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Wednesday, 6 November, 2024
होममत-विमतक्या हत्या, आत्महत्या और बलात्कार के मामलों में अपनी 'लक्ष्मण रेखा' लांघ रहा है मीडिया

क्या हत्या, आत्महत्या और बलात्कार के मामलों में अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ रहा है मीडिया

मीडिया ट्रायल पर टिप्पणियों के बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कई सनसनीखेज मामलों में इसकी वजह से आरोपी को न्याय के कठघरे तक लाने में सफलता मिली है.

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क्या वास्तव में आत्महत्या और हत्या की घटनाओं में मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया, समानांतर जांच शुरू करके आपराधिक मामलों में पुलिस की जांच में हस्तक्षेप पैदा करने लगा है? क्या समानांतर जांच करके मीडिया अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ रहा है?

बालीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में चुनिन्दा चैनलों की भूमिका के परिप्रेक्ष्य में बंबई उच्च न्यायालय की व्यवस्था से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे इलेक्ट्रानिक चैनल ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघ रहे हैं.

न्यायपालिका, हालांकि, पहले भी अदालत के विचाराधीन मामलों की रिपोर्टिंग के बारे में मीडिया के लिये किसी प्रकार के दिशा निर्देश बनाने से इनकार कर चुका है लेकिन यहां मुद्दा आपराधिक मामलों की जांच के दौरान मीडिया द्वारा समानांतर जांच से संबंधित है.

शायद यही वजह है कि बंबई उच्च न्यायालय ने निलेश नवलखा और अन्य बनाम यूओआई और अन्य प्रकरण में सुनाये गये अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा है कि आत्महत्या और हत्या जैसे आपराधिक मामलों में मीडिया द्वारा ट्रायल पुलिस की आपराधिक जांच में हस्तक्षेप है.


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मीडिया की भूमिका और सवाल

वैसे यह पहला मौका नहीं है जब किसी सनसनीखेज अपराध की जांच को लेकर मीडिया ट्रायल और मीडिया की भूमिका को लेकर सवाल उठे हैं. पहले भी दहेज की खातिर हत्या-आत्महत्या और बलात्कार की घटनाओं से लेकर पालघर में साधुओं सहित कई लोगों की तरह तरह के संदेहों में पीट पीट कर हत्या के मामले में मीडिया ट्रायल का मसला न्यायालय पहुंचा है.

देश की शीर्ष अदालत ने सितंबर, 1997 में स्टेट ऑफ महाराष्ट्र बनाम राजेंद्र जमवाल गांधी प्रकरण और फरवरी 2005 में  एम. पी. लोहिया बनाम स्टेट ऑफ पश्चिम बंगाल मामले में सुनाये गये अपने फैसलों में मीडिया ट्रायल को लेकर सख्त टिप्पणियां की थी.

शीर्ष अदालत ने आत्महत्या और बलात्कार जैसे अपराधों के मामले में मीडिया में प्रकाशित होने वाली एकतरफा खबरों पर टिप्पणी करते हुये कहा था कि निश्चित इस तरह के प्रकाशन न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप हैं.

मीडिया ट्रायल की दिन प्रतिदिन गंभीर हो रही समस्या के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने सहारा इंडिया रियल एस्टेट बनाम सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया में सितंबर 2012 में मीडिया की रिपोर्टिंग के लिये किसी प्रकार के दिशा निर्देश बनाने से इंकार कर दिया था. न्यायालय ने मीडिया को आगाह जरूर किया था कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी निर्बाध नहीं है और उसे स्वंय ही अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ समझनी चाहिए.

लेकिन ब्रेकिंग न्यूज या सबसे पहले खबर देने की होड़ में इस लक्ष्मण रेखा की परवाह नहीं की जा रही है. लक्ष्मण रेखा को तिलांजलि देते हुये खोजी पत्रकारिता के नाम पर कोरोना काल में तबलीगी जमात की गतिविधियों की तरह ही सुशांत सिंह राजपूत, अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और दिशा सालियान के संबधों को लेकर लगातार ‘सूत्रों से मिली एक्सक्लूसिव जानकारी’ के आधार पर सनसनीखेज खबरें पेश की जाती रहीं.

सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु और इससे जुड़ी नार्कोटिक्स क्राइम ब्यूरो की जांच को लेकर रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ जैसे न्यूज चैनलों की कार्यशैली पर तो बंबई उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुये जांच के अधीन आपराधिक मामलों में मीडिया द्वारा समानांतर जांच टीवी के कार्यक्रमों में ऐसे मामले में बहस तथा परिचर्चा आदि को आपराधिक जांच में हस्तक्षेप करार दिया है.

उच्चतम न्यायालय में भी सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम ‘बिन्दास बोल’ में प्रयुक्त कथित आपत्तिजनक भाषा के साथ ही चुनिन्दा समाचार चैनलों पर होने वाली बहस के कार्यक्रमों और इनके ऐंकरों की शैली भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में है.

मीडिया ट्रायल, आपराधिक मामले और मुकदमे

न्यायालय का हमेशा यही मानना रहा है कि मीडिया ट्रायल का मुद्दा किसी आपराधिक मामले की निष्पक्ष जांच और मुकदमे की सुनवाई से ही नहीं बल्कि आरोपियों को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदतत जीने के अधिकार से भी जुड़ा है और ऐसी स्थिति में मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी के अपने अधिकार का इस्तेमाल करते समय संबंधित घटना से प्रभावित पक्ष या आरोपी या व्यक्ति के अधिकारों और उसकी गरिमा का भी ध्यान रखना चाहिए.

बंबई उच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में इस तथ्य को इंगित करते हुये कहा है कि मीडिया ट्रायल से आरोपियों और गवाहों के अधिकार प्रभावित होते हैं.

उच्च न्यायालय ने हालांकि सुशांत सिंह राजपूत मामले में रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ न्यूज चैनलों की रिपोर्टिंग के कतिपय तत्वों को तिरस्कारपूर्ण पाया लेकिन उसने इसमें कोई कार्रवाई शुरू करने से गुरेज किया.

इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अभी तक खबरों के मानकों के बारे में अपनी ही स्वनियंत्रित व्यवस्था बना रखी थी लेकिन उच्च न्यायालय ने साफ साफ कह दिया, ‘कानून की व्यवस्था के दायरे में स्वनियंत्रण का कोई महत्व नहीं है.’ उच्च न्यायालय ने कहा, ‘मीडिया द्वारा ट्रायल आपराधिक जांच में हस्तक्षेप करता है और यह केबल टीवी कानून के तहत कार्यक्रम संहिता के विपरीत है.’

इलेक्ट्रानिक मीडिया के मामले में दिलचस्प पहलू यह है कि उसे नियंत्रित करने के लिये कोई कानूनी संस्था नहीं है और स्व:नियंत्रण के लिये ‘न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) और नेशनल ब्राडकास्टिंग फेडरेशन (एनबीएफ) जैसी निजी संस्थायें हैं और वे समझते हैं कि उन्हें केबल और टेलीविजन नेटवर्क विनियमन कानून के तहत कार्यक्रम संहिता छूट प्राप्त है.

न्यायालय को जब इन तथ्यों से अवगत कराया गया तो उसने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भी अपनी जिम्मेदारी त्यागने के लिये आड़े हाथ लिया और जानना चाहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये कोई कानूनी दिशा निर्देश क्यों नहीं है.


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डिजिटल मीडिया पर लगाम

इस संबंध में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि केन्द्र सरकार का दावा है कि प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया बहुत ही कम अपनी सीमा लांघते हैं लेकिन सूचना क्रांति के दौर में डिजिटल मीडिया पूरी तरह अनियंत्रित है. सरकार ने उच्चतम न्यायालय में तबलीगी जमात और सुदर्शन टीवी आदि से संबंधित मामलों की सुनवाई के दौरान यह दावा किया था.

इसी तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में कोई दिशा निर्देश तैयार होने तक उन्हें भी रिपोर्टिंग के मामले में प्रेस काउन्सिल आफ इंडिया के दिशा निर्देशों का पालन करना होगा. यह पहला मौका है जब किसी न्यायिक व्यवस्था में इलेक्ट्रानिक मीडिया को प्रेस काउन्सिल के दिशा निर्देशों का पालन करने का निर्देश दिया गया है.

उच्च न्यायालय ने कहा, ‘मीडिया को किसी आपराधिक मामले की जांच के बारे में बहस, परिचर्चा करने से बचना चाहिए और ऐसे मामलों की जानकारी देने तक ही खुद को सीमित रखना चाहिए.’

अदालत का मानना था कि आपराधिक मामले में चल रही जांच से संबंधित पहलुओं की रिपोर्टिंग पत्रकारिता के मानकों के अनुरूप होनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इससे आरोपी और गवाह के अधिकार प्रभावित नहीं हों.

उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आत्महत्या जैसे आपराधिक मामलों की रिपोर्टिंग के बारे में इलेक्ट्रानिक मीडिया को कई निर्देश दिये हैं और कहा है कि जांच अधिकारी जांच से संबंधित जानकारी बताने के लिये बाध्य नहीं है.

इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की 2009 में आपराधिक मामले की जांच पूरी होने से पहले ही इससे संबंधित जानकारी मीडिया को लीक करने की प्रवृत्ति के प्रति राजेंद्र चिंगरावेलू बनाम मिस्टर आर के मिश्रा प्रकरण में आगाह किया था. न्यायालय ने कहा था कि किसी अपराध से संबंधित जानकारियां लीक करने से जहां जांच प्रभावित होती है वहीं यह असली अपराधी के बच निकलने में भी मददगार होती है.

बेलगाम इलेक्ट्रानिक मीडिया

भारत में इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रसारित होने वाले समाचारों और उनकी गुणवत्ता के बारे में कोई कानूनी संस्था नहीं होने की वजह से ही संभवत: ये संचार माध्यम मनमर्जी से आत्म संयम बरतने के तरीकों का जिक्र करता है. इसी वजह से न्यायालय ने कानूनी दायरे में इनके बारे में दिशा निर्देश या आचार संहिता बनाने पर जोर दिया है.

इस पहलू पर न्यायालय के जोर देने का अर्थ क्या यह निकाला जाये कि भारत में भी मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रानिक मीडिया, के लिये ब्रिटेन की टेलीविजन नियामक प्राधिकरण ‘ऑफकाम’ जैसी व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे निर्धारित मानकों का उल्लंघन करने वाले चैनलों पर जुर्माना लगाने या उनका प्रसारण निलंबित करने का अधिकार प्राप्त हो?

ध्यान रहे कि ब्रिटेन के संचार सेवा नियामक आफकॉम ने 22 दिसंबर, 2020 को ब्रिटेन में रिपब्लिक भारत के संचालन के लाइसेंस का स्वामित्व रखने वाले वर्ल्डव्यू मीडिया नेटवर्क पर 20, 000 पाउन्ड का जुर्माना लगाया था. यह जुर्माना ‘पूछता है भारत’ में 6 सितंबर, 2019 को प्रसारित एक कार्यक्रम के संबध में लगाया गया था जिसे पाकिस्तान और पाकिस्तानियों को निशाना बनाने के लिये ऑफकाम ब्राडकास्टिंग कोड का उल्लंघन करने वाला पाया था.

मीडिया ट्रायल को लेकर होने वाली टीका टिप्पणियों के बावजूद इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि कई सनसनीखेज मामलों में मीडिया ट्रायल की वजह से आरोपी को न्याय के कठघरे तक लाने में भी सफलता मिली है.

बेहतर होता कि प्रिंट मीडिया की तरह ही इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में कई बार असंयमित और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने की बजाये गंभीरता से संयम का परिचय दिया होता. समाचार चैनलों ने अगर ऐसा किया होता तो आज न्यायपालिका को उनकी कार्यशैली पर इस तरह की प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करनी पड़ती.

न्यायपालिका की सख्त टिप्पणियों के मद्देनजर जरूरी है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिये यथाशीघ्र एक ‘लक्ष्मण रेखा’ खींची जाये क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित ही सरकार इसमे हस्तक्षेप करेगी और ऐसी स्थिति में उसे मीडिया पर अंकुश लगाने का नये सिरे से अवसर मिल जायेगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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