि आज चार से छह सदस्यों के एक किसान परिवार को हर महीने न्यूनतम 20 से 30 हज़ार रुपए तो चाहिए ही. यानि उसे साल में ढाई से तीन लाख रुपए चाहिए ही. इसमें आपातकालीन स्थितियों में होने वाला खर्च शामिल नहीं है. सवाल है कि एक हैक्टेयर से कम ज़मीन का किसान परिवार सिर्फ़ खेती से इतनी आमदनी हासिल कर सकेगा? इसलिए, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ खेती में एक ऐसी व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है जिसमें एक किसान परिवार को अपनी आजीविका में उतनी आमदनी तो हो कि वह बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर सके.
क्योंकि, यदि किसान आत्महत्याओं की गहराई में भी जाएं तो यह निचोड़ निकलता है- जितने लोग खेती में हैं उतने लोगों की आजीविका देने की हालत में खेती नहीं है. इसलिए खेती घाटे का सौदा है. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि किसानों के पास आवश्यक आमदनी के अनुपात में खेती की ज़मीन नहीं है. जब ज़मीन ही नहीं है तो खेती पर निर्भर लोगों को आजीविका कैसे मिलेगी.
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महिलाओं का संकट
दूसरी बात, जब तक हम भूमि श्रमिक संबंधों में बड़ा परिवर्तन नहीं लाते तब तक कृषि-क्षेत्र में छाए संकट और खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं की समस्याओं से उभरना मुश्किल है. इन छोटी-छोटी जोतों को ध्यान में रखते हुए ठीकठाक आमदनी की खेती से जुड़ी संभावनाओं को सबसे अंत में टटोलने और पूरे मुद्दे को एक सूत्र में पिरोने से पहले अब आते हैं महिला किसानों की समस्याओं पर.
भारत में महिला किसानों की समस्याओं को रेखांकित करने के लिए इसे तीन अलग-अलग भागों में और फिर उन्हें एक साथ देखने की ज़रूरत है.
एक अनुमान के अनुसार भारत में करीब दस करोड़ महिलाएं खेती से जुड़ी हैं. इनमें करीब चार करोड़ खेत मज़दूर परिवारों से हैं. पहला भाग इन खेतीहर मज़दूर परिवार की महिलाओं से जुड़ा है, जिन पर अलग से सोचने की ज़रूरत है.
सभी जानते हैं कि हर प्रांत में पुरुषों के मुकाबले इन महिला खेत मज़दूरों को कम मज़दूरी दी जाती है. इसलिए, समान काम के लिए समान मज़दूरी से काफ़ी कम मज़दूरी मिलना इनकी सबसे बड़ी समस्या है. इस वर्ग की महिलाएं वर्ष 2005 से मनरेगा के तहत सबसे बड़ी संख्या में जुड़ी हैं.
मनरेगा वंचित समुदाय के परिवारों के लिए जीने की बड़ी राहत योजना तो है, किंतु इसके साथ ही यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि इसमें भी मज़दूरी कम है. साथ ही, कानून के बावजूद कई ज़गह साल के सौ दिनों का रोज़गार नहीं मिल पाता है. फिर अक्सर समय पर भी भुगतान नहीं होता है. इस तरह, महिला खेत मज़दूरों को किसी तरह जो मज़दूरी मिलती है उससे दो वक्त की रोटी और अपने परिजनों का पेट पालना बहुत मुश्किल होता है.
खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं का दूसरा वर्ग उन किसान परिवारों से संबंधित है जिनमें ज़मीन के पट्टे पुरुषों के पास हैं. इस वर्ग की करीब 75 प्रतिशत महिलाएं खेती के कामों से तो जुड़ी हैं, किंतु आमतौर पर उन्हें उनके कामों का श्रेय नहीं दिया जाता है. न उनके हाथों में सीधी मज़दूरी पहुंचती है और कई बार वे खेती से जुड़ी निर्णय-प्रक्रिया से बाहर रहती हैं. वे खेती और परिवार से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी एक साथ निभाती हैं. लेकिन, इन सबके बावजूद उनके योगदान का मूल्यांकन कहीं नहीं होता.
तीसरा वर्ग एक बहुत छोटा हिस्सा है. इनमें वे महिलाएं आती हैं जिन्हें अपनी ज़मीन पर अधिकार मिला होता है. इसमें भी दो श्रेणियां हैं- पहली श्रेणी में किसान आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाएं हैं. ये ऐसी महिला किसान हैं जिन्हें पति की आत्महत्या के बाद वैध तरीके से ज़मीन मिलनी चाहिए थी. हालांकि, कई ज़गहों पर उन्हें वैध तरीके से ज़मीन मिली भी, पर कई कारणों से उस ज़मीन पर नियंत्रण किसी और का है. बहुत लंबी लड़ाइयों के बावजूद उन्हें उनकी ज़मीन का अधिकार नहीं मिल सका है.
दूसरी श्रेणी में वे महिलाएं हैं जिन्हें पति की आत्महत्या के बाद वैध तरीके से ज़मीन हासिल हुई है और उस ज़मीन पर उनका नियंत्रण भी है. इसमें उन महिला किसानों को भी शामिल किया जा सकता है जिनके पिता, पति या पुत्र पलायन के कारण घर छोड़ चुके हैं और इस कारण वे खेती से जुड़े निर्णय खुद ले सकती हैं. इस तरह, तीसरे वर्ग की महिलाओं की अलग-अलग समस्याएं हैं. जैसे कि इनमें से कई महिलाओं को किसान के रुप में नहीं देखा जाता है. इसलिए, कई बार प्रशासनिक स्तर पर ऋण या किसी योजना का लाभ लेने में इन्हें खासी परेशानी का सामना करना पड़ता है.
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि खेती के गहराते संकट में सबसे ज़्यादा बुरा असर खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं पर पड़ रहा है. इन तीनों वर्गों की महिलाओं की स्थिति बाकी पुरुष किसानों से कमज़ोर है. इसलिए, कृषि क्षेत्र में सुधार की बात करें तो इस क्षेत्र में जो तबका सबसे कमज़ोर है वह मौज़ूदा स्थिति को बदलने के लिए सबसे आगे आ सकता है.
संभावनाएं
अंत में छोटी-छोटी जोतों को ध्यान में रखते हुए ठीक-ठाक आमदनी से जुड़ी संभावनाओं पर लौटते हैं.
ज़ाहिर है कि खेती एक घाटे का सौदा है इसलिए संकट से उभरना आसान नहीं है. लेकिन, जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि जब तक भूमि श्रमिक संबंधों को नहीं बदला जाएगा तब तक खेती के संकट से उभरना मुश्किल होगा. इसलिए, यह छोटी-छोटी जोतों को साथ में लाकर सामूहिक खेती (कलेक्टिव फार्मिंग) पर भी सोचने का समय है.
यह विचार कहने में थोड़ा चुनौतीपूर्ण ज़रूर लगता है लेकिन इस विचार के बिना भारत जैसे देश में इतने बड़े संकट से बाहर निकलना संभव नहीं लगता. उम्मीद इसलिए भी की जा सकती है कि खेती के संकट में छोटा किसान सबसे ज़्यादा मार झेल रहा है, जबकि सामूहिक खेती में उसके हितों को ही सबसे ऊंचा रखा गया है.
इसमें यह समझने की ज़रूरत है कि जिनके पास थोड़ी-थोड़ी ज़मीन हैं उनके समूह बनाकर बड़ा लाभ लिया जा सकता है. फिर यह विचार बड़ा उदार भी है जिसमें खेतीबाड़ी से जुड़ी महिलाओं के दृष्टिकोण और हित दोनों निहित हैं.
(शिरीष खरे पुणे स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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