नई दिल्ली: पंजाब ने इस महीने के शुरू में राज्य के मामलों की केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से जांच संबंधी अपनी सामान्य सहमति वापस ले ली, यह कदम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘सहकारी संघवाद’ के मंत्र के विपरीत केंद्र और राज्य के बीच संबंधों में टकराव बढ़ने का साफ संकेत है.
यह पहली बार नहीं है जब भारत में केंद्र-राज्य संबंधों को परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ रहा है.
पूर्व में भी इन रिश्तों को परखने और इसमें बदलाव के उपाय सुझाने के लिए दो उच्चस्तरीय आयोगों के गठन की जरूरत पड़ी थी. पहला 1983 में सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस आर.एस. सरकारिया के नेतृत्व में और दूसरा भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश सेवानिवृत्त जस्टिस एम.एम. पंछी के नेतृत्व में 2007 में बना था.
लेकिन यह टकराव इतना ज्यादा कभी नहीं रहा जितना हाल के दिनों में बढ़ा है.
कृषि क्षेत्र में मोदी सरकार के हालिया कानूनों पर आपत्ति जताने से लेकर कोविड-19 से लड़ने के लिए केंद्र सरकार की ओर से तय कड़े नियमों के विरोध और जीएसटी मुआवजे के अपने हिस्से की मांग तक कई विपक्ष शासित राज्य हाल के महीनों में केंद्र के साथ टकराव की मुद्रा में रहे हैं, उनकी तरफ से केंद्र पर अपनी शक्तियों के दुरुपयोग की कोशिश करने का आरोप तक लगाया जा रहा है.
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सत्ता का केंद्रीकरण टकराव की वजह बना
विश्लेषकों का कहना है कि पूर्व में विपक्षी शासन वाले राज्यों समेत विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच रिश्तों में ‘एक हाथ ले-एक हाथ दे’ वाले समीकरणों के बीच केंद्र में एक सशक्त सरकार, जो सत्ता के केंद्रीकरण में ज्यादा ही भरोसा करती है, के काबिज होने से राज्यों के ज्यादा तल्ख तेवर अपनाने का रास्ता खुला है जिसमें गतिरोध तोड़ने के लिए बातचीत की गुंजाइश कम ही बचती है.
हाल ही में लागू कृषि कानून इसका स्पष्ट उदाहरण हैं. केंद्र पर कोई सलाह न लेने का आरोप लगाते हुए तीन विपक्ष शासित राज्यों- पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने केंद्रीय अधिनियमों में संशोधन के लिए खुद अपने स्तर पर बिल पारित कर दिए हैं और नतीजा इस प्रक्रिया ने उन्हें निष्प्रभावी कर दिया है.
इन राज्यों का तर्क है कि कृषि एक राज्य का विषय है और इस पर कोई कानून लाना पूरी तरह उनके अधिकार क्षेत्र में आता है. इस रुख ने केंद्र के साथ अधिक तीखी तकरार का रास्ता खोल दिया है.
पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य रह चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री वाई.के. अलघ का कहना है कि यदि आप समवर्ती सूची में शामिल कृषि कानूनों जैसा कोई अच्छा कानून एक अध्यादेश के माध्यम से लाते हैं और वह भी राज्यों के साथ किसी चर्चा के बिना, तो उनकी तरफ से विरोध जताना लाजिमी ही है.
अलघ ने कहा, ‘इसके बजाये केंद्र को इनका उचित रोडमैप तैयार करने के बाद कहना चाहिए था कि इन कानूनों को अगले साल लागू किया जाएगा. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर को ही लें. जब आप जानते हैं कि बहुत से किसान ऐसे हैं जिनके पास आधार नहीं है, तो उन्हें सशक्त बनाने का पूरा उद्देश्य ही नाकाम हो जाता है.’
राज्य में मामलों की सीबीआई जांच संबंधी सामान्य सहमति वापस लेना एक और उदाहरण है. जांच एजेंसी पर राजनीतिक प्रतिशोध का एजेंडा चलाने का आरोप लगाते हुए आठ राज्यों पंजाब, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, झारखंड, महाराष्ट्र, केरल, छत्तीसगढ़ और मिजोरम ने अपने-अपने राज्य में मामलों की जांच के संबंध में एजेंसी को पूर्व में हासिल अनुमति वापस ले ली है.
अलघ का कहना है कि जिस तरह से केंद्र-राज्य संबंध बिगड़ रहे हैं, इससे देशभर में शासन व्यवस्था प्रभावित होगी.
उन्होंने कहा, ‘विशेष रूप से आंतरिक सुरक्षा मामलों पर असर पड़ेगा, जो समग्र विकास के लिए सबसे ज्यादा अपेक्षित होती है. सीबीआई देश की प्रमुख जांच एजेंसी है और इसे देश के लगभग आधे हिस्से में जांच की मंजूरी नहीं मिलना हास्यास्पद है. इससे हमारी सुरक्षा कमजोर होगी.’
उन्होंने कहा, ‘केंद्र सरकार को ऐसे मामलों में बहुत सावधान रहना होगा.’
हालांकि, पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई महसूस करते हैं कि सिर्फ राज्यों को दोष देना अनुचित होगा क्योंकि सीबीआई ने हाल के समय में खुद का राजनीतिकरण किया है. उन्होंने कहा, ‘इसने अपनी विश्वसनीयता खो दी है. यह केंद्र की जिम्मेदारी है कि वह राज्यों को साथ लाए और जांच एजेंसी के प्रति उनका विश्वास बढ़ाए.’
यह कुछ हद तक विडंबनापूर्ण ही है कि केंद्र और राज्यों, खासकर विपक्षी शासन वाले, के बीच रिश्तों का समीकरण ऐसे समय पर ज्यादा बिगड़ा है जब केंद्र का नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में है जो सहकारी संघवाद के सबसे मुखर पैरोकारों में से एक रहे हैं, विशेष रूप से गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान.
टकरावपूर्ण संबंध बढ़ने के बारे में पूछे जाने पर भाजपा के राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा कहते हैं कि राज्यों का रवैया संघवाद के सिद्धांतों के खिलाफ है.
उन्होंने कहा, ‘राज्यों के साथ विचार-विमर्श के बाद जीएसटी कानून बनाया गया. जब एक नया कानून लागू होता है तो शुरू में कुछ मुद्दों का सामना करना पड़ता है. कृषि कानूनों को लेकर कुछ राज्य राजनीतिक नाटक दिखाने के लिए कानून पारित कर रहे हैं. इस प्रक्रिया में दरअसल वे बड़े पैमाने पर किसानों के हितों को नुकसान पहुंचा रहे हैं.’
सिन्हा कहते हैं कि मुख्य समस्या यह है कि कुछ राजनीतिक दलों को भाजपा का उभरना बर्दाश्त नहीं होता है.
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समन्वय बढ़ाने, सहमति कायम करने और टकराव के समाधान के लिए कोई निकाय नहीं
14वें वित्त आयोग के सदस्य रहे एम. गोविंद राव के अनुसार, केंद्र-राज्य संबंध इसी तरह ऊपर-नीचे होते रहते हैं और मोदी सरकार के समय इसमें कुछ अलग नहीं हो रहा.
राव कहते हैं, ‘इसका एक कारण यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन की संरचना ही विषम है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘आजादी के बाद लंबे समय तक केंद्र और राज्यों दोनों में एक ही राजनीतिक पार्टी की सत्ता थी और इसलिए ज्यादा टकराव नहीं होता था. इसकी वजह से केंद्र और राज्यों के बीच जुड़ाव अनौपचारिक था और परस्पर रिश्तों के लिए कोई औपचारिक नियम नहीं बने थे. केंद्र में सत्ता के केंद्रीकरण और कई राज्यों में विपक्षी दलों के शासन के साथ टकराव बढ़ने लगा.’
यही वजह थी कि इन मुद्दों को सुलझाने के लिए सरकारिया और पंछी आयोगों का गठन किया गया था. लेकिन दोनों आयोगों की तमाम सिफारिशों को ठीक से लागू नहीं किया गया.
राव बताते हैं कि सरकारिया आयोग ने एक अंतर-राज्य परिषद सचिवालय की स्थापना का सुझाव दिया था. लेकिन जैसा कि इसे केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत स्थापित किया गया, यह समन्वय बढ़ाने, अंतरसरकारी स्तर पर और सौदेबाजी और टकराव के समाधान के लिए एक स्वतंत्र निकाय तक ही सीमित रह गया.
राव ने आगे कहा, ‘आज हमारे पास केंद्र-राज्य और अंतर-राज्य मसलों को हल करने के लिए कोई स्वतंत्र निकाय नहीं है.’
हालांकि, सिन्हा तर्क देते हैं कि संघवाद को पहुंची चोट के कारण ही सरकारिया और पंछी आयोग का गठन करने की जरूरत पड़ी थी. इसका कारण केंद्र द्वारा राज्य सरकारों को निलंबित किया जाना, जिसमें आंध्र प्रदेश की एन.टी. रामाराव सरकार भी शामिल थी.
वे कहते हैं, ‘कांग्रेस शासन के दौरान वहां तनाव था क्योंकि सरकार निरंकुश तरीके से काम कर रही थी. वहीं मोदी के शासन में गैर-एनडीए शासित राज्यों को अपने जनादेश के मुताबिक काम करने की आजादी मिली हुई है.’
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‘केंद्र यह न सोचे कि राज्यों के साथ कर बांटकर खैरात दे रहा’
राज्यों को धनराशि जारी करना भी केंद्र-राज्य संबंधों में टकराव का एक बड़ा मुद्दा बन गया है, खासकर महामारी के समय में.
माल एवं सेवा कर (जीएसटी) के मुद्दे पर भी विपक्ष शासित राज्य केंद्र के खिलाफ आक्रामक तेवर अपनाए रहते हैं. उनका आरोप है कि केंद्र अपने इस वादे से पीछे हट रहा है कि जीएसटी व्यवस्था के पहले पांच वर्षों में राज्यों को किसी राजस्व हानि की स्थिति में केंद्र की तरफ से उसकी भरपाई की जाएगी.
राज्यों के विरोध प्रदर्शनों के कारण अब केंद्र को राशि का एक हिस्सा उधार लेने और इसे राज्यों को जारी करने पर राजी होना पड़ा है.
राज्यों की तरफ से महामारी के कारण आ रही आर्थिक कठिनाइयों से उबरने के लिए केंद्र से और अधिक धन जारी करने की मांग भी की जा रही है. कोविड-19 पर काबू पाने के लिए केंद्र की ओर से शराब की दुकानें बंद करने जैसे कदम उठाने का खासकर पंजाब जैसे राज्यों ने व्यापक राजस्व हानि के मद्देनज़र कड़ा विरोध किया था. इस तरह के दबाव के कारण ही केंद्र को अपना यह आदेश रद्द करने को मजबूर होना पड़ा.
जम्मू-कश्मीर के पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू कहते हैं, ‘हाल के दिनों में राजकोषीय संघीय संबंध एकदम निचले स्तर पर पहुंच गए हैं.’
राव के अनुसार, केंद्र को यह नहीं सोचना चाहिए कि कर राशि राज्यों के साथ बांटना उन्हें खैरात देने जैसा है. उन्होंने कहा, ‘यह वित्त आयोग की सिफारिश पर आधारित है, जो राजस्व निर्धारण और व्यय जिम्मेदारियों के बीच अंतर को पाटने के लिए जरूरी है.’
राव ने आगे कहा कि छठे वित्त आयोग ने कहा था कि संसाधन राष्ट्र के हैं और उन्हें जरूरत वाले क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
वे कहते हैं, ‘इसे दान समझकर देने की प्रवृत्ति हमेशा से ही नज़र आती रही है, जैसा कि हम अक्सर ही वित्त मंत्री को वित्त आयोग के अनुसार कर हिस्सेदारी और अनुदानों के बारे में ऐसे घोषणा करते हुए सुनते हैं जैसे कि कोई एहसान किया जा रहा हो.’
द्राबू का कहना है कि देखने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि राज्यों को 15वें वित्त आयोग से क्या मिलता है. उन्होंने कहा, ‘विभाज्य पूल में हिस्सेदारी से जुड़े प्रस्ताव को लेकर पहले ही सुगबुगाहट शुरू हो गई है. राज्यों को वित्त मंत्री की घोषणा का इंतजार है.’
हालांकि, भाजपा के राज्य सभा सदस्य विनय सहस्रबुद्धे का मानना है कि कई विपक्ष शासित राज्यों को तो शिकायत करने की आदत पड़ गई है.
उन्होंने कहा, ‘प्रधानमंत्री और गृह मंत्री हमेशा किसी भी आपदा प्रभावित राज्यों के साथ एकजुट होकर खड़े रहते हैं. महामारी के दौरान भी राज्यों को अनलॉक से जुड़े उपायों पर अपने मुताबिक कदम उठाने की स्वतंत्रता मिली हुई थी. कुछ भी थोपा नहीं गया था.’
जीएसटी का उदाहरण देते हुए सहस्रबुद्धे कहते हैं, ‘सभी राज्यों के वित्त मंत्रियों को कोई भी निर्णय लेते समय भरोसे में लिया गया. ज्यादातर फैसले बैठकों में सर्वसम्मति के आधार पर हुए. लेकिन बैठक खत्म होने के बाद वे गैर-जिम्मेदाराना तरीके से कार्य करते हैं और जिस कर व्यवस्था को उन्होंने ही मंजूरी दी होती है, उसे गब्बर सिंह टैक्स के तौर पर वर्णित करते हैं! यह एक प्रशासनिक या नीतिगत निर्णयों का राजनीतिकरण है.’
योजना आयोग जैसे संस्थान खत्म करने का प्रभाव
पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य रह चुके अलघ कहते हैं कि मोदी सरकार की तरफ से योजना आयोग जैसी संस्थाओं को समाप्त किया जाना भी कुछ हद तक संबंधों में तल्खी के लिए जिम्मेदार है, जो नियम-आधारित प्रणाली पर काम करते थे.
उन्होंने कहा, ‘यह सब राजनीतिक व्यवस्था को एक तरह से अभिमानपूर्ण तरीके से पेश करने जैसा है. राजनीतिक संतुलन की स्थिति इस समय काफी बिगड़ चुकी है. यह अस्थिरता पैदा करती है, जिसे कतई अच्छा नहीं माना जा सकता.’
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