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Thursday, 21 November, 2024
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कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के हाशिये के तबकों के लिए अपने राजनीतिक जीवन को संघर्ष में झोंका

कर्पूरी की नैतिकता और ईमानदारी को समझने के लिए जानना चाहिए कि लंबी राजनीति पारी के बाद उनका निधन हुआ तो एक मकान तक उनके नाम नहीं था. न पटना में, न ही अपने पैतृक घर में वे एक इंच भी जमीन जोड़ पाए थे.

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कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, त्यागी, बहुमुखी, प्रतिभा सम्पन्न, ओजस्वी, परिवर्तनकामी, प्रयोगधर्मी, युगनिर्माता और युगद्रष्टा- जननायक कर्पूरी ठाकुर के लिए जितने भी विशेषण इस्तेमाल किये जायें, कम पड़ जाते हैं. इस कदर कि इनमें बिहार जैसे राज्य का भूतपूर्व मुख्यमंत्री जोड़ दिया जाये, तो भी उनका परिचय पूरा नहीं हो पाता.

दरअसल, उन्होंने जिस तरह अपने समूचे राजनीतिक जीवन को संघर्ष का पर्याय बनाये रखा, हाशिये के समुदायों की भलाई के लिए उसे दांव पर लगाया, नाना प्रकार के अपमान सहे और अपने निजी व सार्वजनिक जीवन में कतई कोई फांक नहीं रहने दी, आज की राजनीति में उसकी मिसाल इतनी दुर्लभ हो चली है कि उनकी बात करने चलें तो उपयुक्त शब्द नहीं मिलते.

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम और उनकी वारिस मायावती ने दलितों के हित में सारे अवसरों का इस्तेमाल करने के बहाने ‘पलटीमार राजनीति’ का जो ‘सिद्धांत’ बीती शताब्दी के आखिरी दशक में दिया, कर्पूरी ने मंडल आयोग की सिफारिशों का दौर आने से पहले ही, बिना कोई नाम दिये सारे वंचित समुदायों के सशक्तीकरण के लिए उसे बिहार में सातवें-आठवें दशक में ही इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. तब इसे लेकर अभिजात तबकों द्वारा उन पर दलबदल, दबाव और छलकपट की राजनीति करने की तोहमतें भी लगाई जाती थीं. लेकिन उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था.

जानकारों के अनुसार इसका कारण यह था कि वे कांग्रेस की राजनीतिक चालों के साथ अपने समाजवादी खेमे के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भी बखूबी जानते व समझते थे. इसलिए जरूरत के वक्त सरकार बनाने या उसमें शामिल होने के लिए बेहद लचीला रुख अपनाकर समान विचारधारा वाले किसी भी दल से गठबंधन कर लेते थे. लेकिन बाद में रास्ते अलग होने पर पटरी बैठाने के चक्कर में पड़ने के बजाय गठबंधन तोड़कर निकल जाने में भी देर नहीं करते थे.

इसी राह पर चलते हुए वे बिना किसी जातीय समीकरण अथवा आधार के बिहार के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे. यहां तक पहुंचने में उनका एकमात्र अवलंब उनकी समाजवाद की विचारधारा ही थी क्योंकि राज्य में उनकी नाई जाति की आबादी तो उसकी कुल जनसंख्या के दो प्रतिशत से भी कम है. हां, उनके ईमानदारी से काम करने का परिणाम यह हुआ कि वे राज्य के प्रायः सारे वंचित तबकों के स्नेहभाजन हो गये. अति पिछड़े वर्ग की सौ से ज्यादा जातियों ने तो, जो उनतीस प्रतिशत हैं, उन्हें यावतजीवन सिर आंखों पर बिठाये रखा, इसलिए 1952 के बाद से 1984 में समस्तीपुर से लोकसभा चुनाव को छोड़कर वे कभी कोई चुनाव नहीं हारे. 2005 में नीतीश कुमार को पहली बार राज्य का मुख्यमंत्री बनाने में भी, कहते हैं कि, इन्हीं सौ जातियों के समूह का अहम योगदान रहा.


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‘बिहार के गरीबों के पास तो ऐसे घर भी नहीं हैं’

कर्पूरी की नैतिकता और ईमानदारी को समझने के लिए जानना चाहिए कि लंबी राजनीति पारी के बाद उनका निधन हुआ तो एक मकान तक उनके नाम नहीं था. न पटना में, न ही अपने पैतृक घर में वे एक इंच भी जमीन जोड़ पाए थे. कहते हैं कि एक बार चौधरी चरण सिंह उनके घर गये तो उसके नीचे दरवाजे से गुजरते हुए उनके सिर में चोट लग गई थी. उन्होंने उसको ऊंचा करवाने को कहा तो कर्पूरी का जवाब था, ‘बिहार के गरीबों के पास तो ऐसे घर भी नहीं हैं.’

यकीनन, वे राजनीतिक सादगी की उस जीवन शैली के सच्चे वारिस थे, जिसे देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के साथ जोड़ा जाता है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे जयंत जिज्ञासु ने एक लेख में इस बाबत एक वाकये का जिक्र किया है: 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने थे. उन्हीं दिनों उनका आस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में चयन हुआ था. उनके पास कोट नहीं था. तो एक दोस्त से कोट मांगा गया. वह भी फटा हुआ था. खैर, कर्पूरी ठाकुर वही कोट पहनकर चले गए. वहां यूगोस्लाविया के मुखिया मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ्ट किया गया.

आज जब राजनेता अपने महंगे कपड़ों और दिन में कई बार ड्रेस बदलने को लेकर चर्चा में आते रहते हों, ऐसे किस्से अविश्वसनीय ही लग सकते हैं.

कर्पूरी के सादा जीवन और उच्च विचारों का यह कोई इकलौता किस्सा नहीं है. उनसे प्रभावित आज के नेताओं का जिक्र करें तो लालू प्रसाद यादव के वे राजनीतिक गुरू थे और देश के पूर्व वित्त व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा उनके मुख्यमंत्री काल में उनके प्रधान सचिव रहे हैं. लेकिन इनमें से किसी ने भी उनकी राह पर चलना गवारा नहीं किया. अलबत्ता, जनता से संवाद करते हुए लालू जो चतुराई बरतते रहे, उसे कहा जाता है कि उन्होंने कर्पूरी से भी सीखा. काश, वे लोकराज की हिमायत करना भी सीखते, जिसमें कर्पूरी ने अपना सारा जीवन लगा दिया था!


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वंचित तबकों के मसीहा

बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ने अंग्रेजी का वर्चस्व घटाने और वंचित तबकों को रोजी-रोटी उपलब्ध कराने, साथ ही बराबरी व सम्मान दिलाने के लिए आरक्षण, मुफ्त शिक्षा, गैर-लाभकारी भूमि पर मालगुजारी के खात्मे और उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने जैसे दूरगामी महत्व वाले जो फैसले किये, उनका लाभ भले बिहारवासियों तक ही सीमित रहा- दूषित चेतनाओं को पाल-पोसकर उनके द्वारा बनाई जा रही लोकराज की राह अवरुद्ध न कर दी जाती, तो आज देश भर में वंचित तबकों का हाल कहीं बेहतर होता.

1977 में उनके ही मुख्यमंत्री काल में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना था. खुद को जाति विशेष के दायरे में सीमित करने की कोशिशों का जवाब उन्होंने सारे वंचित व पिछड़े समाज की सेवा को अपना मिशन बनाकर दिया था. उनके मुख्यमंत्री बनने से पहले बिहार की हालत यह थी कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट भी इस्तेमाल नहीं कर सकते थे. मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने उनके लिए लिफ्ट का इस्तेमाल सुनिश्चित किया. लेकिन उनके मुख्यमंत्री रहते, उनके गांव के कुछ सामंतों ने उनके पिता को अपमानित किया और इसकी सूचना पाकर जिलाधिकारी कार्रवाई करने पहुंचे तो उन्होंने जिलाधिकारी को यह कहकर रोक दिया कि दबे-पिछड़ों का गांव-गांव में जो अपमान हो रहा है, उससे निपटना कहीं ज्यादा जरूरी है.

कर्पूरी ठाकुर का जन्म बिहार के समस्तीपुर जिले के पितांझिया गांव में 1921 में 24 जनवरी को यानी आज के ही दिन किसान पृष्ठभूमि वाले एक साधारण नाई परिवार में हुआ था और 17 जनवरी, 1988 को अपने निधन से पहले उन्होंने 67 साल की उम्र पाई. उनके पिता का नाम गोकुल ठाकुर एवं माता का नाम रामदुलारी था.

1942 में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो कर्पूरी पटना विश्वविद्यालय में बीए के छात्र थे. पढ़ाई छोड़कर वे उक्त आंदोलन में कूदे तो 21 वर्ष की आयु में ही 26 माह की कैद की सजा काटी.

आजादी मिली तो जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव और डॉ. राममनोहर लोहिया की तरह वे कांग्रेस समाजवादी पार्टी के सदस्य थे. 1948 में इन्हीं के साथ कांग्रेस से अलग भी हुए. किसान मजदूर आंदोलनों के सिलसिले में उन्होंने आजादी के बाद भी कम से कम पांच बार जेलयात्राएं कीं. अगस्त, 1965 में कृष्णबल्लभ सहाय के मुख्यमंत्री काल में पटना के गांधी मैदान में महंगाई और भ्रष्टाचार के विरोध में हो रही सभा में पुलिस लाठीचार्ज हुआ तो उनके दांयें हाथ की हड्डी टूट गयी थी.

1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा तो अन्य सारे विपक्षी नेता पकड़ लिये गये, लेकिन कर्पूरी पुलिस के हाथ नहीं आये. वे नेपाल चले गये, जहां वो मोहन सिंह के नाम से रहते रहे. 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद 30 जनवरी को पटना के गांधी मैदान में हो रही जयप्रकाश नारायण की सभा में अचानक प्रकट होकर उन्होंने लोगों को चौंका दिया और अपना आगे का सारा जीवन सामाजिक व राजनीतिक पुनर्जागरण की चेतना के लिए समर्पित किये रखा.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)


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