भारतीय रिजर्व बैंक के एक कार्यदल ने कॉर्पोरेट घरानों को भारत में बैंक खोलने की इजाजत देने का प्रस्ताव किया है. यह जोखिम से भरा हुआ कदम है. निगरानी और नियमन के मामले में रिजर्व बैंक का जो कमजोर रिकॉर्ड रहा है उसे देखते हुए क्या यह भरोसा किया जा सकता है कि केंद्रीय बैंक इन बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्जों, खासकर सहयोगी कंपनियों को दिए जाने वाले कर्जों पर निगरानी रखने की अपनी क्षमता अचानक बढ़ा लेगा? विफल हुए बैंकों के बोझ को अक्सर सरकारी बैंकों द्वारा किए गए सौदों पर डाल दिया जाता है, जिसके लिए पूंजी के तौर पर करदाताओं के पैसे का उपयोग किया जाता है.
उपरोक्त प्रस्ताव पर विचार करने से पहले रिजर्व बैंक और सरकार को सबसे पहले कदम के तौर पर बैंकिंग की निगरानी के लिए नियंत्रण तथा संतुलन की अतिरिक्त व्यवस्था बनानी चाहिए. यह अमेरिकी फेडरल डिपॉजिट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन की तर्ज़ पर एक समाधान प्राधिकरण के रूप में एक अतिरिक्त निगरानी व्यवस्था का गठन करके किया जा सकता है. इसके लिए ‘फाइनांशियल रिजोल्यूशन ऐंड डिपॉजिट इंश्योरेंस’ विधेयक का संशोधित रूप पेश करने की जरूरत पड़ेगी.
रिजर्व बैंक की संयुक्त निगरानी क्षमता और प्रस्तावित समाधान प्राधिकरण जब तक अपना मजबूत रेकॉर्ड न साबित करे और विफल होने की रास्ते पर बढ़ रहे बैंकों की पहचान न करे तब तक बैंकिंग सेक्टर में कॉर्पोरेट घरानों को कदम रखने की इजाज़त देने से परहेज किया जाए.
रिजर्व बैंक की कमजोर निगरानी क्षमता
पिछले दो वर्षों में आइएल ऐंड एफएस, डीएचएफएल, यस बैंक, और पंजाब तथा महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक अपनी कमजोर वित्तीय स्थिति के कारण धराशायी हुए हैं. इस सूची में नया नाम लक्ष्मी विलास बैंक का जुड़ गया है, जिस पर हाल में प्रतिबंध लगाया गया और फिर डीबीएस बैंक में उसका विलय कर दिया गया. रिजर्व बैंक की कमजोरियों को देख चुके रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन और डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य सरीखे कुछ लोगों ने इसको लेकर चिंताएं जताई हैं.
इन लोगों का कहना है कि कॉर्पोरेट घरानों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश करने की इजाजत देने के प्रस्ताव से आर्थिक सत्ता का केन्द्रीकरण होगा और यह खराब कर्जों की समस्या को और गंभीर बनाएगा क्योंकि बैंकों में पैसे जमा करने वालों का पैसा बड़े कॉर्पोरेट घरानों के संगठनों के खाते में पहुंचाने की छूट मिल जाएगी. इससे बुरी तरह कर्ज में डूबे और ऊंची राजनीतिक पहुंच वाले व्यावसायिक घरानों को बैंक के लाइसेन्स हासिल करने की प्रेरणा मिलेगी. ऐसे बैंकों की विफलता सरकारी खजाने पर भारी बोझ डालेगी. बड़े घरानों को पहले गैर-बैंकिंग वित्त फ़र्में बनाने और बाद में उन्हें बैंकों में बदलने की अनुमति दी जा सकती है.
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हाल में कई बैंकों के विफल होने के मामले यही जाहिर करते हैं कि रिजर्व बैंक की निगरानी क्षमता को लेकर शंकाएं बेजा नहीं हैं. रिजर्व बैंक बैंकों के कर्ज के पोर्टफोलियो में बदलावों और जोखिम में वृद्धि का अंदाजा नहीं लगा सका. संकटग्रस्त बैंकों के मामलों में एक समानता यह थी कि रिजर्व बैंक ने बुरे कर्जों की समस्या को लंबे समय तक जारी रहने दिया. ये बैंक खराब कर्जों का अनुपात बढ़ने की समस्या को छिपाने के लिए कर्जों का ‘नवीकरण’ करते रहे.
मौजूदा व्यवस्था पर्याप्त नहीं
फिलहाल कॉर्पोरेट मामलों के संचालन, और ‘प्रॉम्प्ट करेक्टिव ऐक्शन’ यानी त्वरित सुधार कार्रवाई (‘पीसीए’) की जो व्यवस्था है वह गंभीर समस्याओं से नहीं निबट सकती है. नीरव मोदी और चंदा कोचर के घोटालों जैसे कई मामले यही जाहिर करते हैं कि सिर्फ क़ानूनों में संशोधन, और इनसे मिले अधिकारों के तहत रेगुलेटर द्वारा सर्कुलर और दिशानिर्देश जारी करना सक्रिय निगरानी रखने और वक़्त से पहले कार्रवाई करने का विकल्प नहीं हो सकते.
बैंकों को ‘पीसीए’ ढांचे के अंतर्गत लाने की मौजूदा व्यवस्था कमजोर बैंकों को मजबूत नहीं बना पाती. उदाहरण के लिए, लक्ष्मी विलास बैंक को सितंबर 2019 में ‘पीसीए’ के अंतर्गत रखा गया था लेकिन इससे उसकी वित्तीय स्थिति में खास सुधार नहीं हुआ.
निगरानी में ढील का खामियाजा बचतकर्ताओं और जमाकर्ताओं को भुगतना पड़ता है, उनके लिए अपनी मेहनत की कमाई का लाभ उठाना मुश्किल हो जाता है. समाधान की व्यवस्था और कानून के अभाव का अर्थ यह है कि अगर बैंक विफल होते हैं और स्टेट बैंक या जीवन बीमा निगम से ऐसे बैंकों के शेयर खरीदने के लिए कहा जाता है तो इसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नतीजा करदाताओं को ही भुगतना पड़ता है. अगर किसी कॉर्पोरेट घराने का बैंक विफल होता है और किसी सरकारी बैंक से उसके शेयर खरीदने के लिए कहा जाता है तो इसका सीधा मतलब यही हुआ कि कॉर्पोरेट कर्जों के भुगतान के लिए करदाताओं की जेब काटी जाएगी.
बड़े घरानों द्वारा स्थापित बैंक अगर विफल होते हैं तो वे पूरी वित्त व्यवस्था पर नकारात्मक असर डालेंगे. कंपनियों के दिवालिया होने पर बड़े औद्योगिक घरानों के स्वामित्व वाले बैंकों में खराब कर्जों का अनुपात बढ़ सकता है. आंतरिक संबंधों की समय-समय पर निगरानी की जरूरत है. उदाहरण के लिए, अमेरिका में 2010 के ‘डॉड्ड फ्रैंक एक्ट’ के कारण ‘फाइनांशियल स्टेबिलिटी ऐंड ओवरसाइट काउंसिल’ (एफएसओसी) का गठन हुआ, जिसमें सरकारी खजाने और वित्त क्षेत्र के रेगुलेटर शामिल किए गए. एफएसओसी को वित्तीय स्थिरता और पूरी व्यवस्था के लिए उभरने वाले संकटों पर नज़र रखने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई.
भारत में पूरी व्यवस्था के लिए उभरने वाले संकटों की पहचान और निगरानी करने वाला कोई वैधानिक ढांचा नहीं है. पहले, संकटग्रस्त आइएल ऐंड एफएस के मामले में पाया गया था कि इसकी सहायक कंपनी आइएल ऐंड एफएस फाइनांशियल सर्विसेज द्वारा समूह के दूसरे संगठनों को दिए बकाया कर्जे स्वीकृत रेगुलेटरी सीमा से बहुत ज्यादा थे. नियमन के मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए समूह के दूसरे संगठनों के जरिए घुमा-फिरा कर कर्जे दिए गए थे. आपस में उधार देने का चलन आइएल ऐंड एफएस के संकट का मूल कारण था. आइएल ऐंड एफएस व्यवस्थागत रूप से एक महत्वपूर्ण ‘एनबीएफसी’ है इसलिए इसमें संकट ने दूसरे कई ‘एनबीएफसी’ में संकट पैदा कर दिया.
रिजर्व बैंक की नियमन तथा निगरानी क्षमता में सुधार किए बिना, और विफलता के समाधान तथा व्यवस्थागत जोखिम के नियंत्रण का ढांचा तैयार किए बिना बड़े कॉर्पोरेट घरानों को बैंक खोलने की अनुमति कतई नहीं देनी चाहिए.
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