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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकांग्रेस में हाईकमान ने चुप्पी साधी है, क्षेत्रीय क्षत्रप गहलोत, बघेल मुखर हो रहे जो पार्टी में नये ट्रेंड को दिखाता है

कांग्रेस में हाईकमान ने चुप्पी साधी है, क्षेत्रीय क्षत्रप गहलोत, बघेल मुखर हो रहे जो पार्टी में नये ट्रेंड को दिखाता है

ऐसे समय में जब केंद्रीय नेतृत्व बुरी तरह नाकाम साबित हो रहा हो, कांग्रेस के लिए खुद को दोबारा प्रासंगिक बनाने का एकमात्र रास्ता है मज़बूती से जमे अपने क्षेत्रीय नेताओं के सहारे राज्यों में अपनी सक्रियता बढ़ाना.

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राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों- अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और अमरिंदर सिंह- के हालिया बयान असामान्य और असाधारण हैं क्योंकि कांग्रेस पार्टी ‘हाईकमान’ के साये में रहने की आदी रही है. उनके नए रुख की असामान्य प्रकृति पार्टी के अभूतपूर्व संकट तथा एक कमज़ोर, अनियोजित, अस्थिर और अंक्सर उदासीन शीर्ष नेतृत्व द्वारा छोड़े गए शून्य को उजागर करती है.

‘लव जिहाद’ से लेकर विवादास्पद नए कृषि कानूनों तक, ये कांग्रेसी मुख्यमंत्री उन मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को आगे बढ़कर चुनौती दे रहे हैं जो कि प्रभावों की दृष्टि से राष्ट्रीय महत्व के हैं. पार्टी के राष्ट्रीय चेहरों- राहुल और प्रियंका गांधी- के हमेशा की तरह अस्थिर और गैरजवाबदेह रवैये के मद्देनज़र शीर्ष से नियंत्रित रही कांग्रेस में एक असाधारण स्थिति बन गई है- इसके क्षेत्रीय नेता खुलकर बोलने लगे हैं. हमेशा ‘पहले गांधी परिवार को बोलने दें’ की नीति पर चला राज्य नेतृत्व अब केंद्रीय नेताओं के साये से बाहर निकल रहा है.

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ‘लव जिहाद’ के मुद्दे पर भाजपा-विहिप-आरएसएस तंत्र की विचारधारा के खिलाफ सामयिक और ज़रूरी हस्तक्षेप किया है.

उधर पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने नरेंद्र मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ जी-जान से संघर्ष किया है. वह केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को बिना उनकी अनुमति के राज्य में प्रवेश नहीं करने देने के मुद्दे पर भी काफी मुखर रहे हैं.

एक तरफ जहां भाजपा ने ‘लव जिहाद’ के मुद्दे को अपना युद्धघोष बना लिया है, वहीं कांग्रेस के शीर्ष नेता- जिन्होंने चुनिंदा विषयों पर ही बोलने की आदत बना रखी है- इस मुद्दे पर चुप्पी साधे दिखते हैं, जबकि ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का दावा करने वाले विपक्ष को इस पर उद्वेलित दिखना चाहिए था.

नाकाम शीर्ष नेतृत्व

कांग्रेस के सतत संकट में घिरे होने की बात अब किसी से छुपी नहीं है- पार्टी का अब भी कोई स्थाई अध्यक्ष नहीं है, इसका शीर्ष नेतृत्व अपनी ही दुनिया में खोया रहता है, जबकि बाकी संगठन के पास कोई दिशा या योजना नहीं है.
‘प्रथम परिवार’ के पार्टी मामलों में रुचि नहीं लेने और कोई पहल नहीं करने के कारण संकट की स्थिति बन गई है. शायद गांधी भाई-बहन को अब भी इस बात का एहसास नहीं है कि अब सवाल पार्टी को बचाने भर का ही नहीं रह गया है, बल्कि बात उनके खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की भी है. केंद्र में सत्ता हासिल करने की कोई संभावना नहीं दिखने और मात्र कुछ राज्यों में ही सत्ता पर काबिज होने के कारण पार्टी का असर घटता जा रहा है. राहुल गांधी की 2019 के लोकसभा चुनावों में परिवार के गढ़ अमेठी में हार ने स्थिति को और गंभीर बना दिया, और उनकी मां सोनिया गांधी के आगे और चुनाव लड़ने की संभावना नहीं दिखती है, यानि रायबरेली भी हाथ से निकल सकता है.


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जब राहुल अपने पारिवारिक गढ़ में भी अजेय नहीं रह गए हों और स्थिति ऐसी ही रही तो संभव है कि 2024 में गांधी परिवार के हाथ में कोई लोकसभा सीट नहीं रह जाए. वर्तमान में गांधी परिवार के हाथों में बीते दिनों की ताकत का कुछ अंश भर ही रह गया है – उनसे एसपीजी सुरक्षा कवर वापस लिए जाने को इस बदलाव का एक संकेतक माना जा सकता है.

हालिया बिहार विधानसभा चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन पर पार्टी नेताओं को शर्मिंदगी होनी चाहिए थी और उन्हें आगे बढ़कर बदलाव के लिए कदम उठाने चाहिए थे. इसके विपरीत, हमें इस मुद्दे पर पूर्ण चुप्पी ही देखने को मिली है. वैसे, ये कोई नई बात भी नहीं है क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में मात्र 44 सीटें हासिल करने की अपमानजनक उपलब्धि भी गांधी परिवार को आत्मतुष्टि का भाव छोड़ने के लिए मजबूर नहीं कर पाई थी.

भाजपा अपने ‘लव जिहाद’ के कथानक के ज़रिए जिस तरह ज़हर फैला रही है, तथा मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्य जिस प्रकार इसके लिए कानून बनाने की बात कर रहे हैं, उसे देखते हुए राहुल गांधी को इसके विरोध का माद्दा दिखाना चाहिए था, खासकर जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा के विरोध को अपनी राजनीति का आधार घोषित रखा है. लेकिन अभी तक उन्होंने चुप्पी साधे रखने का विकल्प ही चुना है. आखिर एक जनेऊधारी ब्राह्मण के लिए अंतरधार्मिक विवाह को सही ठहराना आसान भी नहीं होगा, खासकर जब आपको अपनी राजनीतिक दिशा का अंदाजा ही नहीं हो, और आप धर्म से जुड़े राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर मुंह खोलने से बचते हों.

हालांकि कांग्रेस को कहीं बड़ी आफत का सामना है जो मुद्दा विशेष पर गांधियों की चुप्पी, जोकि एक कहीं बड़ी समस्या का एक लक्षण मात्र है, तक ही सीमित नहीं है. और यही बात पार्टी के संतुलन को बिगाड़ती नज़र आ रही है.

आक्रामक प्रांतीय नेतृत्व

अशोक गहलोत ने अपने ट्वीटों के ज़रिए ‘लव जिहाद’ के पूरे मिथक पर अपनी आपत्ति जाहिर कर एक साहसिक, निर्णायक और समझदारी भरा रुख अपनाया है. एक प्रभावी विपक्ष को ऐसा ही करना चाहिए — उसे सत्तारूढ़ दल, चाहे वो कितना भी ताकतवर क्यों ना हो, के मूर्खतापूर्ण लेकिन खतरनाक सामाजिक-राजनीतिक कदमों पर सवाल उठाने चाहिए. भूपेश बघेल ने भी ऐसा ही किया और नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्व वाली पार्टी को इस मुद्दे पर घेरने की कोशिश की.

इससे पहले अदमनीय अमरिंदर सिंह ने एक बड़ा कदम उठाया जब वह राष्ट्रीय राजधानी में मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के प्रदर्शन में शामिल हुए. पिछले साल के लोकसभा चुनावों से पहले अमरिंदर सिंह ने — मोदी के विरोध में पार्टी के शीर्ष नेताओं की अक्षमता को देखते हुए — कड़ा रुख अपनाते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर पार्टी की अगुआई की थी.

ये सब मज़बूत प्रांतीय नेता हैं जिनकी ज़मीनी राजनीति पर पकड़ है. ये नेता हमेशा गांधी परिवार के वफादार भी रहे हैं. इसलिए राष्ट्रीय मुद्दों पर इनके बोलने को शीर्ष नेतृत्व को नीचा दिखाने या उसकी अवहेलना करने का प्रयास नहीं कहा जा सकता है, बल्कि इसे उनकी संदिग्ध और लचर उपस्थिति की भरपाई के प्रयास के रूप में देखा जाना चहिए. इन नेताओं में से कोई भी राहुल गांधी के खिलाफ नहीं बोलता, भले ही वह कितने भी अक्षम साबित हो रहे हों. हाल ही में, दिप्रिंट के लिए मुझे दिए साक्षात्कार में भूपेश बघेल ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि कैसे पार्टी राहुल गांधी को दोबारा अध्यक्ष के रूप में देखने के लिए लालायित है.

ऐसा नहीं है कि अतीत में कांग्रेस में ताकतवर प्रांतीय नेता नहीं हुए हों — पूरब में तरुण गोगोई और उत्तर में शीला दीक्षित से लेकर दक्षिण में वाईएस राजशेखर रेड्डी तक, बहुतेरे उदाहरण मौजूद हैं. लेकिन शीर्ष नेतृत्व, खासकर गांधियों ने हमेशा ही एक ऐसी व्यवस्था पर ज़ोर दिया है जिसमें प्रांतीय नेता दिल्ली के इशारे पर ही बोलते हैं और राष्ट्रीय मुद्दों पर आवाज़ उठाने के बजाय खुद को प्रांतीय विषयों तक ही सीमित रहते हैं, और राष्ट्रीय मुद्दों पर बोलना गांधी परिवार या अन्य राष्ट्रीय नेताओं का विशेषाधिकार माना जाता है.

ऐसे समय में जबकि केंद्रीय नेतृत्व बुरी तरह नाकाम साबित हो रहा हो, कांग्रेस के लिए खुद को दोबारा प्रासंगिक बनाने का एकमात्र रास्ता है मज़बूती से जमे अपने क्षेत्रीय नेताओं के सहारे राज्यों में अपनी सक्रियता बढ़ाना. खासकर अतिशक्तिशाली मोदी-शाह जोड़ी के अधीन सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा निर्मित तंत्र के खिलाफ आवाज़ उठाकर अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और अमरिंदर सिंह ने शायद कांग्रेस को आगे का रास्ता दिखा दिया है.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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