किसानों का आंदोलन 2017 में जब राष्ट्रीय मंच पर उभरा था तो कई राजनीतिक दलों ने उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित की थी. यही बात हालिया घटनाक्रम में भी दिखी जब विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री किसानों के मुद्दों पर खुलेआम झगड़ते नज़र आए. पंजाब और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सहयोगी दलों ने किसानों के मुद्दों पर सत्तारूढ़ गठबंधन से अपने संबंध तोड़ लिए हैं या तोड़ने के लिए तैयार हैं. यहां तक कि पूर्व में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में किसानों के खिलाफ निर्मम व्यवहार करने वाली भाजपा ने भी अपना रवैया बदल लिया है. गृह मत्री अमित शाह और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर अप्रत्याशित रूप से किसानों तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं.
इसके बावजूद किसान नेता आश्वस्त नहीं हैं और उन्होंने राजनीतिक दलों का समर्थन लेने से परहेज किया है. उन्होंने अमित शाह के प्रस्ताव को और कृषि मंत्री द्वारा विभिन्न पेशकशों को खारिज कर दिया है. कई किसान संगठनों ने दिल्ली में सरकार द्वारा निर्धारित प्रदर्शन स्थल में जाने से इनकार कर दिया और इसकी बजाय उन्होंने दिल्ली-हरियाणा और दिल्ली-उत्तर प्रदेश सीमा को बाधित किए रखने का फैसला किया है. विपक्ष द्वारा किसानों को बरगलाए जाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आरोपों के विपरीत मीडिया रिपोर्टों में किसानों द्वारा अपने विरोध प्रदर्शनों में विपक्षी दलों की भागीदारी पर आपत्ति जताने की बात सामने आई है.
राजनीतिक रूप से कमजोर और आर्थिक समस्याओं से दो-चार होने के बावजूद किसानों द्वारा राजनीतिक समर्थन को खारिज किए जाने से विगत वर्षों में राजनीतिक नेताओं के निरंतर विश्वासघात से निर्मित गहरे संदेह की स्थिति का संकेत मिलता है. राजनीतिक दल चुनावों के दौरान झूठे वादे करते हैं और विरोध प्रदर्शन शुरू होने पर समर्थन जताते हैं, लेकिन वे किसानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं देते हैं.
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कैसे राजनीतिक दलों ने किसानों को निराश किया
भारत में कृषि संकट तीन दशकों से भी अधिक समय से बरकरार है, और देश की श्रमशक्ति का लगभग 50 प्रतिशत आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, इसके बावजूद राजनीतिक दलों ने संसद में किसानों के मुद्दे उठाने में बहुत कम रुचि दिखाई है. लोकसभा में पूछे गए प्रश्नों पर सलोनी भोगले द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार 1999 से 2019 (13वीं से 16वीं लोकसभा) के बीच सदन में पूछे गए कुल 2,98,292 प्रश्नों में से मात्र 5 फीसदी (14,969) ही सीधे किसानों से संबंधित थे. इन्हीं आंकड़ों को पार्टियों के आधार पर देखने पर पता चलता है उपरोक्त अवधि में 10-10 साल के लिए सत्तासीन रही दो पार्टियां (भाजपा और कांग्रेस) किसानों के मुद्दों को विधायी एजेंडे में शामिल करने में नाकाम रहीं. विगत 20 वर्षों के दौरान सदन में किसानों से संबंधित सवालों में भाजपा और कांग्रेस का योगदान क्रमश: 5.6 प्रतिशत और 4.8 प्रतिशत का रहा है.
किसानों के मुद्दों में रुचि का अभाव इसलिए विशेष रूप से भयावह है क्योंकि अधिकांश प्रमुख राजनीतिक दल चुनावों में किसानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं. वे अपनी चुनावी रैलियों में किसानों के लिए वादे करते हैं और घोषणापत्रों में उनसे संबंधित योजनाओं को शामिल करते हैं. इसके अलावा, लगभग सभी प्रमुख दलों की अपनी किसान शाखाएं हैं, उदाहरण के लिए, भाजपा का किसान मोर्चा और भारतीय किसान संघ (आरएसएस का हिस्सा), और कांग्रेस की किसान कांग्रेस. फिर भी, ये राजनीतिक दल किसानों के मुद्दों को उठाने में विफल रहे हैं, उनकी समस्याओं का व्यापक समाधान करना तो दूर की बात है. राजनीतिक दलों, विशेष रूप से भाजपा द्वारा किसानों पर हक जताना और उनका फायदा उठाना, एक बड़ी समस्या का द्योतक है जिसके बारे में संविधान सभा के सदस्य महावीर त्यागी ने 1948 में आशंका जताई थी: ‘हमने ग्रामीणों को केवल वोट का अधिकार दिया है. और ये भी हमने उनसे हर पांच साल बाद वापस लेने के लिए दिया है…’
भरोसे का संकट
सिर्फ किसानों के विरोध प्रदर्शनों के दौरान एकजुटता दिखाने की राजनीतिक दलों की अवसरवादी प्रवृत्ति ने किसानों के मन में उनकी विश्वसनीयता को कम किया है, खासकर इसलिए कि वे शायद ही कभी किसानों के मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से विरोध करते हैं. जनवरी 2016 और अगस्त 2019 के बीच, नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन की अनुमति के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा 377 अर्जियां दी गई थीं. इनमें से केवल 12 किसानों के मुद्दों पर थे. इन 377 अर्जियों में से 110 कांग्रेस की थीं लेकिन केवल पांच बार उनके एजेंडे में किसानों से संबंधित मुद्दे थे. इसी तरह, भाजपा ने 63 बार आवेदन किया था और केवल चार बार उसके एजेंडे में किसानों के मुद्दे थे. इसके विपरीत, उपरोक्त अवधि में किसान संगठनों ने जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए 225 बार अर्जी डाली थी, जो कि भारत के कृषि संकट की गंभीरता को रेखांकित करता है.
राजनीतिक नेताओं के झूठे वादों और एकजुटता के मतलबी दिखावे से बार-बार छले जाने के बाद, किसानों में अविश्वास की भावना और उनके नेताओं के मन में राजनीतिक दलों से सहयोग को लेकर डर भर गया है. किसानों द्वारा सरकार के प्रस्तावों और विपक्ष के समर्थन को ठुकराया जाना धोखा खाने के इसी भाव को दर्शाता है और उनसे जवाबदेही की मांग करता है. भविष्य के लिए, राजनीतिक दलों को इस केंद्रीय प्रश्न को संबोधित करने की आवश्यकता है कि किसानों के साथ एकजुटता का दावा करते वक्त वे किसका प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं, और वे इन किसानों के लिए क्या कुछ करने को तैयार हैं?
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(लेखक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सांता बारबरा में पीएचडी के छात्र हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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