पालघर में साधुओं की हत्या, कोविड-19 महामारी के प्रसार में तबलीगी जमात की कथित संलिप्ता, अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु, नशीले पदार्थों का सेवन और बॉलीवुड, जैसी कई सनसनीखेज घटनाओं में मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया की भूमिका इस समय न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ गयी है. बार-बार मीडिया की ‘लक्ष्मण रेखा’ पर सवाल उठ रहे हैं.
उच्चतम न्यायालय और बंबई उच्च न्यायालय में इन घटनाओं के मीडिया ट्रायल को लेकर लगातार चिंता व्यक्त की जा रही है. न्यायपालिका लगातार सख्त अंदाज़ में सवाल कर रही है कि आखिर अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार में समाहित प्रेस की स्वतंत्रता की सीमा क्या है? आपराधिक मामलों की जांच के सिलसिले में खबरों की रिपोर्टिंग के संबंध में मीडिया की लक्ष्मण रेखा क्या है?
क्या मीडिया को जांच एजेंसी के काम में दखल देने और अपुष्ट तथ्यों के आधार पर ही किसी आपराधिक मामले में दूसरे व्यक्तियों का नाम घसीटकर उन पर कीचड़ उछालने का अधिकार है? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर किसी भी व्यक्ति की छवि धूमिल की जा सकती है?
न्यायपालिका सख्त शब्दों में कहती आ रही है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीमित नहीं है. इसलिए मीडिया को इस अधिकार की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए.
मीडिया ट्रायल की बढ़ती प्रवृत्ति और इनके खतरों के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने कई फैसलों में मीडिया को आगाह किया है.
यह भी सच है कि 11 सितंबर 2012 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने Sahara India Real Estate…vs Securities & Exch.Board Of India प्रकरण में अपने फैसले में न्यायालय के विचाराधीन मामलों की रिपोर्टिंग के बारे में किसी प्रकार के दिशा-निर्देश जारी करने से इंकार कर दिया था, लेकिन पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि संविधान के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी अनियंत्रित नहीं है और पत्रकारों को ‘लक्ष्मण रेखा’ समझनी चाहिए ताकि वे अवमानना की सीमा नहीं लांघें.
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इससे पहले, फरवरी, 2005 में भी न्यायमूर्ति एन संतोष हेगड़े और न्यायमूर्ति एस बी सिन्हा की पीठ ने M.P.Lohia vs State Of West Bengal & Anr on 4 February, 2005 अदालतों में लंबित मुकदमों के बारे में एकतरफा लेख और खबरें प्रकाशित किये जाने की प्रवृत्ति की तीखी आलोचना की थी. यह मामला चांदनी नाम की एक युवती की 28 फरवरी, 2002 को हुयी मृत्यु से संबंधित था. पुलिस ने इस संबंध में शिकायत दर्ज की थी और जांच प्रगति पर थी.
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 13 फरवरी, 2004 को अग्रिम जमानत की अर्जी का निस्तारण किया था और इसके खिलाफ शीर्ष अदालत में मामला लंबित था. इसी दौरान ‘सागा’ नाम की पत्रिका में ‘ड्रम्ड बाय डावरी’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जो मृतक के परिवार से लिये गये इंटरव्यू पर आधारित था. इसमें प्रयुक्त सारी सामग्री वह थी जिसका इस्तेमाल इस मामले के मुकदमे की सुनवाई के दौरान हो सकता था.
शीर्ष अदालत ने इस मामले में कहा कि इसमें कोई संकोच नहीं है कि मीडिया में इस तरह के लेखों का प्रकाशन निश्चित ही न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप होगा.
मौजूदा दौर में यौन हिंसा के अपराधों से संबंधित खबरों को तरह-तरह से मिर्च मसाला लगाकर और सुपर एक्सक्लूसिव के नाम से मीडिया में पेश किया जा रहा है.
लेकिन, शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति एमके मुखर्जी और न्यायमूर्ति डीपी वधवा की पीठ सितंबर, 1997 में State Of Maharashtra vs Rajendra Jawnmal Gandhi प्रकरण में अपने फैसले में ऐसे मामलों में मीडिया ट्रायल को लेकर तल्ख टिप्पणियां कर चुकी है.
यह मामला महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक लड़की से बलात्कार से संबंधित था जिसे मीडिया ने प्रमुखता से उठाया और जनता ने मोर्चे निकाले थे.
इस परिप्रेक्ष्य में न्यायालय ने कहा कि किसी भी अपराध के लिये आरोपी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिये कानून के तहत प्रतिपादित प्रक्रिया है. इस संबंध में प्रेस, इलेक्ट्रानिक मीडिया या जन-आन्दोलन द्वारा मुकदमे का ट्रायल करना कानून के शासन के विरूद्ध है क्योंकि इससे न्याय देने में गलती हो सकती है. न्यायालय ने कहा था कि न्यायाधीश को इस तरह के किसी भी दबाव से खुद को मुक्त रखना चाहिए और उसे खुद को सख्ती से कानून के शासन से ही निर्देशित करना चाहिए.
सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण से जुड़े ड्रग्स मामले की एनसीबी की जांच के दौरान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने सूत्रों के हवाले से सनसनीखेज खुलासे कर रही थी. निश्चित ही एनसीबी ब्यूरो से ही खबरें लीक हो रही थीं.
इस संदर्भ में एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सितंबर, 2014 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा की पीठ ने पुलिस और जांच एजेंसियों को आड़े हाथ लिया था. न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोपी के दर्ज बयान मीडिया को प्रकाशन और प्रसारण के लिये मिलने पर कड़ी आपत्ति की थी.
न्यायालय ने सख्त लहजे में कहा था कि ऐसा लगता है कि ऐसे आपराधिक मामलो में अदालत में सुनवाई के साथ ही समानांतर मीडिया ट्रायल हो रहा है जिससे न्याय के प्रशासन पर असर पड़ने की संभावना है. न्यायालय का मत था कि मीडिया ट्रायल का मुद्दा आपराधिक मामले की निष्पक्ष जांच और मुकदमे की सुनवाई से ही नहीं बल्कि यह आरोपी को संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के अधिकार से भी जुड़ा है.
इसी तरह, 30 मार्च, 2017 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहड़ की पीठ ने अपराध के पीड़ितों और आरोपियों के अधिकारों को ध्यान में रखते हुये मीडिया को पुलिस की जानकारी देने के संबंध में केन्द्र को नये दिशा-निर्देश तैयार करने का निर्देश दिया था.
न्यायालय की लगातार तल्ख टिप्पणियों और नाराजगी के बावजूद लोकतंत्र के चौथे स्तंभ, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया का एक बड़ा वर्ग अक्सर मर्यादाओं की सीमायें लांघ ला रहा है.
हाल ही में सुदर्शन टीवी के एक विवादास्पद कार्यक्रम को लेकर शीर्ष अदालत में सुनवाई के दौरान सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने का मुद्दा भी उठा क्योंकि प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया को विनियमित करने के लिये नियमों की तरह डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया इसके दायरे से अभी बाहर हैं.
बंबई उच्च न्यायालय में सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु और इससे जुड़ी नॉर्कोटिक्स क्राइम ब्यूरो की जांच को लेकर रिपब्लिक टीवी सहित कई न्यूज चैनलों की कार्यशैली न्यायिक समीक्षा के दायरे में है तो उच्चतम न्यायालय में सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम ‘बिन्दास बोल’ में प्रयुक्त भाषा शैली का मामला है.
शीर्ष अदालत में लंबित इस मामले का दायरा बढ़ता नजर आ रहा है क्योंकि इसमें कुछ आवेदन दायर करके चुनिंदा समाचार चैनलों पर होने वाली बहस के कार्यक्रमों और इनके एंकरों को भी अपनी चपेट में ले आया गया है.
सरकार का दावा है कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने काम के तरीके की वजह से ‘बहुत ही कम अपनी सीमा लांघते’ हैं लेकिन मौजूदा दौर में डिजिटल मीडिया ‘पूरी तरह अनियंत्रित’ है और उसे नियंत्रित करने की आवश्यकता है.
सरकार चाहती है कि अगर शीर्ष अदालत मीडिया को नियंत्रित करने के लिये निर्देश जारी करने का फैसला करता है तो उसे सबसे पहले डिजिटल मीडिया के बारे में ऐसा करना चाहिए क्योंकि इसकी पहुंच ज्यादा तेज है और व्हाट्सऐप, ट्विटर और फेसबुक जैसे ऐप की वजह से इससे खबरों तेजी से वायरल होती हैं.
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं है कि मीडिया, चाहें प्रिंट, इलेकट्रॉनिक, डिजिटल हो या फिर सोशल मीडिया, को किसी भी स्थिति में अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का इस्तेमाल करते समय ‘अपनी भाषा, मर्यादा संयम और किसी भी जांच में हस्तक्षेप के अंजाने प्रयास में’ अदृश्य सीमा रेखा नहीं लांघनी चाहिए. अन्यथा वह समय दूर नहीं है जब न्यायपालिका संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आ रही मीडिया के लिये विशेष परिस्थितियों या मामलों के संबंध में ‘कोई लक्ष्मण रेखा’ नहीं खींच दे.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
u have mentioned selected incidents? what about coverage of hathras rape case, rohit vemula sucide, ekhlaq lynching? i want justice for all but in these all cases as well media sensatialize news those days and they jus got succeeded to create conflict between different communities . u mentioned selective instances proves that u and print are also doing same behaviour y media should not do media trials