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Thursday, 21 November, 2024
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केपी ओली नेपाल में भारत विरोधी लहर पर चले. अब उन्हें दिल्ली से कूटनीतिक लाइफलाइन की आस हैं

नेपाली प्रधानमंत्री अपने विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावाली की अपुष्ट दिल्ली यात्रा से देश में पैदा हुए संवैधानिक संकट के बीच अपनी कुर्सी बचाने के लिए दिल्ली से आस लगा रहे हैं.

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नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली ने पिछले तीन दिनों के भीतर दो बार घोषणा कर चुके हैं कि विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली नेपाल-भारत संयुक्त आयोग की बैठक के लिए 14 जनवरी 2021 को नई दिल्ली पहुंचेगे. और विदेश मंत्री ग्यावली बृहस्पतिवार को दिल्ली पहुंच भी गए.

के.पी. ओली ने पहली बार एक राजनीतिक रैली में प्रस्तावित दौरे की जानकारी दी और फिर नेपाली संसद के ऊपरी सदन नेशनल असेंबली, जहां उनका गुट अल्पमत में आ गया है, में ग्यावली की यात्रा के कार्यक्रम और एजेंडे को दोहराया.

हालांकि ये उनके खुद के संभावित दौरे को नई दिल्ली द्वारा अंतिम रूप दिए जाने की प्रत्याशा में की जा रही कवायद लगती है. यात्रा के बारे में ओली की एकतरफा घोषणा से पहले नेपाल और भारत दोनों के ही विदेश मंत्रालयों ने संयुक्त आयोग की बैठक के एजेंडे की पुष्टि नहीं की है.

ऐसा लगता है कि ग्यावली की उनके भारतीय समकक्ष एस. जयशंकर से संभावित बातचीत के बारे में ओली का उत्साह भारत में प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है. स्वदेश में राजनीतिक रूप से अलग-थलग हो चुके कार्यवाहक प्रधानमंत्री अपने स्वयं के बनाए संवैधानिक दलदल से खुद को निकालने के लिए नई दिल्ली से मैत्रीपूर्ण संकेत की उम्मीद कर रहे हैं.


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घरेलू बाध्यताएं

केपी ओली भारत विरोधी भावनाओं की लहर पर सवार होकर अक्टूबर 2015 में नेपाल के विवादास्पद संविधान के तहत देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने थे. उन्होंने अपनी अति-राष्ट्रवादी छवि को चमकाना जारी रखा और इसे कम्युनिस्ट गठबंधन के संसदीय दल के नेता के रूप में उभरने के लिए भुनाया. गठबंधन में उनकी मूल पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) शामिल हैं. फरवरी 2018 में ओली दूसरी बार प्रधानमंत्री बने.

अनेक बैठकों और गुपचुप वार्ताओं — कथित रूप से चीनी मध्यस्थों की मदद से — ओली मई 2018 में दो-तिहाई बहुमत के साथ सरकार के प्रमुख के रूप में उभरकर सामने आए, जब सीपीएन (यूएमएल) और सीपीएन (माओवादी सेंटर) ने परस्पर विलय कर नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) का गठन किया.

नेपाल के संविधान में प्रावधान है कि सरकार बनने के दो साल बाद तक उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता है. इस अवधि के समाप्त होने के बाद, ओली को डर था कि सत्तारूढ़ दल के ‘सह अध्यक्ष’, पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ उन्हें कुर्सी से बेदखल कर सकते हैं.

ओली ने अपने प्रतिद्वंद्वी को कमजोर करने की कोशिश की. उन्होंने राष्ट्रीय लॉकडाउन के बीच में छोटे राजनीतिक दलों को विभाजित करने के उद्देश्य से एक अध्यादेश जारी कराया था, लेकिन जब लक्षित पार्टियों ने आसन्न हमले से बचने के लिए परस्पर विलय कर लिया, तो अध्यादेश रद्द करना पड़ा.

अपने राजनीतिक वर्चस्व को आगे और चुनौती मिलने की आशंका को देखते हुए, ओली ने दिसंबर 2020 में संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि स्थिति पर उन्हीं का नियंत्रण है.

ओली के राजनीतिक विरोधी उनके इस कदम के लिए तैयार नहीं थे. प्रतिनिधि सभा को भंग किए जाने की संवैधानिकता के बारे में सर्वोच्च न्यायालय को फैसला करना है. और फैसले के विरोध में हुए प्रदर्शन जनता को आंदोलित करने में विफल रहे.

घरेलू रूप से, ओली पर फिलहाल कोई खतरा नज़र नहीं आता है. यदि सुप्रीम कोर्ट सदन को बहाल करने का फैसला करता है, तो भी उनके पास एकाधिक विपक्षी दलों की मदद से सरकार में बने रहने का विकल्प है. यदि नए चुनाव कराने के निर्णय को सही ठहराया जाता है, तो भी वह उसे तब तक टालने की स्थिति में होंगे, जब तक कि सत्ता के सहारे खुद के लिए एक दुर्जेय चुनावी मशीनरी ना तैयार कर लें.

ओली को अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए भारतीय खुला समर्थन न भी मिले तो कम से कम मौन सहमति की दरकार है. और वह नई दिल्ली के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने के लिए इस समय किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखते हैं.

बाहरी आयाम

सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी शी जिनपिंग के चिंतन के प्रति वचनबद्ध दिखती है. चीनी राजदूत होउ यांक़ी के लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेपाली बंधु संगठन को एकजुट रखने की पूरी कोशिश करना स्वाभाविक था. यांक़ी के प्रयास विफल होने के बाद बीजिंग ने बिखराव रोकने के लिए तीन सदस्यीय टीम भेजी थी.

काठमांडू में ये अफवाह आम है कि चीन ने एनसीपी को आत्मविनाश से बचाने की उम्मीद नहीं छोड़ी है. संसद को अचानक भंग करने के फैसले ने बीजिंग की नजर में ओली की अहमियत कम कर दी है, जो चाहता था कि पार्टी की एकता के खातिर वह सरकार से हट जाएं. नई दिल्ली का कूटनीतिक समर्थन ही ओली को राजनीतिक दलदल से बाहर निकाल सकता है.

अपनी राष्ट्रवादी साख को स्थापित करने के उद्देश्य से पर्याप्त भारत-विरोधी दिखने के लिए, केपी ओली ने एक विवादित क्षेत्र को नेपाल के आधिकारिक मानचित्र में शामिल करने के लिए संविधान में संशोधन तक कराया था. राष्ट्रवादी जुनून में उन्होंने भारतीय आदर्श वाक्य का ‘सिंहदेव जयते’ के रूप में उपहास किया, असली अयोध्या के नेपाल में होने का दावा किया, और कोरोनोवायरस के भारतीय स्ट्रेन को ‘अधिक घातक’ बताया.

एक बार पार्टी का अंदरुनी झगड़ा संभलते ही ओली ने भारत के साथ मेल-मिलाप का प्रयास शुरू कर दिया और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख सामंत गोयल को बातचीत के लिए काठमांडू आमंत्रित किया. फिर भारतीय सेना प्रमुख एम.एम. नरवणे काठमांडू पहुंचे जिन्हें नेपाली सेना के मानद जनरल का सम्मान दिया गया. विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला अगले हाईप्रोफाइल भारतीय मेहमान थे. लेकिन तनावपूर्ण संबंधों को सामान्य करने के लिए, दोनों ओर से ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता होगी.

ओली ने कहा है कि नई दिल्ली में होने वाली वार्ता में सीमा मुद्दे पर भी बातचीत होगी. हालांकि इस बात की कम ही संभावना है कि भारतीय पक्ष ऐसे अहम मामले पर कार्यवाहक सरकार के साथ बातचीत करने के लिए तैयार होगा. आधिकारिक एजेंडा अभी भी अनिश्चित होने के कारण संभावित मुद्दों के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं. कोविड-19 वैक्सीन को लेकर कोई समझौता संभव है, जिसे सरकार अपनी सफलता के रूप में दिखा सकती है.

भारत कोसी हाई डैम का मुद्दा उठा सकता है. वहीं नेपाल द्विपक्षीय एमिनेंट पर्संस ग्रुप की रिपोर्ट के भविष्य पर चर्चा कर सकता है. भारतीय पक्ष शायद गोरखा भर्ती समझौते पर नेपाल की आधिकारिक स्थिति जानना चाहे, जिसे विदेश मंत्री ग्यावली पूर्व में निरर्थक करार दे चुके हैं.

ग्यावली की यात्रा का अघोषित उद्देश्य नई दिल्ली से प्रधानमंत्री ओली के दौरे के लिए निमंत्रण प्राप्त करना प्रतीत होता है. अपनी गर्जना के बावजूद, चतुर प्रधानमंत्री को इस बात का अहसास हो चुका है कि सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें नई दिल्ली के आशीर्वाद की ज़रूरत है. हालांकि यदि ऐसा नहीं हुआ, तो उनके पास अपने पतन के लिए ‘भारत की चाल’ को दोष देते हुए अपनी राष्ट्रवादी पहचान को कायम रखने का विकल्प मौजूद है.

कोई आश्चर्य नहीं कि केपी ओली नई दिल्ली के साथ दिली बातचीत के लिए इतने आतुर हैं. यदि रॉ कोई चौंकाने वाली पहल नहीं करे, तो उनके लिए स्थिति ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ वाली प्रतीत होती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(सीके लाल एक स्तंभकार, टिप्पणीकार और नाटककार है. आप कला, प्रकाशन उद्योग, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, समाज, राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर लिखते रहते हैं. व्यक्त विचार निजी है.) 


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