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Friday, 22 November, 2024
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पुलिस और वकील में परस्पर अविश्वास आम बात है, पर छापे नहीं. महमूद प्राचा को उनके मुवक्किलों की वजह से निशाना बनाया गया है

अपनी अक्षमता और दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई की पोल खुलने की आशंका से परेशान दिल्ली पुलिस ने वकील महमूद प्राचा के खिलाफ घटिया और अवैध तरीके से प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की है.

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भारत में वकीलों और पुलिस के बीच हमेशा से ही परस्पर विरोध वाला रिश्ता रहा है. मैं शीर्ष स्तर के उन वरिष्ठ अधिवक्ताओं और आईपीएस अधिकारियों की बात नहीं कर रहा, जिनके बीच समान जाति और समान पृष्ठभूमि के कारण हमेशा मधुर संबंध रहे हैं. बल्कि ये आम पुलिसकर्मी और कानून से जुड़े पेशेवर हैं, जो एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, और इस बात पर पक्का यकीन करते हैं कि चोगे/वर्दी में दूसरा वर्ग दरअसल लुटेरा है. कहने की ज़रूरत नहीं कि इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए दोनों ही वर्गों के पास बहुत सारी वजहें रही होंगी. हालांकि, जब पुलिस किसी वकील विशेष को निशाना बनाती है तो लगभग हमेशा ऐसा उसके मुवक्किल के कारण होता है.

एडवोकेट महमूद प्राचा को डराने-धमकाने की दिल्ली पुलिस की लगभग खुली कोशिश को घटियापन की पराकाष्ठा करार देना गलत नहीं होगा. आखिर ये सब 2020 के दिल्ली दंगों के मुस्लिम पीड़ितों के मामलों समेत हाईप्रोफाइल केस लड़ने वाले एक प्रमुख वकील के साथ राष्ट्रीय राजधानी के बीचोबीच निज़ामुद्दीन ईस्ट इलाके में हुआ है. ‘अलोकप्रिय’ अभियुक्तों के केस लड़ने वाले वकीलों की मुसीबतों से परिचित लोगों को इस बात में कोई आश्चर्य नहीं दिखेगा. पुलिस ने उनके परिसर की तलाशी के लिए एक जज से वारंट निकलवाकर अपनी कार्रवाई को कुछ हद तक वैधता प्रदान करने की जहमत भी उठाई, जिसे पुलिसिया रवैये में सुधार के तौर पर देखा जा सकता है. आदिवासियों के अधिकारों की हिमायत करने वाली वकील-कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज भीमा कोरेगांव मामले में बनावटी आरोपों में दो साल से अधिक समय से जेल में हैं. शाहिद आज़मी की 2010 में गोली मारकर हत्या कर दी गई और अभी तक किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है. दिवंगत केजी कन्नबीरन की पुलिस ने बारंबार पिटाई की थी. इन वकीलों के साथ ये सब उनके द्वारा अपने पेशेवर, कानूनी, संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य निभाने के कारण हुआ.


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प्राचा बनाम पुलिस

दिल्ली पुलिस हमें विश्वास दिलाना चाहती है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के प्रदर्शनकारियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यात्रा से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए फरवरी में पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए दंगों की ‘साजिश’ की थी. मुख्यतया ‘गुप्त स्रोतों’ पर आधारित कुख्यात एफआईआर 59/2020 का इस्तेमाल विभिन्न आरोपियों को जमानत देने से वंचित करने के लिए किया गया है, जिनमें से कई का प्रतिनिधित्व महमूद प्राचा कर रहे हैं, जिन्होंने लगातार दोषपूर्ण जांच की बात उजागर करने और पुलिस के दावों की पोल खोलने का काम किया है. यदि यह मामला नाकाम साबित होता है (17,000 पन्नों की चार्जशीट के बावजूद), तो दिल्ली पुलिस और गृह मंत्रालय की खूब भद्द पिटेगी. दंगा मामले से पहले भी, प्राचा सीएए विरोधी प्रदर्शनों में हिस्सा लेने के लिए गिरफ्तार भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ का प्रतिनिधित्व कर उन्हें ज़मानत दिला चुके हैं.

अपनी अक्षमता और दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई की पोल खुलने की आशंका से चिंतित, दिल्ली पुलिस ने अपनी प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के लिए यह घटिया और अवैध तरीका चुना है.

दिल्ली पुलिस ने जालसाजी, धोखाधड़ी, फर्जीवाड़े आदि से संबंधित कथित आरोपों में अपनी ‘स्पेशल सेल’ द्वारा दर्ज एफआईआर (212/20) के संबंध में प्राचा के कार्यालय पर छापेमारी के लिए एक जज द्वारा जारी तलाशी वारंट को अपना कानूनी ढाल बनाया है. खुद दिल्ली पुलिस के वेब पोर्टल पर प्राथमिकी अपलोड नहीं की गई है, क्योंकि पुलिस शायद उसे ‘संवेदनशील’ मानती है. और इसलिए, यह स्पष्ट नहीं है कि आरोपी कौन हैं और वे किन आपराधिक कार्यों में लिप्त रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि एफआईआर में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि विभिन्न आरोपों के लिए प्राचा भी आरोपियों या साजिशकर्ताओं में शामिल हैं. किसी आपराधिक मामले में उन लोगों से भी साक्ष्य जुटाए जा सकते हैं जो कि आरोपी नहीं हैं, लेकिन साक्ष्य अधिनियम, 1872 में इस बात का निर्धारण किया गया है कि किस तरह के साक्ष्यों को अदालत में ‘सबूत’ के तौर पर पेश किया जा सकता है.

विशेष रूप से, एक वकील और उसके मुवक्किल के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान को साक्ष्य अधिनियम की धारा 126 के तहत ’विशेषाधिकार’ का दर्जा प्राप्त है, और इसे मुवक्किल की सहमति के बिना अदालत में सबूत के रूप में पेश नहीं किया जा सकता है. यह न केवल आपराधिक मामलों और आरोपियों पर बल्कि एक वकील और उसके मुवक्किल के बीच के तमाम संवाद पर लागू होता है. इसलिए, जब तक कि दिल्ली पुलिस यह आरोप नहीं लगाती है कि वास्तव में अपराध को अंजाम देने में प्राचा का हाथ था, तब तक उनके द्वारा जुटाई गई कोई भी सामग्री, अदालत में स्वीकार्य नहीं होगी. अस्पष्ट एफआईआर, जुटाई जा रही सामग्रियों की व्यापक प्रकृति, और ऐसे साक्ष्यों को अदालत द्वारा निर्रथक करार देने वाले स्पष्ट कानूनी अवरोधों के मद्देनज़र यही लगता है कि प्राथमिकी और वारंट संभवत: दिल्ली दंगों से जुड़े मामलों में सक्रियता को लेकर प्राचा को डराने-धमकाने की कार्रवाई को कानूनी जामा पहनाने के अधकचरे प्रयास का हिस्सा भर हैं.

परिस्थितिजन्य न्याय

भारत में पुलिसकर्मी जानते हैं कि उन्हें अपने गैरकानूनी कार्यों के नहीं के बराबर परिणाम भुगतने पड़ेंगे, बशर्ते वो सत्तारूढ़ वर्ग के आदेशों का पालन कर रहे हों. तमिलनाडु के थूथुकुडी में पिता-पुत्र जयराज और बेनिक्स की हिरासत में हत्या करने वाले पुलिस अधिकारियों पर अदालत में आरोप तय किए गए हैं, लेकिन हैदराबाद में बलात्कार के चार आरोपियों की हत्या करने वाले अधिकारियों के खिलाफ ऐसा नहीं होगा, भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मुठभेड़ हत्या मामले की ‘निष्पक्ष जांच’ का आदेश देते हुए छह महीने में रिपोर्ट मांगी हो. ये दिसंबर 2019 की बात है.

गुजरात कैडर के पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट ने अपने पूर्व राजनीतिक आकाओं नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ जाने की भारी राजनीतिक भूल की, और अंतत: उन्हें अपने गैरकानूनी कार्यों के परिणाम भुगतने पड़े. हाशिमपुरा नरसंहार के जिम्मेवार पुलिसिया अपराधियों को दोषी ठहराए जाने में 30 साल से अधिक का समय लगा – जिस दौरान कई सरकारें आई-गईं और मुकदमा उत्तर प्रदेश से बाहर स्थानांतरित करना पड़ा.

इस साल के हिट अमेज़न प्राइम वीडियो सिरीज़ पाताल लोक के रूपकों का उपयोग करें, तो महमूद प्राचा धरती लोक के दुर्लभ निवासियों में से एक हैं, जिन्होंने पाताल लोक के ‘बाशिंदों’ की मदद करने का प्रयास करके भारत की ‘सहज’ सामाजिक व्यवस्था को छेड़ने का काम किया है. इस ‘सहज’ व्यवस्था में, आपराधिक न्याय प्रणाली का उपयोग भारत के प्रदर्शनकारी मुसलमानों को उनकी औकात में रखने के लिए किए जाने की अपेक्षा की जाती है. इसका इस्तेमाल घटनाओं की सच्चाई और हिंसा रोकने में पुलिस की अक्षमता को उजागर करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि प्राचा ने बखूबी और सफलतापूर्वक किया. इसलिए उनके दफ्तर पर छापा भी, एक प्रतिशोधी और कुंठित पुलिस बल द्वारा की गई बदले की कार्रवाई है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(आलोक प्रसन्ना कुमार विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी, कर्नाटक के सह-संस्थापक और लीड हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)


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