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Friday, 26 April, 2024
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बाबरी विध्वंस, 2जी स्पेक्ट्रम-संवेदनशील मामलों में सजा दिलाने में आज तक क्यों विफल रही है CBI

लालू हों या मुलायम या फिर बात करें बाबरी विध्वंस और 2 जी स्पैक्ट्रम की राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों में सीबीआई आरोपियों को सजा दिलाने में क्यों नहीं कामयाब होती है?

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देश की प्रीमियम एजेंसी केन्द्रीय जांच ब्यूरो की साख पर एक बार फिर बट्टा लग गया है. सवाल पूछा जा रहा है कि क्या वास्तव में राजनीतक दृष्टि से संवेदनशील मामलों की जांच की जिम्मेदारी मिलते ही तमाम आधुनिक तकनीक और संसाधनों से सुसज्जित इस एजेंसी के हाथ पांव फूलने लगते हैं. सवाल यह भी है कि राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों में सीबीआई आरोपियों को सजा दिलाने में क्यों नहीं कामयाब होती है? आखिर इसकी वजह क्या है? क्या यह एजेंसी अभी भी ‘पिंजरे में बंद तोते’ की हालत में है या वह स्वतंत्र होकर अपना काम करती है.

ये सवाल उठने की ताजी वजह राम जन्म भूमि मंदिर निर्माण आन्दोलन के दौरान कार सेवकों द्वारा अयोध्या में छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिराने घटना की आपराधिक साजिश के आरोप से पूर्व उपप्रधान मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा मुरली मनोहर जोशी सहित सभी 32 आरोपियों की रिहाई है.

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले की जांच में सीबीआई द्वारा शुरू में तेजी दिखाने के बाद अचानक आयी सुस्ती भी इस तरह के सवालों को जन्म दे रही है. हालांकि सीबीआई का यही कहना है कि जांच में प्रगति हो रही है.

अभी तक जांच और सिर्फ जांच का ही सिलसिला चल रहा है. जांच एजेंसी अभी इस निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंच पाई है कि यह आत्महत्या या हत्या का मामला है. जांच ब्यूरो ने अभी तक किसी को भी हिरासत में लेकर पूछताछ नहीं की है. स्थिति यह हो गयी है कि लोग सवाल उठा रहे हैं कि इस मामले में सीबीआई क्या कर रही है.


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सवालों के घेरे में सीबीआई

अयोध्या में बाबारी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन (सीबीआई) आरोपियों के खिलाफ आपराधिक साजिश के ठोस सबूत पेश करने में असफल रहा है और उसने ऐसा कोई ठोस साक्ष्य पेश नहीं किया जिसके आधार पर आपराधिक साजिश रचने के अपराध में आरोपियों को दोषी ठहराया जा सके.

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विशेष अदालत ने तो अपने सीबीआई की कार्यशैली पर टिप्पणी करते हुये यहां तक कहा कि इस एजेंसी ने विवादित रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद को नुकसान पहुंचा कर देश में सांप्रदायिक अशांति फैलाने के इरादे से पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी के लोगों के अयोध्या में प्रवेश के बारे में स्थानीय गुप्तचर इकाई की पांच दिसंबर, 1992 की रिपोर्ट में दी गयी महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी की भी जांच नहीं की.

इसी तरह, राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील 2जी स्पेक्ट्रम आबंटन घोटाले से संबंधित मामले का भी यही हश्र हुआ. सीबीआई ने जांच की और मामला विशेष अदालत में आया जिसने 17 दिसंबर, 2017 को ठोस सबूतों के अभाव में पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा और द्रमुक सांसद कणिमोई सहित सभी आरोपियों को बरी कर दिया. यही नहीं, अदालत ने सीबीआई की कार्यशैली और उसके विशेष लोकअभियोजक के रवैये पर भी तीखी टिप्पणियां की थीं. इस फैसले के खिलाफ सीबीआई और ईडी ने उच्च न्यायालय में अपील दायर कर रखी है.

अक्सर देखा गया है कि राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों की जांच को किसी मुकाम तक पहुंचाने में यह जांच एजेन्सी इतना ज्यादा वक्त लगाती है कि कई बार तो जनता भी इन्हें भूल चुकी होती है. राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों की जांच अगर न्यायालय के हस्तक्षेप से शुरू भी हो जाये तो इसके पूरा होने की कोई समय सीमा नहीं रह जाती है. किसी न किसी वजह से ऐसे मामलों की जांच लंबी खिंचती रहती है.

शायद यही वजह है कि पिछले साल अगस्त में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एक समारोह में सीबीआई को उसकी कार्यशैली को लेकर आईना दिखाने से गुरेज नहीं किया था. न्यायमूर्ति गोगोई ने सवाल किया था कि ऐसा क्या है कि जांच एजेंसी उन मामलों में शानदार काम करती है जिनमें राजनीतिक प्रभाव की संभावना नहीं होती है लेकिन राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों में यह एजेंसी न्यायिक समीक्षा के मानकों पर खरी नहीं उतरती है.


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 सीबीआई और राजनीतिक धौंस

अगर पिछले एक दशक की बात करें तो इस संबंध में सारदा चिट फंड घोटाला कांड, अगुस्ता वेस्टलैंड वीवीआईपी हेलीकाप्टर, व्यापन भर्ती घोटाला, उप्र का खाद्यान्न घोटाला और एनआरएचएम घोटाले जैसे मामलों का जिक्र किया जा सकता है. इनमें से भ्रष्टाचार के कई मामलों में सीबीआई की जांच सालों से चल रही है जो इस प्रतिष्ठित जांच एजेन्सी की कार्यशैली दर्शाने के लिये काफी है.

उत्तर प्रदेश में संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, अंत्योदय योजना और मध्याह्न भोजन के तहत वितरित होने वाले खाद्यान्न में अरबों रूपए के कथित घोटाले की जांच न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद 2010 से सीबीआई कर रही है. इसमें आरोप लगाया गया था कि गरीबी की रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के लिये केन्द्र सरकार की योजनाओं के तहत प्रदेश में आने वाले इस खाद्यान्न को खुले बाजार में बेचने के अलावा नेपाल, बांग्लादेश, दक्षिण अफ्रीका और भूटान जैसे देशों में गैर कानूनी से पहुंचा दिया गया.

इसी तरह, उप्र के परिवार कल्याण और स्वास्थ्य विभाग में हुये करोड़ों रूपए के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वाथ्य मिशन (एनआरएचएम) घोटाले की जांच का काम भी सीबीआई के पास है. सीबीआई ने पूर्व मुख्यमंत्री मायावती सहित तमाम लोगों से पूछताछ की थी. इस मामले में गाजियाबाद की विशेष अदालत में कई आरोप पत्र दाखिल हो चुके हैं.

यह घोटाला सामने आने के बाद कई लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी. इनमें अक्टूबर 2010 में मुख्य चिकित्सा अधिकारी विनोद कुमार आर्य और इसके बाद मुख्य चिकित्सा अधिकारी डा बीपी सिंह की सरेआम हत्या की घटना काफी चर्चित रही. उस समय आरोप लगाया कि उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी वाई एस सचान ने ये हत्यायें करायी हैं. सचान को गिरफ्तार किया गया लेकिन 22 जून, 2011 में जेल परिसर में ही उनकी हत्या कर दी गयी और इसे आत्महत्या दिखाने का प्रयास किया गया.

इनके अलावा, एसोसिएटेड जर्नल्स लि भूमि घोटाला, पंजाब नेशनल बैंक घोटाला, कोयला खदान आबंटन प्रकरण, मांस निर्यातक मोइन कुरैशी से संबंधित मामला और इसी सिलसिले में जांच एजेन्सी के तत्कालीन निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ जांच, जांच ब्यूरो के पूर्व विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों में दर्ज मामला, पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद से जुड़ा आईआरसीटीसी घोटाला, प्रमुख है.


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इनके अलावा, समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, उनके सांसद पुत्र पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और प्रतीक यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के आरोपों में सीबीआई की जांच जगजाहिर है. उच्चतम न्यायालय के आदेश पर जांच एजेन्सी शुरू करने वाली इस एजेन्सी ने 2013 में यह मामला बंद करने का फैसला किया. हालांकि इस मामले को सुर्खियों में लाने वाले कांग्रेस के कार्यकर्ता विश्वनाथ चतुर्वेदी को लगता है कि दाल में कुछ काला है.

कुछ यही स्थिति राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी को आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में बरी करने के विशेष अदालत के दिसंबर, 2006 के फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती नहीं देना और नीतीश सरकार द्वारा इस बारे में कदम उठाने पर इसके खिलाफ सीबीआई का उच्चतम न्यायालय जाना राजनीतिक दबाव में उसकी कार्यशैली को ही दर्शाता है.

पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित सारदा चिट फंड घोटाला 2013 में सुर्खियों में आया. न्यायालय के आदेश पर इसकी जांच सीबीआई ने अपने हाथ में ली. जांच एजेन्सी ने इसमें आरोप पत्र भी दायर किया है लेकिन वह कोलकाता के पूर्व पुलिस आयुक्त राजीव कुमार को हिरासत में लेकर पूछताछ नहीं कर सकी. हालांकि, न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद राजीव कुमार पूछताछ के लिये जांच ब्यूरो के समक्ष पेश हुये थे.

इसी तरह, सीबीआई ने आईएनएक्स मीडिया समूह को विदेशी निवेश की अनुमति देने संबंधी एक मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम को 21 अगस्त, 2019 को गिरफ्तार किया था. इस मामले का संबंध वित्त मंत्री के रूप में चिदंबरम के कार्यकाल में विदेशी निवेशन संवर्द्धन बोर्ड द्वारा इस समूह को दी गयी मंजूरी से है. इस मामले में सीबीआई ने चिदंबरम सहित 15 व्यक्तियों के खिलाफ पिछले साल अक्टूबर में आरोप पत्र दाखिल कर चुकी है.

एक और मामला है आईआरसीटीसी घोटाला. यह मामला राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री के कार्यकाल से संबंधित है जब आईआरसीटीसी के रांची और पुरी स्थित दो होटलों को निजी कंपनी सुजाता होटल प्रा लि को पट्टे पर दिया गया था. आरोप है कि इस मामले में लालू यादव के परिवार को रिश्वत के रूप में पटना के बेली रोड स्थित करीब तीन एकड़ का भूखंड मिला था. इस मामले में सीबीआई जुलाई 2017 से कार्रवाई कर रही है. इस प्रकरण में लालू प्रसाद और उनकी पत्नी राबड़ी देवी जमानत पर हैं.

इसी तरह, नेशनल हेराल्ड का प्रकाशन करने वाले एसोसिएटेड जर्नल्स लि भूमि घोटाला मामला भी सीबीआई के पास है. सीबीआई ने 2016 में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की थी. हुड्डा पर आरोप है कि उन्होंने 59 लाख रूपए की कीमत का सरकारी भूखंड गैरकानूनी तरीके से एजीएल को आबंटित किया.

इस जांच एजेन्सी की स्वायत्तता बनाये रखने और इसे राजनीतिक दखल से मुक्त रखने के प्रयास में उच्चतम न्यायालय ने भी समय समय पर आदेश दिये. लेकिन ऐसा लगता है कि इसके बावजूद स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है और वह अभी भी ‘पिंजरे में बंद तोते’ जैसी अवस्था में ही है.

ऐसी स्थिति में अगर देश की इस सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेन्सी को अपनी साख बचानी है तो उसे राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों में निडर होकर काम करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे मामलों में कम से कम निचली अदालत में तो आरोपी के खिलाफ आरोप साबित हों और उन्हें सजा हो.


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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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