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Sunday, 5 May, 2024
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भारत की चिंता ओली का संसद के प्रति अविश्वास नहीं, नेपाल में चीन की दखल है

नेपाल की जमीनी हकीकत तीन अहम पहलू सामने रखती है जिसका नई दिल्ली को किसी भी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करने से पहले सावधानीपूर्वक आकलन करना चाहिए.

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संकट में घिरे नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने एक बार फिर अपने विरोधियों को पटखनी दे दी है. अविश्वास प्रस्ताव लाने की पार्टी के असंतुष्टों की कोशिश नाकाम करने के लिए ओली की तरफ से जल्दबाजी में बुलाई गई बैठक में कैबिनेट ने नेपाली संसद के निचले सदन को भंग करने और उपयुक्त तारीख पर नए चुनाव कराने के फैसले पर मुहर लगा दी. नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने भी कैबिनेट का फैसला स्वीकार कर लिया है और दो चरणों, 30 अप्रैल और 10 मई 2021, में चुनाव कराना तय हो गया है.

नेपाल की जमीनी हकीकत तीन अहम पहलू सामने रखती है जिसका नई दिल्ली को किसी भी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करने से पहले सावधानीपूर्वक आकलन करना चाहिए.

भारत को क्या ध्यान रखना चाहिए

पहला तो यह कि के.पी. ओली के कामकाज में चीन किस हद तक अनैतिक राजनीतिक हस्तक्षेप कर रहा है. यह किसी से भी छिपा नहीं है कि नेपाली माओवादियों का चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है और ओली सरकार ने बीजिंग में बैठे आकाओं के इशारे पर कई ऐसे फैसले लिए हैं, जो भारत के लिए रणनीतिक और सुरक्षा की दृष्टि से नुकसानदेह होंगे.

दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि मौजूदा संकट में राजनीतिक विकल्प या तो कमजोर है या फिर है ही नहीं. यदि नेपाली कांग्रेस को देश की राजनीति में एक विकल्प के रूप में उभरना है तो उसे एकजुट होकर और ज्यादा तेजी से काम करना होगा. दुर्भाग्यवश, जब नए नक्शे का मुद्दा सामने आया तो नेपाली कांग्रेस ने भी ओली सरकार का समर्थन किया था. लेकिन गनीमत रही कि यह एकजुटता यहीं तक सीमित रही. राजशाही के दिनों में राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) एक मजबूत ताकत हुआ करती थी, लेकिन अब उसे कोई लोकप्रियता हासिल नहीं रह गई है.

तीसरा दिलचस्प पहलू जो हाल के दिनों में सामने आया है वो यह कि कम्युनिस्टों के एक तबके को समझ आने लगा है कि नई दिल्ली और बीजिंग से समान दूरी बनाकर रखने की जरूरत है कि न कि चीन की तरफ झुकाव रखने की. यह समूह अभी छोटा हो सकता है लेकिन निश्चित तौर पर महत्वहीन नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई जैसे नेता भारत के प्रति झुकाव की अहमियत समझते हैं और किसी भी तरह दोनों देशों के बीच लंबे समय से जारी द्विपक्षीय मित्रता को खतरे में डालने के पक्ष में नहीं रहे हैं.

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कम्युनिस्ट दो-फाड़

यद्यपि नई दिल्ली को किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में दखल न करने की अपनी नीति को जारी रखना होगा, लेकिन चीन जिस हद तक और जिस गुपचुप तरीके से नेपाल की राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है, उसकी अनदेखी हम सिर्फ अपने जोखिम पर ही कर सकते हैं. ओली सरकार ने समर्थन हासिल रखने के लिए कुछ मुद्दे उठाए जरूर लेकिन भारत की सुरक्षा चिंताओं के बारे में बहुत कम या फिर एकदम न के बराबर ध्यान दिया. काठमांडू की ओर से व्यवस्था में कुछ मामूली परिवर्तन नुकसान की भरपाई के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते हैं. सब कुछ ठीक करने के लिए नई दिल्ली को नेपाल के साथ हर स्तर पर अपनी नजदीकी को बढ़ाना होगा.

इस सबके बीच, कम्युनिस्ट पार्टी के कई सदस्य राष्ट्रपति का आदेश रद्द कराने और संसद की बहाली के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए हैं. न्यायालय संभवत: संविधान के अनुरूप काम करेगा और अप्रैल/मई 2021 में चुनाव बाद एक नई सरकार के गठन की अनुमति देगा. इसके साथ ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन साफ हो गया है.

पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड और माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व वाले समूह ने एक विशेष बैठक बुलाई और ओली को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर माधव कुमार नेपाल को अपना नेता चुन लिया. उन्होंने संसद के निचले सदन की पुनर्बहाली का प्रस्ताव भी पारित किया. हालांकि, ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि नेपाली संविधान में भंग संसद को फिर बहाल करने का कोई प्रावधान नहीं है. उन्होंने इसके पीछे 2006 के घटनाक्रम की मिसाल दी लेकिन लेकिन उस समय सभी राजनीतिक दलों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया था.

एक संकटपूर्ण इतिहास

नेपाल का इतिहास कई बार खुद को दोहराता नजर आता है. 2001 में शाही महल में हुआ नरसंहार, जिसमें उस समय नेपाल नरेश रहे बीरेंद्र और उनके परिवार के नौ सदस्य मारे गए थे, 1846 के कुख्यात ‘कोट नरसंहार’ की तरह ही था. पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला, जो उस समय बहुमत की सरकार चला रहे थे, ने 1994 में यह कहते हुए संसद भंग कर दी थी कि उनकी पार्टी नेपाली कांग्रेस ‘(उनकी) नीतियों और कार्यक्रमों का समर्थन नहीं कर रही.’ नेपाली कांग्रेस के दो दिग्गज नेताओं के.पी. भट्टराई और गणेश मान सिंह ने कोइराला के नेतृत्व को चुनौती दी और भंग संसद को फिर से बहाल करने की मांग की लेकिन उच्चतम न्यायालय ने यह अनुमति नहीं दी. कोइराला चुनाव हार गए.

1994 में चुनाव बाद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यूएमएल) के गठबंधन की सरकार बनी जिसका नेतृत्व बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन अधिकारी ने किया. उन्होंने भी 1995 में यह कहते हुए संसद भंग कर दी कि उनकी पार्टी और गठबंधन के सहयोगी उनकी नीतियों का समर्थन नहीं करते हैं, चुनाव का ऐलान किया और उसमें हार गए. अगले 15 साल अल्पकालिक सरकारों, शाही महल की दखलंदाजी और दहल के नेतृत्व में एक भयावह माओवादी विद्रोह, जब तक अपनी ‘सेना’ भंग कर वह राजनीति की मुख्यधारा में शामिल नहीं हुए, के गवाह बने. कामकाज और वैचारिक स्तर पर अंतर्निहित विरोधाभासों को देखते हुए के.पी. ओली का समर्थन करने वाले विभिन्न कम्युनिस्ट घटकों की गठबंधन सरकार बहुत लंबे समय तक चलने की उम्मीद की भी नहीं जा रही थी.

अजब संयोग है कि के.पी. ओली भी बहुमत सरकार का नेतृत्व कर रहे थे और उन्होंने यह कहते हुए सदन भंग किया है कि पार्टी नेताओं का समर्थन नहीं मिल रहा था. सुप्रीम कोर्ट में इतिहास दोहराए जाने के पूरे आसार हैं और ऐसे में लगता है कि मतदाता भी कम्युनिस्टों को नकार देंगे. लेकिन यह तो समय ही बताएगा कि किस पार्टी और किस पड़ोसी को फायदा होगा.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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